Monday 2 May 2016

60 बाबा की क्लास (ब्रह्मचक्र )

60 बाबा की क्लास (ब्रह्मचक्र )
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चंदू - बाबा! आधुनिक वैज्ञानिक, विश्लेषणात्मक विधियों की सहायता से प्रकृति को समझने का प्रयास कर रहे हैं तो क्या वे केवल एटम और उसके विभिन्न अवयवों तक ही रह जायेंगे या कुछ आगे भी जा सकेंगे ?
बाबा- विश्लेषण करके वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस समस्त ब्रह्माॅंड में पदार्थ और ऊर्जा के अलावा रिक्त स्पेस है और कुछ नहीं । इसी की व्याख्या वे मैटर और एन्टी मैटर के नाम से भी करते हैं। धीरे धीरे ही सही इस विश्लेषण के क्षेत्र में और गहराई पर जायेंगे तो उन्हें जीवन के उद्गम का स्रोत भी मिल सकता है और जब उनका मन संश्लेषण पर जायेगा तो जीव सहित समग्र पदार्थ और ऊर्जा को निर्मित और नियंत्रित करने वाली सत्ता को भी उन्हें मानना पड़ेगा।

नन्दू- लेकिन उनका कहना है कि ऊर्जा को न उत्पन्न किया जा सकता है और न नष्ट। उन्हें केवल रूपान्तरित किया जा सकता है इसलिये उन्हें उत्पन्न करने वाली सत्ता को वे नहीं मानते?
बाबा- नन्दू! भौतिक जगत का ज्ञान सतत परिवर्तित होता रहा है, जो परिकल्पनायें पचास वर्ष पहले अकाट्य मानी जाती थीं वे आज उन्हीं वैज्ञानिकों ने गलत सिद्ध कर नये संशोधन कर दिये और उनका स्थान नये सिद्धान्तों ने ले लिया। इसलिये यह भौतिक ज्ञान टाइम , स्पेस और पर्सन के अनुसार परिवर्तनशील है, परंतु दार्शनिक आधार पर कहे गये ब्रह्मचक्र और ब्रह्माॅंड सम्बंधी आप्त वाक्य अकाट्य हैं क्योंकि वे केवल एक और अद्वितीय  सत्ता परमपुरुष द्वारा ही अपने महासंभूति स्तर पर कहे गये हैं।

रवि- ब्रह्माॅंड की घटनाओं को ब्रह्मचक्र के द्वारा समझाया जाता है, परंतु कोई विद्वान वैदिक और कोई तान्त्रिक दर्शनों का सहारा लेता है इनमें सर्वाधिक प्रामाणिक किसे माना जाये?
बाबा- वैदिक दर्शन ब्रह्माॅंडीय गतिविधियों को सैद्धाान्तिक और विद्यातंत्र में व्यावहारिक और तार्किक आधार पर तथ्यों का मूल्यांकन किया जाता है जो आधुनिक विज्ञान के आधार पर समझाये जा सकते हैं।

इंदु- आपने पिछली कक्षा में ब्रह्मचक्र को संचर और प्रतिसंचर की गतियों द्वारा संचालित होते हुए समझाया था, क्या इन्हें आधुनिक विज्ञान में मान्यता दी गयी है या यह केवल दार्शनिक व्याख्या ही है?
बाबा- हाॅं, आधुनिक विज्ञान और विद्यातंत्र के सिद्धान्तों में शब्दावलियों की भिन्नता हो सकती है तथ्यगत नहीं। जिन्हें विद्यातंत्र में संचर और प्रतिसंचर क्रियायें कहा गया है उन्हें आज का विज्ञान क्रमश सेंट्रीफ्यूगल और सेन्ट्रीपीटल रीएक्शन्स कहता है।

राजू‘- तो क्या परम निर्गुण सत्ता के अपने अस्तित्व वोध पाने के बाद साक्षी नियंत्रक केन्द्रीय सत्ता पुरुषोत्तम, जिनकी व्याख्या पिछली क्लास में की गयी थी, से ही संचर क्रिया के लिये कास्मिक ऊर्जा मिलती है? यदि हाॅं तो क्या संचर क्रिया में ऊर्जा को क्रमशः पदार्थ में रूपान्तरित होते हुए माना जा सकता है?
बाबा- हाॅं, नियंत्रक साक्षी सत्ता अपनी स्थितिज ऊर्जा को जब गतिज रूप देने लगते हैं तो ‘सत‘ नामक बल से ज्यों ही गति प्रारंभ की जाती है तो तत्काल ‘तम‘ नामक बल इसका विरोध करने लगता है जिसे अन्य बल ‘रज‘ इन्हें संतुलित करने के लिये बलों के त्रिभुज नियम के अनुसार सक्रिय हो जाता है और परिणामतः ऊर्जा इस त्रिभुज के किसी शीर्ष से सरल रेखा में गतिशील हो जाती है जिसे इस त्रिभुज के केन्द्र में बैठे पुरुषोत्तम साक्ष्य देते हैं और नियंत्रण रखते हैं। यह बिलकुल वैसा ही है जैसे हम गति करने के लिये ज्योंही पैर आगे बढ़ाते हैं घर्षण बल तत्काल विपरीत दिशा में सक्रिय होकर गति का विरोध करता है परंतु हम इनके सहारे परिणामी बल की दिशा में गति करने लगते हैं। सत, रज, और तम इन तीन बलों के माध्यम से कास्मिक ऊर्जा, जिसे दार्शनिकगण प्रकृति कहते हैं, अपने अन्य रूपों में बदलती हुई संचर क्रिया को आगे बढ़ाती है और धीरे धीरे पदार्थ में बदल जाती हैं। सूक्ष्म से स्थूल की ओर इसकी गति होती है, अर्थात् केन्द्र से बाहर जाने का कार्य ‘‘सेन्ट्रीफ्युगल रीएक्शन‘‘। इसके बाद स्थूल से सूक्ष्म की ओर गति होना प्रतिसंचर कहलाता है जिसमें बाहर से केन्द्र की ओर गति होती है ‘‘सेन्ट्रीपीटल‘‘ और पदार्थ चेतन ऊर्जा में रूपान्तरित होता हुआ वहीं जा पहुंचता है जहाॅं से चला था।  इन दोनों के संयुक्तीकरण को ही दार्शनिक भाषा  में ब्रह्म चक्र कहते हैं।

इन्दु- लेकिन वैज्ञानिक जिसे ‘स्पेस और टाइम‘‘ कहते हैं और अभी तक सही सही व्याख्या करने की तलाश कर रहे हैं वह इस संचर में अपना स्थान पाता है या नहीं ? यदि हाॅं तो कहाॅं और कैसे?
बाबा- पुरुषोत्तम को केन्द्रित कर जब सत, रज और तम बलों में संघर्ष होता है तो ऊर्जा इनके संतुलनकारी त्रिभुज के किसी शीर्ष से बाहर सरल रेखा में तरंगायित होने लगती है। इस अवस्था में उसमें आवृत्ति शून्य और तरंग लंबाई अनन्त होती है और कास्मिक माइंड के पंचकोशों का निर्माण होने लगता है जिसे हम ‘स्पेस‘ कहते हैं तथा विद्यातंत्र में उसे ‘कौशिकी‘ या ‘‘शिवानी‘‘ कहा जाता है। इसके बाद ज्योंही इसकी सघनता बढ़ने लगती है इसकी गति में  वकृता आने लगती है जिसे ‘‘कला‘‘ कहते हैं और आवृत्ति में बृद्धि होने के साथ तरंग लंबाई अनन्त से न्यूनतम की ओर घटने लगती है और ‘‘काल‘‘ अर्थात् टाइम अपना अस्तित्व पाता है। इस अवस्था में शिवानी अब विद्यातंत्र में  भैरवी कहलाती है जो अपनी पूर्ण क्रियाशील अवस्था में आकर अपने भिन्न रूपों में रूपान्तरित होने लगती है। रूपान्तरण की वह अवस्था  दार्शनिक रूप में भवानी कहलाती है जिसे सभी निर्मित और निर्माणाधीन अस्तित्वों को स्पेस और टाइम में बाॅंधे रहना होता है । यहीं से वायु , ऊष्मा, जल और ठोस रूपों का आकार बनता है और संचर क्रिया चलती रहती है जब तक गेलेक्सियाॅं और तारे ग्रह आदि बनते रहते हैं। इन सबको साक्षीसत्ता केन्द्र में रहते हुए अपनी ओर आकर्षित किये  रहती है अतः इन सबके साथ ही गुरुत्वाकर्षण बल भी सक्रिय बना रहता है। ध्यान रहे यह सब कास्मिक माइंड के भीतर ही होतारहता  है  अर्थात उस परम सत्ता की विचार तरंगें ही हैं जिन्हें हम पृथक  और स्वतंत्र समझते और अनुभव करते  हैं।

रवि- स्पेस, टाइम और गुरुत्वाकर्षण के उद्गम का अध्ययन करने के लिये ही तो आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा ‘लार्ज हाइड्रान कोलायडर एक्सपेरीमेंट‘ किया गया था, परंतु कुछ ठोस रूप में व्याख्या नहीं हो पायी है।
बाबा- उन्हें इसे समझने में सफलता तब मिलेगी जब वे प्रतिसंचर के रास्ते आगे बढ़ेंगे  अर्थात् अपने प्रयोग आध्यात्म सम्मत बनायेंगे। वे अभी एन्टीप्रतिसंचर प्रयोग कर रहे हैं अर्थात् उलटी दिशा में जाकर बिग वेंग पर पहुंचना चाहते हैं। अच्छा तो यही है कि हम प्रतिसंचर अर्थात् सेंट्रीपीटल बल की दिशा में आगे बढ़ें और देखें कि पदार्थ , ऊर्जा और जीव या  'मन अर्थात् माइंड‘ परस्पर किस प्रकार संबंधित हैं, तभी हम प्रकृति के रहस्य को कुछ समझ सकेंगे।

नन्दू- भवानी के द्वारा सभी ऊर्जा को पदार्थ में बदल देने के बाद प्रतिसंचर का प्रारंभ कहाॅं से होता है?
बाबा- पदार्थों के पारस्परिक संघर्ष और आकर्षण के फलस्वरूप जीवन का प्रारंभ एक कोशीय जीव से होता है, जिसे आधुनिक वैज्ञानिक ‘अमीबा ‘ कहते हैं। यही काल क्रम के प्रभाव में अनेक कोशीय जीवों में बदलता जाता है और वनस्पति, जीव जंतु और अंततः मानवों का आकार पाता है । एक कोशीय जीव से इकाई मन अपने आस्तित्विक बोध को क्रमशः बढ़ाने में सक्षम होता है और प्रकृति के आधीन क्रमशः उन्नत स्तर पाता जाता है उसे वापस संचर की ओर लौटना संभव नहीं होता। मनुष्य स्तर पर आकर इकाई मन में अस्तित्व बोध तो होता ही है कृतित्व वोध भी बढ़ने लगता है अतः वह प्रकृति के अनुसार भी चल सकता है और स्वतंत्र रूप से या उसके विपरीत । अतः या तो वह प्रतिसंचर में आगे के स्तरों को प्राप्त करता हुआ अपने मूल स्थान पुरुषोत्तम तक जा सकता है या प्रतिसंचर के विपरीत जाकर अपने से इतर प्राणियों में ही आता जाता रह सकता है। प्रतिसंचर में आगे की ओर बढ़ने के लिये ही साधना और योगाभ्यास आदि की आवश्यकता होती है। यह सगुण ब्रह्म का रूप ही है जिसमें संचर और प्रतिसंचर मिलकर एक ब्रह्मचक्र बनाते हैं और हम सभी अपने अपने कर्मों के अनुसार उसमें लगातार चक्कर लगा रहे हैं। कास्मिक ऊर्जा की, भावनी स्थिति के प्रभाव में होने के कारण इस संसार को  भवसागर कहते हैं।

चंदु- तो सगुण ब्रह्म का सर्वव्यापी स्वरूप कैसा है? और यह क्यों कहा जाता है कि वह कण कण में व्याप्त है?
बाबा- सगुण ब्रह्म ओतयोग और प्रोतयोग से अपनी संरचना से हर क्षण जुड़े रहते हैं, उनका कार्य यह है कि परमपुरुष की स्रष्टि के प्रत्येक कण को मुक्त होने के लिये अवसर प्रदान करना। ओत योग का अर्थ है व्यष्टिगत संपर्क और प्रोतयोग का अर्थ है समष्टिगत संपर्क। व्यष्टिगत भाव में स्थूल, सूक्ष्म और कारण अवस्थाओं को क्रमशः जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति भी कहा जाता है जिनमें सगुण ब्रह्म बीज रूप में क्रमशः विश्व, तैजस् और प्राज्ञ कहलाते हैं । समष्टिभाव में उनकी अवस्थायें  क्षीरसागर या क्षीराब्धि, गर्भोदक,  कारणार्णव और तुरीय  कहलाती हैं और उनके संगत बीज क्रमशः विराट, हिरण्यगर्भ,  ईश्वर या सूत्रेश्वर, तथा ईश्वरग्रास  कहलाते हैं। यद्यपि ये सभी दार्शनिक शब्द हैं परंतु साधना के विभिन्न स्तरों पर इन सब का अनुभव होता रहता है। इनकी यथार्थ जानकारी रहने से मन में अनावश्यक भ्रम उत्पन्न नहीं हो पाता ।                                                             

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