Sunday, 17 April 2016

58 बाबा की क्लास ( स्पेस, टाइम और स्रष्टि )

58 बाबा की क्लास ( स्पेस, टाइम और स्रष्टि )
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रवि- बाबा! आधुनिक वैज्ञानिक ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति के संबंध में बिगबेंग ( इपहइंदह ) सिद्धान्त को मानते हैं पर यह नहीं बता पाते कि यह बिगबेंग किसने किया। इस सिद्धान्त के अनुसार बवेउवे अर्थात् ब्रह्माॅड, 13.8 बिलियन वर्ष पहले बिग बेंग के साथ   10-37   सेकेंड में उत्पन्न हुआ जिसका वर्तमान में द्रश्य  व्यास 93 बिलियन प्रकाश  वर्ष है। पूरे ब्रह्माॅंड में पदार्थ का परिमाण 3 से 100x1022    तारों की संख्या बराबर है जो 80 बिलियन गेलेक्सियों में वितरित है। वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि बिग बेंग की घटना किसी विस्फोट की तरह नहीं हुई बल्कि 1015    केल्विन ताप के विकिरण के साथ स्पेस-टाइम में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया। इसके तत्काल बाद  10&29 सेकेंड में स्पेस का एक्पोनेशियल विस्तार 1027  अथवा अधिक के गुणांक में हुआ। इस पर आध्यात्मिक विज्ञान का क्या मत है?
बाबा- वैज्ञानिकों के कथन पर चिंतन करो, बिगबेंग  10-37  सेकेंड में  1015    केल्विन ताप के विकिरण के साथ स्पेस टाइम में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया। समय की सूक्ष्मता और ताप की अधिकता पर चिंतन करो? क्या वे यह भी बता सकते हैं कि यह किस के द्वारा किया गया अथवा 3 से  100x1022    तारों की संख्या बराबर और 80 बिलियन गेलेक्सियों में वितरित पदार्थ कहाॅं से आया? ‘‘कुछ नहीं ‘‘ से ‘कुछ‘ कैसे उत्पन्न हो सकता है? निष्कर्ष यही है कि कोई ऐंसी सत्ता अवश्य है जिसकी इच्छा से यह सब हुआ और उनकी कल्पना से इस कासमस के उत्पन्न होने का प्रमाण है समय की अकल्पनीय अत्यंत कम अवधि होना । इसलिये वैज्ञानिक माने या नहीं परमसत्ता के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता इस कासमस के पदार्थ उन्हीं की विचार तरंगें हैं।

राजू- आध्यात्मिक विज्ञान के अनुसार उन परमसत्ता ने इसे किस प्रकार कल्पित किया? आधुनिक वैज्ञानिक सचमुच आपके इन प्रश्नों के उत्तर नहीं जानते, इतना ही नहीं वे तो ‘‘स्पेस और टाइम‘‘  को भी सही सही नहीं  बता पाते, उनके शोधकार्य इन्हें पता लगाने के लिये ही हो रहे हैं जिनमें आधुनिकतम लार्ज हाइड्रान कोलायडर (‘एलएचसी‘) प्रयोग महत्वपूर्ण है जिसमें बिगबेंग के समय का ताप निर्मित कर ब्रह्माॅंड के निर्माण के समय का वातावरण बनाया गया और प्राप्त आॅंकड़ों का विश्लेषण किया जाना जारी है। गुरुत्वाकर्षण के मूल कारण का भी पता लगाया जा रहा है।
बाबा- वैज्ञानिक स्पेस और टाइम के बारे में क्या कहते हैं?
राजू - उनके अनुसार स्पेस अर्थात् काॅसमस  ऐंसा रेशा (fiber) है जो मोड़ा और ऐंठा जा सकता है और टाइम अर्थात् समय के साथ चार विमीय रेशा (fiber) निर्मित कर लेता है। समय और स्पेस अपने आप में एडजस्ट होते रहते हैं जिससे प्रकाश  की चाल एकसमान बनी रहती है चाहे वह कुछ भी क्यों न हो।  स्पेस वह लचीला रेशा (fiber)  है जिसमें गेलेक्सियां, तारे और अन्य भारी ग्रह भरे हुये हैं। इनका भार स्पेस- टाइम रेशा (fiber)  को मोड़ देता है जिससे कम द्रव्यमान के तारे या ग्रह भारी द्रव्यमान के तारे के चारों ओर घूमने लगते हैं जैसे पृथ्वी, सूर्य के तथा चंद्रमा, पृथ्वी के चक्कर लगाता है। इस घटना को गुरुत्वाकर्षण बल कहा जाता है जो  ‘स्पेस‘ के चार प्रमुख बलों में से एक है। और टाइम के सम्बन्ध में यह कहते है कि - चूंकि स्पेस और टाइम एकीकृत होते हैं इसलिये स्पेस के भीतर गति, समय को प्रभावित करती है। टाइम गतिशील व्यक्ति के लिये धीमा हो जाता है जबकि स्थिर व्यक्ति के लिये तेजी से गति करता है, इसका अर्थ यह हुआ कि टाइम की गतिशीलता जो हम अनुभव करते हैं वह एक भ्रम है। इस स्थिति में प्रारंभ से लेकर भविष्य में बहुत दूर तक, समय का प्रत्येक क्षण, साथ साथ रहता है परंतु वह काॅसमस के विभिन्न क्षेत्रों में होता है। इससे समय के गतिशील होने की संकल्पना इस प्रकार बनती है कि ‘टाइम और स्पेस के एकीकृत भौतिक अस्तित्व होने के कारण यह संभव है कि स्पेस-टाइम रेशों  (fibers ) में, कुछ लघु रास्ते हों जो हमें वर्तमान समय से भिन्न किसी अन्य समयान्तराल में ले जा सकें‘। समय की गतिशीलता होने के वावजूद इसके कोई प्रमाण नहीं हैं जिनके आधार पर हम भूतकाल अथवा भविष्य को परिवर्तित कर सकें। इसका कारण यह है कि समय के विभिन्न अन्तराल स्थायी अवस्था में रहते हुए सहअस्तित्व में होते हैं। फिर भी टाइम की सही सही प्रकृति अभी भी पूरी तरह ज्ञात नहीं है।

बाबा- तो यह स्पष्ट है कि वैज्ञानिक न तो स्पेस और न टाइम को और न ही गुरुत्वाकर्षण को पूर्णतः पारिभाषित कर पाये हैं, परंतु उनकी सूक्ष्म राशियों का उपयोग करते अवश्य पाये गये हैं। आध्यात्मिक विज्ञान में इसे समझने के लिये ‘‘परमसत्ता अर्थात् कास्मिक ऐंटिटी‘‘ के संबंध में पहले समझाया जा चुका है उसे स्मरण करो। परमसत्ता अर्थात् ‘कास्मिक ऍटिटी‘ वह अस्तित्व  है जो सत्य और सघन आनन्द की चेतना से भरा हो पर अपने ही अस्तित्व को भूला हो और सभी प्रकार की क्रियात्मक क्षमतायें प्राप्त होते हुए भी उन्हें सुप्तावस्था में ( potential form ) अपने भीतर ही सुसंतुलित किये हो। इस क्रियात्मक क्षमता को आन्तरिक रूपसे सुसंतुलन में बनाये रखने के लिये परस्पर विरोधी बल ‘सत‘ और ‘तम‘ लगातार सक्रिय रहते है जिसके परिणाम स्वरूप एक तीसरा बल ‘रज‘ सक्रिय हो जाता है और बलों के त्रिभुज नियम के अनुसार साम्य बनाए रहता है। इन तीनों बलों को संयुक्त रूप से त्रिगुणात्मक ‘‘प्रकृति‘‘ ( operative principle) और जिसमें यह आश्रय पाती है उसे ‘‘पुरुष‘‘ अर्थात् ( cognitive principle) कहा जाता है। इस तरह प्रकृति और पुरुष अविनाभावी हैं अर्थात् एक सिक्के के दो पहलु होते हैं । संतुलन की प्रक्रिया में प्रत्येक बल जिस क्षण अपने आप को दूसरे बलों पर प्रभावी बनने के प्रयास में असंतुलित हो जाता है तो प्रकृति अपनी गतिज अवस्था (kinetic form)  में आ जाती है और वह उस निर्पेक्ष सत्ता को उसके अस्तित्व का बोध कराती है जिससे उस परम ब्रह्म के मन (cosmic mind) में अपने को एक से अनेक में परिवर्तित करने की इच्छा उत्पन्न होती है जिसे इच्छाबीज कहा जाता है और यह पूर्वोक्त बलों के त्रिभुज के किसी एक शीर्ष में सक्रिय हो जाता है जिसे शंभुलिंग कहते हैं। त्रिभुज के केन्द्र पर स्थित परम ब्रह्म जो अब पुरुषोत्तम कहलाते हैं, अपने ही कुछ भाग पर अनेक रूप निर्मित करने के लिये प्रकृति को अनुमति देते हैं। सच्चिदानन्द सत्ता (पुरुषोत्तम) की अनुमति और निर्देशित प्रणाली के आधार पर ज्योंही प्रकृति अपना कार्य करने को तैयार होती  है उस अवस्था को ‘‘कौषिकी या शिवानी‘‘ कहते हैं और इसे नियंत्रित करने वाले आधार को ‘‘शिव‘‘ कहते हैं। निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ होते ही ‘शिवानी‘ पूर्वोक्त त्रिभुज के किसी शीर्ष से सरल रेखा में गतिशील हो जाती है और ‘स्पेस (space)‘ का निर्माण होने लगता है और शिवानी को अब ‘भैरवी‘ कहा जाता है जिसके नियंत्रक आधार को ‘भैरव‘ कहते हैं। ‘भैरवी‘ के अधिक वेगवान होने पर सरल रेखा में वक्रता ( curvature ) उत्पन्न हो जाती है। गति की दिशा  के ऊपर की ओर तरंग शीर्ष की वक्रता ‘‘ऊह‘‘ और तरंग की दिशा  से नीचे की ओर तरंगशीर्ष की  वकृता ‘‘अवोह‘‘ कहलाती है। एक ऊह और एक अवोह मिलकर एक ‘कला‘ ( wavelength  λ ) और आधा ‘ऊह‘ और आधा ‘अवोह‘ मिलकर ‘काष्ठा‘ ( half wavelength ) कहलाती है। इन्हीं कलाओं की गतिशीलता का मानसिक मापन, काल (time ) या कालिका कहलाता  है । इस प्रकार आकाश  (space )‘ और काल (time ) निर्मित हो जाने के बाद अगले क्रम में सूक्ष्म ऊर्जा, स्थूल  आकार ग्रहण करने लगती है और ‘भवानी‘ कहलाती है जो विभिन्न तत्वों अर्थात वायु पानी और अग्नि के समूह अर्थात् तारे और आकाशगंगाये और विभिन्न ठोस पिन्डों का निर्माण करने लगती है इसीलिये इस द्रश्य  प्रपंच को भवसागर कहते हैं। इसका एक नाम जगत भी है जिसका अर्थ है जो लगातार गतिशील है। निर्पेक्ष निराकार परम सत्ता इस प्रकार अपने आपको आकार में ले आते  हैं जो अब सगुण ब्रह्म कहलाते हैं और जिनका अस्तित्व बोध, इच्छाबीज, शंभु लिंग और शिवानी तक का क्षेत्र ‘‘महत्तत्व‘‘ या (existential I feeling ) शिवानी से भैरवी तक का क्षेत्र ‘‘अहम्तत्व‘‘ (doer I feeling) और भवानी से समग्र ब्रह्माॅंड तक का आकार ‘‘चित्त‘‘ (done I feeling) कहलाता है और महत् , अहम् और चित्त तीनों को सम्मिलित रूपसे ‘‘ब्रह्म मन‘‘ या (cosmic mind) कहते हैं। सगुण ब्रहम की महत्तत्व से चित्तत्व तक की गतिविधियाॅं अर्थात् सूक्ष्म से स्थूल की ओर गति, संचरक्रिया (centrifugal reaction in extroversal phase) कहलाती हैं और यह ‘‘ब्रह्मचक्र‘‘ (cosmic cycle) का आधा भाग कहलाता है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर गति अर्थात् जड़ पदार्थों से वनस्पति जगत , जीवजगत  और मनुष्यों का क्रमागत विकास और अंततः अपने मूल तत्व उस निराकार परम ब्रह्म अवस्था को पहुंचाने तक की गतिविधियाॅं प्रतिसंचर क्रिया (centripetal action in introversal phase) कहलाती है।  संचर और प्रतिसंचर क्रिया दोनों को मिलाकर पूरा ब्रह्म चक्र अर्थात् कास्मिक साइकिल बन जाता है।
यहाॅं ध्यान देने की महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सब ‘‘ब्रह्म मन‘‘ या (cosmic mind) के भीतर ही काल्पनिक रूपसे चलता रहता है और यह विचार तरंगें उस परम सत्ता के सापेक्ष (relative) गति करती हैं अतः कोई भी दो तरंगें आपस में एक दूसरे को वास्तविक लगती हैं, जैसे एक समान चाल से एक ही दिशा  में समानान्तर चलने वाली दो रेलगाड़ियों के डिब्वों में वैठे यात्री अपने को स्थिर होने का आभास पाते हैं।

चंदू - बाबा! आपका कहना सत्य लगता है क्योंकि वैज्ञानिकों के द्वारा ब्रह्माॅंड का, समय के आधार पर पीछे की ओर, सामान्य सापेक्षिकता सिद्धान्त के अनुसार, एक्स्ट्रापोलेशन करने पर पाया जाता है कि भूतकाल के निश्चित  समय में स्पेस का अनन्त ताप , दाब और ऊर्जा घनत्व था और बड़ी तेजी से फैलता और ठंडा होता जा रहा था। लगभग 10-37  सेकेंड में विस्तारण के भीतर ही ब्रह्माॅंड में क्वार्क ,ग्लुआन, प्लाज्मा और अन्य प्रारंभिक कण और उनके विपरीत कण बन गये और परिणामतः एन्टीमैटर पर मैटर का प्रभुत्व जम गया। इन सब गणनाओं में कास्मोलाजी का यह सिद्धान्त मानकर  काम किया गया कि लंबे पैमाने पर ब्रह्माॅंड समांग अर्थात् होमोजीनियस और एकदैशिक अर्थात् आइसोट्रोपिक है।

इन्दु- परंतु वैज्ञानिकों का कहना है कि 1040 वर्ष बाद पूरे ब्रह्मांड में केवल ब्लेक होल ही होंगे। वे हाकिंग रेडिएशन के अनुसार धीरे धीरे वाष्पीकृत हो जावेंगे। अपने सूर्य के बराबर द्रव्यमान वाला एक ब्लेक होल नष्ट होने में 2x1066  वर्ष लेता है, परंतु इनमें से अधिकांश  अपनी गेलेक्सी के केेन्द्र में स्थित अपनी तुलना में अत्यधिक द्रव्यमान के ब्लेक होल में सम्मिलित हो जाते हैं। चूंकि ब्लेक होल का जीवनकाल अपने द्रव्यमान पर तीन की घात के समानुपाती होता है इसलिये अधिक द्रव्यमान का ब्लेक होल नष्ट होने में बहुत समय लेता है। 100 बिलियन सोलर द्रव्यमान का ब्लेक होल नष्ट होने में 2x1099  वर्ष लेगा ।
इस प्रकार ब्रह्मांड में पाये जाने वाले आकाशीय पिंडों अर्थात् ग्रहों, सूर्यों, गेलेक्सियों, ब्लेक होलों या ऊर्जा अर्थात् प्रकाश , विद्युत, रेडियो, और ब्लेकएनर्जी और पृथ्वी जैसे ग्रहों के जीवधारी आदि सभी स्पेस और समय के अत्यंत विस्तारित क्षेत्रों में अपना साम्राज्य जमाये हुए हैं परंतु फिर भी वे अनन्त नहीं हैं अमर नहीं हैं।

बाबा-  वैज्ञानिकों ने सही कहा, परमपुरुष के अलावा कोई अमर नहीं है। वैदिक काल में समय का मापन और ब्रह्माॅंड की आयु का निर्णय करने के लिये न्यूनतम से महत्तम तक, अन्य नामों की सहायता से  इस प्रकार समझाया गया है-
न्यूनतम प्राचीन समय ‘1 त्रुटि‘ को सेकेंडों में बदलने पर ( 1 त्रुटि = 0.00007 सेकंड )
100 त्रुटि = 1  पर।
30 पर = 1  निमेष।
18 निमेष =1  काष्ठा।
20 काष्ठा =1  कला।
30 कला= 1  घटिका।
02 घटिका = 1 क्षण।
30 क्षणों =1 अहोरात्र अर्थात् मनुष्य का एक दिन रात।
360 अहोरात्र =1 मानव वर्ष।
1728000 मानव वर्ष= सतयुग।
1296000 मानव वर्ष= त्रेतायुग।
864000 मानव वर्ष= द्वापरयुग।
432000 मानव वर्ष= कलियुग।
4320000 मानव वर्ष=  एक महायुग।
71 महायुगों अर्थात् 306720000 मानव वर्षों क= एक मन्वन्तर।
8640000000 मानव वर्षों का ब्रह्मा का एक दिनरात अर्थात् एक कल्प।
311040000000000 मानव वर्षों में एक ब्रह्मापद धारक बदल जाते हैं।
18662400000000000000 मानव वर्षों में एक विष्णुपद धारक बदल जाते हैं।
44789760000000000000000000 मानव वर्षों में शिवपद धारक परमब्रह्म में लय हो जाते हैं। इसे ही एक ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति से अन्त तक की आयु माना जाता है, जिसे ‘प्रकृति‘ की एक त्रुटि कहा जाता है। इससे यह तो स्पष्ट होता ही है कि वैदिक काल में समय की सूक्ष्मतम माप (0.00007 सेकंड) थी जो वर्तमान समय में यह एक सेकेंड का  9,192,631,770 वाॅं भाग तक शुद्ध मानी जाती है अतः काल गणना में वैदिक और वर्तमान अन्तरालों में लगभग साम्य होना माना जा सकता है। ब्रह्मांड में पाये जाने वाले आकाशीय पिंडों अर्थात् ग्रहों, सूर्यों, गेलेक्सियों, ब्लेकहोलों या ऊर्जा अर्थात् प्रकाश , विद्युत, रेडियो, और ब्लेकएनर्जी और पृथ्वी जैसे ग्रहों के जीवधारी आदि सभी स्पेस और समय के अत्यंत विस्तारित क्षेत्रों में अपना साम्राज्य जमाये हुए हैं परंतु फिर भी वे अनन्त नहीं हैं अमर नहीं हैं। अपने यूनीवर्स की तरह स्पेस में अन्य यूनीवर्स (universe) हो सकते हैं इसप्रकार मल्टीवर्स सिद्धान्त (multiverse theory) के समर्थन में और उसके विपरीत दोनों प्रकार के वैज्ञानिक वादविवाद कर रहे हैं। यह माना जा रहा है कि बुलबुले के आकार के सात यूनीवर्स हो सकते हैं जिनके स्पेस, टाइम अलग होंगे और उनके भौतिक नियम और स्थिरांक तथा विमायें या टोपोलाजी (topology) भी भिन्न होंगी। परंतु प्रायोगिक प्रमाणों के अभाव में ये विचार अभी एक मत से स्वीकार नहीं किये जा पा रहे हैं पर भविष्य में इस रहस्य से अवश्य  पर्दा उठ सकता है। अतः इस स्तर पर आधुनिक वैज्ञानिक और आध्यात्मिक वैज्ञानिक विचारों में समानता पाई जाती है।

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