Sunday 22 September 2019

267 पराभक्ति

 पराभक्ति
सभी लोग अपनी अपनी मान्यताओं के अनुसार जिसमें आस्था रखते है उसके प्रति पूज्य भाव उत्पन्न कर लेते हैं । इसी आधार पर वे अनेक अपेक्षाएं भी पाल लेते हैं और चाहते हैं कि उनके द्वारा की जा रही पूजा से उन्हें  वाॅंछित फल मिल जाएगा। अर्थात् यदि वाॅंछित फल के पाने की संभावना न हो तब वे पूजा करना नहीं चाहेंगे। कुछ लोग इसी आशा में अनेक प्रकार के देवी देवताओं को पूजते देखे जा सकते हैं। पूजा करने के समय उनके निवेदन लगभग इस प्रकार के होते हैं।  
‘‘हे प्रभु! मुझे अपार दौलत और सुखोपभोग की वस्तुऐं प्राप्त हो जाएं, 
मैं उच्च पद को प्राप्त कर लॅूं, 
मैं परीक्षा में पास हो जाऊं, 
मेरी अच्छी नौकरी लग जाए, 
मेरा स्वास्थ्य ठीक हो जाए, 
मैं कोर्टकेस जीत जाऊं, 
मेरी बेटी की शादी अच्छे घर में हो जाए, 
मेरे सभी शत्रुओं का अन्त हो जाए.... आदि ।’’ 
इस प्रकार की अनेक इच्छाओं की पूर्ति वे अपने चंदन, फूल, माला, नारियल, अगरबत्ती और मिष्ठान्न आदि की भेंट के बदले में कराना चाहते हैं। अब यदि उनकी मान्यताओं के अनुसार देवता या भगवान उनकी प्रत्येक इच्छा की पूर्ति करने बैठ जाएं तो क्या होगा?
भगवान इस प्रकार की याचना की पूर्ति कर भी सकते हैं और नहीं भी, परन्तु मेरे विचार से अधिकतर मामलों में वे उदासीन ही रहते हैं। सोचने की बात है कि उन्होंने आपको शरीर, मन, बुद्धि, विवेक सब कुछ देकर उनका अधिकतम उपयोग करने के लिए धरती पर भेजा है; पराक्रम कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए अपने लक्ष्य को पाने के लिए। यदि लक्ष्य भूलकर हम अन्य किसी की याचना करते हैं तब उसका पूरा हो पाने की संभावना न्यून ही हो जाती है।
ईश्वर ने यह सृष्टिचक्र बहुत ही व्यवस्थित बनाया है जिसमें अधिकांशतः प्रकृति अपने गुण और स्वभाव से लगातार रूपान्तरण करते हुए इसे पूरा करती है। वनस्पति और मनुष्येतर प्राणी पूर्णतः प्रकृति पर आश्रित होकर आगे बढ़ते हैं जबकि मनुष्य अपने विवेक का उपयोग कर प्रकृति की सहायता ले, उस पर नियंत्रण पाकर अपने लक्ष्य को पा सकता है। पर प्रश्न यह है कि मनुष्य अपनी अग्रगति के लिए ईश्वर से कुछ मांगे या नहीं? इसका उत्तर है भौतिक जगत की किसी भी वस्तु को तो नहीं ही मांगना चाहिए। हाॅ, उनसे केवल ‘‘पराभक्ति’’ ही मांगना चाहिए जिसमें स्वयं को उनके प्रेम में आत्मसमर्पित किया जाता है। आत्मसमर्पित किए हुए भक्त के समक्ष, उसके भगवान सदा ही उपलब्ध रहते हैं और जिसके साथ भगवान स्वयं हों उसे अन्य किसी की आवश्यकता ही कैसे हो सकती है। हम सबका लक्ष्य ईशोपलब्धि करने का ही होना चाहिए।  

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