Friday, 13 September 2019

266 मदन मर्दन

(हिन्दी दिवस पर)
मित्रो! इस घटना के सत्य होने का दावा मैं नहीं करता परन्तु इसे मेरे नानाजी ने मुझे पचास वर्ष पहले (जब मैं विश्वविद्यालय की प्रारंभिक कक्षाओं का छात्र था)  इस प्रकार सुनाई थी कि उसके सत्य होने में मुझे कोई शंका नहीं हुई। इसके साथ जुड़े अन्य उपाख्यानों और उनकी शब्दावली को मैं ने संपादित कर बुंदेली की एक अलंकारिक रचना से जोड़ दिया है जिसके रचियता का नाम ज्ञात नहीं है; इसे कक्षा नौ में पढ़ते समय मेरे हिंदी विषय के शिक्षक ने सवैया छंद की मात्राओं की गणना करने का अभ्यास करने के लिए दी थी। कहानी के साथ इसका रसास्वादन कीजिए और अपना मत व्यक्त कीजिए।
मदन मर्दन
एक संस्कार सम्पन्न सेठ की अचानक मृत्यु हो जाने पर ब्यापार का पूरा काम उसके इकलौते लड़के के ऊपर आ गया।  वह भी अपने पिता के अनुसार बनाई गई ब्यवस्था का पालन करते हुए सफलता पाने लगा। उसकी योग्यता के कारण एक अत्यन्त सम्पन्न घराने की सुन्दर कन्या से उसका विवाह हो गया। एक बार लड़के को ब्यापार के सिलसिले में 10-15 दिन के लिए दूरस्थ शहर जाना पड़ा। दोनों यौवनावस्था के उस दौर में थे कि एक दूसरे से एक दिन भी दूर नहीं रह सकते थे फिर इतने दिन की दूरी तो साक्षात् मौत ही थी। लड़के की पत्नी बोली ‘‘आप इतने दिन के लिये हमसे दूर जा रहे हो, मैं अकेली कैसे रह पाऊंगी?’’ वह बोला ‘‘घर में सबकुछ है, नौकर चाकर हैं, कोई कठिनाई नहीं आयेगी, काम पूरा होते ही आ जाऊँगा।’’ उसकी पत्नी  कामुक प्रकृति की थी और उस पर नई नई शादी, फिर इतना लम्बा बिछोह कैसे सहेगी, उसकी यही समस्या थी। 
वह बोली, ‘‘ जिस आवश्यकता की पूर्ति केवल आप ही कर सकते हों वह इन नौकरों और सब साधनों से क्या सम्भव हो सकेगी? यदि किसी दिन कामुकता ने प्राणघातक हमला कर दिया तो मैं क्या करूंगी?’’ लड़का बोला ‘‘चिन्ता की बात नहीं, उस दिन तुम छत पर जाकर सूर्योदय से पहले दक्षिण दिशा में देखना जो व्यक्ति सबसे पहले उस इमली के पेड़ के पास दिखे उसे बुलाकर अपनी इच्छा की पूर्ति कर लेना, यह मेरी सहमति है।’’ यह कहकर वह  यात्रा पर चला गया। इधर तीन चार दिन ही मुश्किल से बीते होंगे कि उसकी पत्नी  कामाग्नि से पीड़ित हुई। बार बार सबसे ऊपर की छत पर जाती, नीचे आती और सोचती, 
‘‘ परसों कहि कन्त विदेश गए, अजहॅूं न भई परसों नरसों,
इत निष्ठुर यौवन बैरि परो, उत मेघ कहें बरसों बरसों’’
हौं बारहिं बार अटारि चढ़ों, और ठाड़ि रहों तरसों तरसों,
जिय होत उड़ाय के जाय मिलों, पै उड़ो नहिं जात बिना परसों।’’
बहुत प्रयत्न करने पर भी जब रहा न गया तो अगले दिन उसने सूर्योदय से पहले ही छत पर पहुँचकर दक्षिण दिशा  में दृष्टि दौड़ाई; उसे एक आदमी केबल अन्तः वस्त्र पहिने, हाथ में  एक मिट्टी का करवा (लोटा) लिए जाता दिखाई दिया। उसने फौरन नौकर को उस ओर दौड़ाया और कहा ‘‘ उन सज्जन को आदरपूर्वक, यहाँ आने के लिये मेरा निवेदन पहुँचा दो।’’  नौकर उस आदमी के पास पहुँचा और सेठ जी की बहु  का सन्देश  पहुँचाया, वह भी तत्काल साथ आ गये। बहु  ने उन्हें नमस्कार करते हुए ऊपर चलने के लिये सीढ़ियों की ओर इशारा किया। वह बिना झिझक ऊपर चढ़ने लगे, चार पाँच सीढ़ियाँ चढ़ ही पाये थे कि उनके हाथ का करवा (मिट्टी का लोटा) जमीन  पर गिर कर चूर चूर हो गया। 
वे तत्काल मुड़े और वापस लौटने लगे, बहु  बोली, ‘‘महोदय! क्या हुआ, वह तो मिट्टी का था इसलिए टूट गया; मैं आपको सोने, चाँदी, जैसा कहें बढ़िया लोटा दे दूँगी पर बापस न लौटिए, मेरे साथ चलिये।’’ सज्जन बोले, ‘‘उस मिट्टी के करवे ने ही मुझे साँगोपाँग देखा था, अब दूसरा कोई देखे इससे पहले मैं अपना अस्तित्व करवे की भाँति छिन्न भिन्न कर देने में ही भलाई समझता हूँ।’’ 
इतना कहकर वह चले गए पर सेठ की बहु का मस्तिष्क सक्रिय कर गये। वह सोचने लगी कि ‘‘जब यह आदमी एक निर्जीव वस्तु के साथ अपनी एकनिष्ठता नहीं तोड़ सकता तो मैं अपने प्राणप्रिय के साथ यह क्या करने जा रही थी?’’
उसने अपने को धिक्कारा और ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उसने इस आदमी के माध्यम से सद्ज्ञान देकर पतन होने से बचा लिया।   

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