चिकित्सा पद्धतियाॅं
चिकित्सा के क्षेत्र में आजकल एलोपैथी, आयुर्वेद, नेचुरोपैथी और होमियोपैथी में इलाज करने की पद्धतियाॅं/विधियाॅं प्रयुक्त की जाती हैं। समस्या यह है, कि हमें किस पद्धति को विश्वास पूर्वक अपनाना चाहिए ? एलोपैथी में व्यापक नैदानिक परीक्षण से शल्यक्रिया करने या उपचार की व्यवस्था है परन्तु देखा गया है कि इन दवाओं के साइड इफेक्ट होते हैं और क्रोनिक बीमारियों में तो आजीवन दवा लेना पड़ती है। आयुर्वैदिक दवाएं सचमुच गंभीर बीमारियों को ठीक करते देखी जाती हैं। नेचुरोपैथी में प्राकृतिक रूप से वायु , जल, प्रकाश और भूमि का प्रयोग किया जाता है पर वे कोई दवा का प्रयोग नहीं करते इसलिए यह सीमित हो जाता है क्योंकि मरीजों को इससे अपेक्षित चिकित्सा और सेवा हमेशा प्राप्त नहीं होती। होमियोपैथिक दवाओं की विशेषता यह है कि वे बहुत सूक्ष्म होती हैं और गहराई से कार्यशील होती हैं क्योंकि वे रोगी के लक्षणों के आधार पर निर्धारित की जाती हैं। इसकेे विपरीत एलोपैथिक और आयुर्वेदिक दवाएं रोगी के लक्षणों पर आधारित न होकर बीमारी पर आधारित होती हैं। होमियोपैथिक दवा सूक्ष्म होने के कारण यदि गलत भी दे दी जाए तब भी वह भले लाभ न पहॅुंचाए पर हानि नहीं पहुॅंचाती जबकि एलोपैथी और आयुर्वेदिक दवा गलत दे दी जाय तो घातक ही होती है। होमियोपैथिक दवाओं की एक विशेषता यह भी है कि ये अपेक्षतया सस्ती होती हैं और आधुनिक कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग हो जाने के कारण कोई भी व्यक्ति अपने रोग के लक्षणों आधार पर बिना डाक्टर के पास जाए स्वयं ही इन्हें ले सकता है, परन्तु गंभीर मामलों में डाक्टर से ही परामर्श लेना चाहिए। होमियोपैथी का सिद्धान्त है ‘‘समः समम शाम्यति’’। इसलिए जितनी क्रूड बीमारी होती है उतनी ही सूक्ष्म दवा चयनित की जाती है और वह तेजी से रोग पर प्रभावी होती है। महाभारत काल में भीम को दुर्योधन के द्वारा दिए गये विष की चिकित्सा कृष्ण के सुझाव पर विष के द्वारा किए जाने के प्रमाण पाए जाते हैं जो ‘‘समः समम शाम्यति’’ के सद्धान्त के अनुसार ही है। उस समय आयुर्वेद में विष चिकित्सा पर शोध के अलावा ‘‘सूचिकाभरण’’ (जिसे आजकल इंजेक्शन कहा जाता है) पर भी प्रचुर जानकारी उपलब्ध थी परन्तु उस समय लोगों में यह अंधविश्वास फैला था कि शरीर में बाहरी द्रव्य सीधे ही नहीं भेजा जाना चाहिए, अतः इस कार्य के विकास में अवरोध आ गया । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इंजेक्शन से दवा देना सहज माना जाता है। चाहते हुए या न चाहकर भी होमियोपैथी और आयुर्वेद दोनों ही पद्धतियों में विशेषज्ञों द्वारा इंजेक्शन लगाना स्वीकार किया जा चुका है।
वास्तव में भारत का वैद्यक शास्त्र और आर्यों का आयुर्वेद कृष्ण के काल तक परस्पर मिल कर एक हो गए थे परन्तु आर्यों द्वारा भारत के मूल निवासियों अर्थात् अनार्यों को हेय दृष्टि से देखा जाना जारी था और उन्हें प्रायः राक्षस या म्लेच्छ कहा जाता था। महाभारत काल में कृष्ण के फुफेरे बड़े भाई जरासंध का जन्म सिजेरियन अर्थात शल्यक्रिया के उपरांत ही हुआ था जिसे ‘जरा‘ नाम की महिला डाक्टर ने की थी। इसीलिए वह जरासंध ( अर्थात जिसे ‘जरा‘ राक्षसी के द्वारा शल्य क्रिया से सिल कर जन्म दिया गया) कहलाये। ‘जरा’ को राक्षस कुल की होने के कारण जरा राक्षसी कहा गया है परन्तु जरासंध इस कुल को आदर देते थे और राक्षसी विद्या में पारंगत हुए। राक्षसी विद्या का अर्थ है सम्मोहन या हिप्नोटिज्म, इस विद्या में पारंगत अन्य महिला थीं हिडिम्बा (भीम की पत्नी)। इस विद्या का जानकार उन्नत मन, अनुन्नत मन पर अपना प्रभाव डालकर अपने आधीन कर सकता है। विशूचिका (हैजा) रोग के उपचार के लिए सुई लगाने की विधि ‘सूचिकाभरण’ का ज्ञान इसी कुल की अन्य महिला चिकित्सक ‘कर्करि‘ को था। आर्य इन लोगों को हेय मानकर तिरस्कार करते थे। इस प्रकार की अनेक विद्याएँ भारत में बहुत पहले विकसित हो चुकीं थीं परन्तु प्रोत्साहन के आभाव में वे जानकार के साथ ही विलुप्त होती गईं। बौद्धकाल में तो शवच्छेद ( डिसेक्शन) को बहुत ही हीन कार्य और अस्पृश्य माना जाने लगा था अतः उन्नत शल्य चिकित्सा विलुप्त हो गई। आज हम पाश्चात्य देशों से उन्हें जान पाते हैं और उन्हें ही इनकी खोज का श्रेय देते हैं।
आजकल कोई भी डाक्टर केवल अनुमान ही लगा सकते हैं कि कौनसी दवा बिलकुल उपयुक्त है या कौनसी गलत। इसलिए कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि उसे दी गई दवा सबसे उचित है क्योंकि वह डाक्टर के सर्वश्रेष्ठ अनुमान पर ही आधारित होती है। साथ ही यह भी कि यदि दवा अपरिष्कृत है तो वह हानिकारक हो सकती है इतना तक कि उससे मृत्यु भी हो सकती है। इस दृष्टिकोण से होमियोपैथिक दवाएं अन्य पैथी की दवाओं की तुलना में अधिक सुरक्षित मानी जा सकती हैं। होमियोपैथी में यदि शल्यक्रिया को जोड़ा जा सके तो यह पैथी अधिक सफल और प्रभावी हो सकेगी और सभी प्रकार से मानवों का भला होगा। सभी प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों में कोई न कोई विशेषता पाई जाती है अतः सभी को एक ही छत के नीचे लाकर रोग और रोगी के अनुसार परीक्षण कर चिकित्सा की जाना चाहिए जिसमें सभी का लक्ष्य रोगी को स्वस्थ करना ही होना चाहिए।
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