59 बाबा की क्लास (पुरुषोत्तम)
राजू- बाबा! क्या हमारी यह समझ उचित है कि सृष्टि अर्थात् प्रकृति को समझने के लिये किया जाने वाला प्रयास संश्लेषणात्मक होना चाहिये न कि विश्लेषणात्मक ?
बाबा- समग्र ब्रह्माॅंड को और उसके नियंत्रक निर्माता को विश्लेषणात्मक विधियों से नहीं जाना जा सकता इससे तो केवल ऊर्जा और पदार्थ तक ही पहुंच पाते हैं जो प्रकृति के अवयव होने के कारण उससे बाहर जाने का रास्ता नहीं बता पाते, परंतु इनका संयुक्तिकरण करने पर उनके निर्माता और नियंत्रक का विचार मन में आता है। उस निर्माता को जानने के बाद फिर कुछ भी जानने की आवश्यकता नहीं रह जाती। हाॅं पदार्थ और ऊर्जा के समुचित उपयोगों को जानने के लिये उनके लक्षणों का विश्लेषण करना आवश्यक होता है।
नन्दू- लेकिन वैज्ञानिक तो यही विश्लेषणात्मक विधियाॅं अपना कर सभी कार्य कर रहे हैं चाहे वह समाजोपयोगी हो या ध्वंसात्मक?
बाबा- इसीलिये तो हमें यह प्रयास करना अत्यंत आवश्यक हो गया है कि विज्ञान को आध्यात्म सम्मत और आध्यात्म को विज्ञान सम्मत बनाया जाय। अन्यथा परमाणुओं में संचित प्रचंड ऊर्जा पर नियंत्रण करना कठिन होगा और मानव अपने ही विनाश का कारण बनेगा।
रवि- क्या आपके बताये अनुसार ब्रह्मचक्र का आधा भाग जिसे ‘संचर‘ कहा गया है वह विश्लेषणात्मक और शेष आधा भाग जिसे ‘प्रतिसंचर‘ कहा गया है, को संश्लेषणात्मक कहा जा सकता है?
बाबा- संचर और प्रतिसंचर मिलकर ही पूर्णता लाते हैं, इसलिये यह ‘पुरुषोत्तम‘ की उस विचार तरंग को ही प्रदर्शित करते हैं जिसमें एक से अनेक होने की कल्पना की गयी है। संचर में एक ही तरंग से क्रमशः अनेक होना क्रमागत होने के कारण परस्पर संयुक्त ही होता है भले वह हमें पृथक होने का आभास देता है, इसी प्रकार यही तारतम्य प्रतिसंचर में भी लगातार बना रहता है। जैसे, द्रश्य पदार्थ में अनेक तत्वों का समावेश पाया जाता है परंतु सभी तत्वों की संरचना प्रोटान और इलेक्ट्रान के क्रमागत व्यवस्थित विन्यास से ही हुई है ।
इंदु- जब वह परम सत्ता एक ही है तो कभी कभी आप उसे निर्पेक्ष ब्रह्म, कभी परमपुरुष, कभी पुरुषोत्तम आदि अलग अलग नाम बता कर हमें क्यों भ्रमित करते हैं?
बाबा- तुम लोगों ने पिछली क्लास में सृष्टि के सृजन की प्रक्रिया ठीक ढंग से समझ ही ली है तो उसमें ही स्पष्ट किया गया है कि यह नाम भ्रम पैदा करने के लिये नहीं हैं वरन् ब्रह्म चक्र में निर्धारित लाक्षणिक गतिविधियों को सम्पन्न करने वाली संबंधित सत्ता के दार्शनिक नाम हैं। जैसे, निर्पेक्ष सत्ता या परमब्रह्म, परमपुरुष, पुरुषोत्तम, सगुण ब्रह्म, आदि। निर्पेक्ष सत्ता या परमब्रह्म को सच्चिदानन्दघन भी कहा जाता है । यथार्थतः केवल इन्हीं का अस्तित्व है अन्य सभी सापेक्षिक अस्तित्व, इन्हीं की कल्पना है।
निर्पेक्ष सत्ता, या परमब्रह्म या परमसत्ता अर्थात् ‘कास्मिक एंटिटी‘ वह अस्तित्व है जो सत्य और सघन आनन्द की चेतना से भरा हो पर अपने ही अस्तित्व को भूला हो और सभी प्रकार की क्रियात्मक क्षमतायें प्राप्त होते हुए भी उन्हें सुप्तावस्था में ( potential form ) अपने भीतर ही सुसंतुलित किये हो।
पुरुषोत्तम, अवस्था वह है जो संचर और प्रतिसंचर के रूप में गतिशील ब्रह्म चक्र को, उसके केन्द्र में बैठकर समस्त गतिविधियों का साक्ष्य देता है। यह प्रकृति की किसी भी गतिविधि में भाग नहीं लेता परंतु सभी गतिविधियों का सम्पन्न हो पाना उसकी उपस्थिति में ही संभव हो पाता है इसी लिये उसे साक्षी सत्ता (cosmic entity ) कहा जाता है।
सगुण ब्रह्म, पूरा ब्रह्मचक्र है, जिसमें ‘‘निर्माण, पालन और संहार‘‘ लगातार चलते हैं । इसमें प्रकृति का वह स्वरूप जिससे निर्माण होना प्रतीत होता है उसे दार्शनिक नाम ‘ब्रह्मा,‘ जिससे पालन करने का कार्य दिखाई देता है उसे दार्शनिक नाम विष्णु और संहारक का दार्शनिक नाम ‘महेश‘ दिया गया है। ये सभी अपने अपने निर्धारित कार्य यथा समय सम्पन्न करते हुए अन्त में अपने मूल तत्व परम ब्रह्म में लय हो जाते हैं।
चंदु- परंतु कभी कभी आपने ‘तारक ब्रह्म‘ और ‘महासम्भूति‘ , इन नामों का भी अपनी व्याख्याओं में उल्लेख किया है, ये परमपुरुष से किस प्रकार भिन्न हैं?
बाबा- ‘तारक ब्रह्म‘ और ‘महासम्भूति ‘ एक ही सत्ता के क्रमशः तान्त्रिक और दार्शनिक नाम हैं। यह वह सत्ता हैं जो कभी हमारी तरह ही बद्ध थे परंतु अपनी साधना और तप के द्वारा सभी संस्कारों से मुक्त होकर परम सत्ता का साक्षात्कार कर चुकने के उपरान्त लोक शिक्षण और कल्याण का संकल्प लेकर अपना वर्तमान शरीर ही धारण किये रहे और अपना संकल्प पूरा कर आध्यात्मिक विद्या और धर्म की संस्थापना कर चले गये। तारक ब्रह्म, सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म के बीच पुल (bridge ) का कार्य करते हैं। सगुण ब्रह्म का कार्य है कि, सृष्ट की गयी प्रत्येक सत्ता को मुक्त होने का अवसर प्रदान करना। ‘‘गुरुरेको ब्रह्म न परः‘‘ के अनुसार ये तारक ब्रह्म ही सच्चे गुरु होते हैं जो ब्रह्मविद्या की उपासना करना सिखलाते हैं और कुरीतियों, आडंबर, भावजड़ता, अज्ञान, अशिक्षा और शोषण के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा देते हैं।
रवि- तो क्या इसका यह साराँश है कि निर्गुण या निराकार सत्ता अपने आपको एक से अनेक होने के लिये अपनी क्रियात्मक शक्ति अर्थात् प्रकृति के माध्यम से ब्रह्मचक्र चलाते हैं जो उनकी सगुणता या साकारता है और स्वयं केवल साक्षी स्वरूप रहते हैं। बीच की सभी सापेक्षिक सत्तायें और उनके नाम केवल दार्शनिक स्तर पर ही मान्य हैं।
बाबा- हाॅं साराॅंश यही है, परंतु समय समय पर विद्वानों और व्यख्याकारों ने अपने अपने ढंग से समझाते हुए अनेक प्रकार से भ्रम उत्पन्न किया है।
इंदु- बाबा! क्या सृष्टि के निर्माण से अब तक कोई महासम्भूति या तारकब्रह्म इस धरती पर हुए हैं? यदि हाॅं तो उनके नाम क्या हैं ?
बाबा- अभी तक ‘‘भगवान सदाशिव और भगवान कृष्ण‘‘ को ही दार्शनिकगण महासम्भूति या तारक ब्रह्म के स्तर का मानते हैं।
नन्दू- बाबा! महासंभूति या तारकब्रह्म का स्तर साधना और तप के द्वारा हममें से किसी को भी प्राप्त हो सकता है तो उस अवस्था में तारक स्तर पर पहुंचे व्यक्ति का कार्य व्यवहार कैसा हो जाता है जिसे देख समझकर पहचाना जा सके कि वे उस स्तर के योग्य सचमुच हैं या नहीं?
बाबा- आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया हुआ महापुरुष जब लोक कल्याण करने का व्यापक संकल्प लेता है तो उसके अपने तो कोई संस्कार होते नहीं हैं जो उसे भोगना हों अतः उसके सभी कार्य सगुण ब्रह्म के कार्य में सहायता पहुंचा कर प्रतिसंचर की क्रिया को तेज करना होता है। सामाजिक रूप से वे यह कार्य इन छः प्रकारों से करते हैं और समाज में आन्दोलन लाकर ध्रुवीकरण कर देते हैं। 1. आध्यात्मिक अभ्यास की परक्षित विधियों की शिक्षा (tested spiritual practices 2. आध्यात्मिक आदर्श (spiritual ideology ) 3. सामाजिक द्रष्टिकोण (social outlook ) 4. सामाजिक आर्थिक सिद्धान्त (socio - economic theory ) 5. इन सभी से संबंधित साहित्य (scripture ) 6. प्रवर्तक (preceptor ) अर्थात् वे स्वयं।
राजू- बाबा! क्या हमारी यह समझ उचित है कि सृष्टि अर्थात् प्रकृति को समझने के लिये किया जाने वाला प्रयास संश्लेषणात्मक होना चाहिये न कि विश्लेषणात्मक ?
बाबा- समग्र ब्रह्माॅंड को और उसके नियंत्रक निर्माता को विश्लेषणात्मक विधियों से नहीं जाना जा सकता इससे तो केवल ऊर्जा और पदार्थ तक ही पहुंच पाते हैं जो प्रकृति के अवयव होने के कारण उससे बाहर जाने का रास्ता नहीं बता पाते, परंतु इनका संयुक्तिकरण करने पर उनके निर्माता और नियंत्रक का विचार मन में आता है। उस निर्माता को जानने के बाद फिर कुछ भी जानने की आवश्यकता नहीं रह जाती। हाॅं पदार्थ और ऊर्जा के समुचित उपयोगों को जानने के लिये उनके लक्षणों का विश्लेषण करना आवश्यक होता है।
नन्दू- लेकिन वैज्ञानिक तो यही विश्लेषणात्मक विधियाॅं अपना कर सभी कार्य कर रहे हैं चाहे वह समाजोपयोगी हो या ध्वंसात्मक?
बाबा- इसीलिये तो हमें यह प्रयास करना अत्यंत आवश्यक हो गया है कि विज्ञान को आध्यात्म सम्मत और आध्यात्म को विज्ञान सम्मत बनाया जाय। अन्यथा परमाणुओं में संचित प्रचंड ऊर्जा पर नियंत्रण करना कठिन होगा और मानव अपने ही विनाश का कारण बनेगा।
रवि- क्या आपके बताये अनुसार ब्रह्मचक्र का आधा भाग जिसे ‘संचर‘ कहा गया है वह विश्लेषणात्मक और शेष आधा भाग जिसे ‘प्रतिसंचर‘ कहा गया है, को संश्लेषणात्मक कहा जा सकता है?
बाबा- संचर और प्रतिसंचर मिलकर ही पूर्णता लाते हैं, इसलिये यह ‘पुरुषोत्तम‘ की उस विचार तरंग को ही प्रदर्शित करते हैं जिसमें एक से अनेक होने की कल्पना की गयी है। संचर में एक ही तरंग से क्रमशः अनेक होना क्रमागत होने के कारण परस्पर संयुक्त ही होता है भले वह हमें पृथक होने का आभास देता है, इसी प्रकार यही तारतम्य प्रतिसंचर में भी लगातार बना रहता है। जैसे, द्रश्य पदार्थ में अनेक तत्वों का समावेश पाया जाता है परंतु सभी तत्वों की संरचना प्रोटान और इलेक्ट्रान के क्रमागत व्यवस्थित विन्यास से ही हुई है ।
इंदु- जब वह परम सत्ता एक ही है तो कभी कभी आप उसे निर्पेक्ष ब्रह्म, कभी परमपुरुष, कभी पुरुषोत्तम आदि अलग अलग नाम बता कर हमें क्यों भ्रमित करते हैं?
बाबा- तुम लोगों ने पिछली क्लास में सृष्टि के सृजन की प्रक्रिया ठीक ढंग से समझ ही ली है तो उसमें ही स्पष्ट किया गया है कि यह नाम भ्रम पैदा करने के लिये नहीं हैं वरन् ब्रह्म चक्र में निर्धारित लाक्षणिक गतिविधियों को सम्पन्न करने वाली संबंधित सत्ता के दार्शनिक नाम हैं। जैसे, निर्पेक्ष सत्ता या परमब्रह्म, परमपुरुष, पुरुषोत्तम, सगुण ब्रह्म, आदि। निर्पेक्ष सत्ता या परमब्रह्म को सच्चिदानन्दघन भी कहा जाता है । यथार्थतः केवल इन्हीं का अस्तित्व है अन्य सभी सापेक्षिक अस्तित्व, इन्हीं की कल्पना है।
निर्पेक्ष सत्ता, या परमब्रह्म या परमसत्ता अर्थात् ‘कास्मिक एंटिटी‘ वह अस्तित्व है जो सत्य और सघन आनन्द की चेतना से भरा हो पर अपने ही अस्तित्व को भूला हो और सभी प्रकार की क्रियात्मक क्षमतायें प्राप्त होते हुए भी उन्हें सुप्तावस्था में ( potential form ) अपने भीतर ही सुसंतुलित किये हो।
पुरुषोत्तम, अवस्था वह है जो संचर और प्रतिसंचर के रूप में गतिशील ब्रह्म चक्र को, उसके केन्द्र में बैठकर समस्त गतिविधियों का साक्ष्य देता है। यह प्रकृति की किसी भी गतिविधि में भाग नहीं लेता परंतु सभी गतिविधियों का सम्पन्न हो पाना उसकी उपस्थिति में ही संभव हो पाता है इसी लिये उसे साक्षी सत्ता (cosmic entity ) कहा जाता है।
सगुण ब्रह्म, पूरा ब्रह्मचक्र है, जिसमें ‘‘निर्माण, पालन और संहार‘‘ लगातार चलते हैं । इसमें प्रकृति का वह स्वरूप जिससे निर्माण होना प्रतीत होता है उसे दार्शनिक नाम ‘ब्रह्मा,‘ जिससे पालन करने का कार्य दिखाई देता है उसे दार्शनिक नाम विष्णु और संहारक का दार्शनिक नाम ‘महेश‘ दिया गया है। ये सभी अपने अपने निर्धारित कार्य यथा समय सम्पन्न करते हुए अन्त में अपने मूल तत्व परम ब्रह्म में लय हो जाते हैं।
चंदु- परंतु कभी कभी आपने ‘तारक ब्रह्म‘ और ‘महासम्भूति‘ , इन नामों का भी अपनी व्याख्याओं में उल्लेख किया है, ये परमपुरुष से किस प्रकार भिन्न हैं?
बाबा- ‘तारक ब्रह्म‘ और ‘महासम्भूति ‘ एक ही सत्ता के क्रमशः तान्त्रिक और दार्शनिक नाम हैं। यह वह सत्ता हैं जो कभी हमारी तरह ही बद्ध थे परंतु अपनी साधना और तप के द्वारा सभी संस्कारों से मुक्त होकर परम सत्ता का साक्षात्कार कर चुकने के उपरान्त लोक शिक्षण और कल्याण का संकल्प लेकर अपना वर्तमान शरीर ही धारण किये रहे और अपना संकल्प पूरा कर आध्यात्मिक विद्या और धर्म की संस्थापना कर चले गये। तारक ब्रह्म, सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म के बीच पुल (bridge ) का कार्य करते हैं। सगुण ब्रह्म का कार्य है कि, सृष्ट की गयी प्रत्येक सत्ता को मुक्त होने का अवसर प्रदान करना। ‘‘गुरुरेको ब्रह्म न परः‘‘ के अनुसार ये तारक ब्रह्म ही सच्चे गुरु होते हैं जो ब्रह्मविद्या की उपासना करना सिखलाते हैं और कुरीतियों, आडंबर, भावजड़ता, अज्ञान, अशिक्षा और शोषण के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा देते हैं।
रवि- तो क्या इसका यह साराँश है कि निर्गुण या निराकार सत्ता अपने आपको एक से अनेक होने के लिये अपनी क्रियात्मक शक्ति अर्थात् प्रकृति के माध्यम से ब्रह्मचक्र चलाते हैं जो उनकी सगुणता या साकारता है और स्वयं केवल साक्षी स्वरूप रहते हैं। बीच की सभी सापेक्षिक सत्तायें और उनके नाम केवल दार्शनिक स्तर पर ही मान्य हैं।
बाबा- हाॅं साराॅंश यही है, परंतु समय समय पर विद्वानों और व्यख्याकारों ने अपने अपने ढंग से समझाते हुए अनेक प्रकार से भ्रम उत्पन्न किया है।
इंदु- बाबा! क्या सृष्टि के निर्माण से अब तक कोई महासम्भूति या तारकब्रह्म इस धरती पर हुए हैं? यदि हाॅं तो उनके नाम क्या हैं ?
बाबा- अभी तक ‘‘भगवान सदाशिव और भगवान कृष्ण‘‘ को ही दार्शनिकगण महासम्भूति या तारक ब्रह्म के स्तर का मानते हैं।
नन्दू- बाबा! महासंभूति या तारकब्रह्म का स्तर साधना और तप के द्वारा हममें से किसी को भी प्राप्त हो सकता है तो उस अवस्था में तारक स्तर पर पहुंचे व्यक्ति का कार्य व्यवहार कैसा हो जाता है जिसे देख समझकर पहचाना जा सके कि वे उस स्तर के योग्य सचमुच हैं या नहीं?
बाबा- आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया हुआ महापुरुष जब लोक कल्याण करने का व्यापक संकल्प लेता है तो उसके अपने तो कोई संस्कार होते नहीं हैं जो उसे भोगना हों अतः उसके सभी कार्य सगुण ब्रह्म के कार्य में सहायता पहुंचा कर प्रतिसंचर की क्रिया को तेज करना होता है। सामाजिक रूप से वे यह कार्य इन छः प्रकारों से करते हैं और समाज में आन्दोलन लाकर ध्रुवीकरण कर देते हैं। 1. आध्यात्मिक अभ्यास की परक्षित विधियों की शिक्षा (tested spiritual practices 2. आध्यात्मिक आदर्श (spiritual ideology ) 3. सामाजिक द्रष्टिकोण (social outlook ) 4. सामाजिक आर्थिक सिद्धान्त (socio - economic theory ) 5. इन सभी से संबंधित साहित्य (scripture ) 6. प्रवर्तक (preceptor ) अर्थात् वे स्वयं।
No comments:
Post a Comment