Sunday 1 September 2019

264 डाॅ अंबेडकर ने अन्तिम समय में बौद्ध धर्म अपनाकर क्यों बनाया अपना ‘‘नवयान’’

डाॅ अंबेडकर ने अन्तिम समय में बौद्ध धर्म अपनाकर क्यों बनाया अपना ‘‘नवयान’’
1891 में दलित महार जाति में जन्में भीमराव अंबेडकर के पूर्वज ईस्ट इंडिया कंपनी में सम्मानित पद पर कार्यरत रहे थे अतः अपनी जाति के अन्य परिवारों की तुलना में भीमराव का परिवार समाज में उच्च स्तर पर था। वह पढ़ाई में अपने अन्य भाई बहिनों की तुलना में तेज होने के कारण राज्याश्रय पाकर विदेशों में उच्च अध्ययन कर कानून, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान की दक्षता प्राप्त कर सके। बाल्यकाल से ही वे अपनी जाति के लोगों के साथ अन्य उच्च जाति के लोगों का व्यवहार देख जातिवाद के प्रति घृणा करने लगे थे। जाति प्रथा और ऊंच नीच की अवधारणा के पीछे धार्मिक आधार जानने के लिए उन्होंने 25 वर्ष तक सभी धर्मों का अध्ययन किया। आगे जब इस संबंध में उन्होंने खोज की तब अपने तथाकथित हिन्दु धर्म में अनेक अतार्किक, अवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण तथ्यों के आधार पर सत्य को, कर्मकाण्डीय आडम्बर, रूढ़िवाद और डोगमा में छिपाया गया पाया। इतना ही नहीं जातिवाद के माध्यम से उच्च जातियों द्वारा शूद्रों /दलितों को सदा के लिए हीनभावना का शिकार बनाकर गुलामी में जकड़ा गया पाया। उनके इस निष्कर्ष के लिए उपनिषदों के ये दो बिन्दु आधारभूत मार्गदर्शक बने जिन पर हिन्दु धर्म में सार्वजनिक रूप से कभी कोई चर्चा नहीं करता-
(1) ‘‘जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्चयते।’’ अर्थात् जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं संस्कार मिलने पर ही द्विज अर्थात् ब्राह्मण कहलाते हैं। अंबेडकर का तर्क था कि जब संस्कार हीन ब्राह्मण भी शूद्र के समान ही है तो हम तथाकथित शूद्रगण संस्कार पाकर ब्राह्मण क्यों नहीं बन सकते।
(2) ‘‘चातुर्वर्णं मया सृष्टा गुणकर्म विभागशः।’’ अर्थात् मनुष्य समाज में चार वर्णों का विभाजन उनके गुण और कर्मों के अनुसार किया गया है। अंबेडकर का तर्क था कि जब गुणों और कर्मों के अनुसार समाज के चार भाग किए गए हैं तो उनमें अनगिनत जातियों का निर्माण करना स्वार्थ सिद्धि के लिए ही हो सकता है क्यों कि इस सूत्र के अनुसार अपने कर्मों को उन्नत बनाकर एक वर्ण, दूसरे वर्ण का स्थान/स्तर पा सकता है। प्राचीन साहित्य में इस परिवर्तन के अनेक उदाहरण मिलते हैं।
( यहाॅं आपको बताना चाहता हॅूं कि अंबेडकर के ये तर्क गलत नहीं थे, प्रत्येक व्यक्ति के साथ इन चारों वर्णों के कार्य जुड़े रहते हैं, जैसे शरीर की सफाई करते समय शूद्र, आजीविका के साधन हेतु आर्थिक आदान प्रदान वैश्य, अपनी और परिवार की विपत्तियों से रक्षा करते समय क्षत्रिय और दूसरों को सद्मार्ग का प्रेरण करते समय विप्र। कृष्ण के समय तक समाज में कोई जातिप्रथा नहीं थी वरन् व्यक्ति को उसके गुणों और कर्मों के अनुसार ही मान्यता दी जाती थी परन्तु वे घृणास्पद कभी नहीं रहे। एक ही परिवार में चार भाई अलग अलग वर्ण के हो सकते थे। जैसे कृष्ण के पिता वसुदेव, ताउ गर्ग और चाचा नन्द परस्पर चचेरे भाई थे परन्तु विप्रोचित कर्म की प्रधानता होने से गर्ग विप्र, क्षत्रियोचित कर्म से जुड़े होने से वसुदेव क्षत्रिय और पशुपालन और कृषि कार्य से जुड़े होने के कारण नन्द वैश्य के स्तर पर सामाजिक मान्यता प्राप्त थे।)
हिन्दु धर्म से इसी कारण उन्हें वितृष्णा हुई और वे खोजने लगे धर्म की वह व्यवस्था जिसमें जाति और ऊंच नीच की भावना न हो और उनके दलित समाज को भी अन्य वर्गो की तरह समाज में सम्मान प्राप्त हो। इस प्रयास में उन्होंने, इस्लाम और ईसाई धर्म में वर्णित ‘क़यामत’ और ‘रेप्चर’ तथा स्वर्ग नर्क की अवधारणा पाई जिससे वे सहमत नहीं थे तथा उनमें परस्पर सामाजिक  भेद और असमानता के गंभीर लक्षण भी पाए। अतः इन धर्मो की ओर से भी मन हट गया। सिख धर्म में यद्यपि जातिभेद नहीं है परन्तु उनके आर्थिक स्तर पर पहुॅंच पाने के लिए दलित समाज के सभी लोगों के पास न तो व्यवसाय के लिए पूंजी थी और न ही कृषि के लिए जमीन इसलिए वे उससे दूर ही रहे। जैन धर्म का निर्ग्रन्थवाद  उन्हें नहीं भाया, अतः एकमात्र बचे बौद्ध धर्म पर उनकी दृष्टि टिक गई। उसकी सरलता और भेदभाव रहित जातिहीन व्यवस्था उन्हें पसन्द आई पर संशोधन के साथ। बुद्ध की मूल शिक्षाओं को उन्होंने माना परन्तु पश्चात्वर्ती विभाजनों में प्रवर्तकों के स्वार्थ और अपने अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में जुटे महायान, हीनयान, तंत्रयान या मंत्रयान से दूर रहकर उन्होंने अपना अलग ‘नवयान’ बनाया । वे ‘‘बुद्धं शरणं गच्छामी’’ तो कहते थे पर कभी भी ‘‘संघं शरणं गच्छामी’’ नहीं कहा। 13 अक्तूबर 1956 को आम्बेडकर ने एक पत्रकार वार्ता में कहा था, मैं भगवान बुद्ध और उनके मूल धर्म की शरण में जा रहा हूँ। मैं प्रचलित बौद्ध पन्थों से तटस्थ हूँ। मैं जिस बौद्ध धर्म को स्वीकार कर रहा हूँ, वह ‘‘नव बौद्ध धर्म या नवयान ’’ है।,
दलित समाज के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए वे आजीवन प्रयास करते रहे इसलिए स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले से ही उनका अखिल भारतीय दलित संगठन बन चुका था। जहाॅं कहीं भी अवसर मिलता वे अपने इस उद्देश्य को पाने का प्रयास करना कभी नहीं भूलते थे। जैसे, देश को स्वतंत्रता पाने के बाद प्रथम चुनाव के लिए दलितों में से ही दलितों के द्वारा वोट देने का अधिकार देने वाला बिल लाना। परंतु जब यह बिल संसद में पास न करा सके  तो अंग्रजों द्वारा बनाया गया ‘‘मिन्टो मारले सुधार कानून 1919‘‘ जिसमें हिन्दु और मुसलमानों को पृथक पृथक मतदाताओं की तरह व्यवस्था बनाई गई थी उसी में इसी वर्ष लाये गये ‘‘मान्टेज. केमस्फोर्ड‘‘ सुधार कानून को संशोधत कर इसमें अन्य अल्पसंख्यकों जैसे क्रिश्चियन, सिख और एंग्लो इंडियन्स के लिये भी जोड़ दिया गया था; उसी में दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर अंबडकर ने अपने समाज के उत्थान के लिए पहला बड़ा लक्ष्य पा लिया।
अपनी मृत्यु से लगभग दो माह पहले, 6 अक्टूबर 1956 को, नागपुर के एक होटल में डॉ. भीमराव आंबेडकर की यह घोषणा, कि “मैं बौद्ध के सिद्धांतों को मानता हूॅं और उसका पालन करूंगा। पर मैं अपने लोगों (महार) को दोनों उसके धार्मिक पंथों जैसे  हीनयान और महायान आदि के विचारों से दूर रखूँगा। हमारा बौद्धधर्म एक नया बौद्ध धम्म है- नवयान,’’ यह  प्रकट करता है कि ‘नवयान’ या ‘नया तरीका’  भारतीय बौद्ध धर्म का एक आधुनिक संप्रदाय है जिसने भारत में मृतप्राय बौद्ध धर्म को नया जन्म दिया। नवयान में जातिप्रथा, वर्णभेद, लिंगभेद, अंधविश्वास तथा कुरितीयों को कोई स्थान नहीं हैं। बौद्ध धर्म में दीक्षा का कोई प्रावधान नहीं है परन्तु अंबेडकर जानते थे कि अनेक जन्मों के हिन्दुवादी लौकिक देवी देवताओं की मान्यताएं और संस्कार उन्हें तब तक संतोष नहीं देंगे जब तक उनकी मान्यताओं के अनुसार व्यवस्था न बनाई जाय। अतः उन्होंने दलित समाज के लाखों लोगों को बाइस प्रतिज्ञाओं के बंधन में बाॅंधते हुए दीक्षा दिलाई। यह प्रतिज्ञाएं हिंदू धर्म की त्रिमूर्ति में अविश्वास, अवतारवाद के खंडन, श्राद्ध-तर्पण, पिंडदान के परित्याग, बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों में विश्वास, ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह न भाग लेने, मनुष्य की समानता में विश्वास, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग के अनुसरण, प्राणियों के प्रति दयालुता, चोरी न करने, झूठ न बोलने, शराब के सेवन न करने, असमानता पर आधारित हिंदू धर्म का त्याग करने और बौद्ध धर्म को अपनाने से संबंधित थीं।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि उन्होंने जब विश्व के सभी धर्मों का अध्ययन कर बहुत पहले यह भली भाॅंति समझ लिया था कि उन्हें बौद्ध धर्म ही श्रेष्ठ लगता है तब अपने जीवन के अन्तिम समय में ही क्यों उसे अपनाया और सार्वजनिक घोषणा की?
जैसा पहले ही कहा जा चुका है कि वे दलित समाज को उन्नत करने के लिए बाल्यकाल से ही प्रयत्नशील थे अतः उन्होंने सरकारी नौकरियों में आरक्षण तथा अन्य सुविधाएं दिलाने के लिए अपने राजनैतिक प्रभाव और अधिकारों का सफल प्रयास किया। अपने जीवन के अन्तिम आठ वर्षों में उन्हें ‘डायबिटीज’ ने प्रताड़ित करना प्रारंभ कर दिया अतः वे दलितों के हित में अन्य जो कुछ करना चाहते थे स्वास्थ्य कारणों से उनमें बाधाएं अनुभव करने लगे। भारतीय दर्शन का एक सिद्धान्त है कि जो व्यक्ति सदा से जैसा सोचता रहता है अन्त समय में भी वैसे ही विचार मन में आते हैं। अतः बार बार मन में यह विचार आने से कि वे अपने समाज को सामाजिक स्तर पर अन्यों के समकक्ष लाने के लिए कुछ नहीं कर पाए; अतः उन्होंने  बुद्ध धर्म के मूल सिद्धान्तों को आधार बनाकर ‘नवयान’ नामक नया पंथ बनाकर स्वयं को बौद्ध धर्म का अनुयायी घोषित कर दिया।  इससे उनकी भावना के अनुसार समाज के अन्य लोग भी वैसा ही करने के लिए सहर्ष तैयार हो गए क्योंकि किसी समूह या समाज का नेता या वरिष्ठ व्यक्ति, जैसा कार्य करता है वैसा ही अनुकरण उसके अनुयायी करते हैं। इस तरह अपने मूल उद्देश्य को पाने के प्रयासों में , महाप्रयाण के कुछ समय पहले ही लाखों लोगों को अपने नवयान में दीक्षित कर गए जिससे उनका समाज दूसरे समाजों की तरह अपना अलग और सम्मानित स्तर बनाए रख सके। अपने समाज के उत्थान के लिए उनका यह कार्य निस्वार्थ सेवा का श्रेष्ठ उदाहरण माना जा सकता है। संसार के बौद्ध अपनी संख्या की गणना में इन नव बौद्धों को भले सम्मिलित करने में उत्सुकता दिखाएं परन्तु उसकी अनेक शाखाओं के अनुयायी अपनी अपनी प्रतिष्ठा और वर्चस्व को बनाए रखने के लिए वे अपने को इनसे अलग ही मानते हैं , यही कारण है कि  यह नवयान केवल दलितों के बीच ही सीमित रह गया। हिन्दु धर्म से घृणा की नीव पर स्थापित इस संप्रदाय के प्रवर्तक भीमराव अंबेडकर, नवयानी बौद्धों के लिए किसी अवतार से कम नहीं। यद्यपि उन्होंने अवतारवाद को कभी मान्य नहीं किया लेकिन हिन्दुओं ने बुद्ध को अवतार मान लिया है।

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