57 बाबा की क्लास (पुराण)
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नन्दू- बाबा! आपने तो हमें तर्क, विज्ञान और विवेकपूर्ण आधार पर सभी कुछ समझा दिया है और हमारे मन के अनेक संदेहों को भी दूर कर दिया है, परंतु पौराणिक कथाओं ने तो समाज के मन पर इस प्रकार राज्य जमा लिया है कि उनकी सभी घटनायें काल्पनिक होते हुए भी उन्हें सत्य माना जाता है, इस भ्रम को दूर करने के लिये लोगों को समझा पाना अत्यंत दुष्कर कार्य है। इसके लिये कुछ उपाय सुझाइये ताकि समाज का अधिकतम लाभ हो सके?
राजू- हाॅं बाबा! हम जब भी आपके बताये अनुसार तथ्यों को वैज्ञानिक आधार पर समाज के अन्य लोगों से चर्चा करते हैं तो वे सुनकर आश्चर्य करते हैं, हमारे स्पष्टीकरण को सही मानते हैं परंतु आचरण में कोई परिवर्तन नही ला पाते क्यों कि उनके मन में गहराई तक वही पौराणिक संस्कार भरे हुए हैं , वे उनके बाहर निकलना ही नहीं चाहते?
रवि- बाबा! ये लोग सही कह रहे हैं, मैं ने भी यही अनुभव किया है, यदि हम लोग समाज हित में सचमुच कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो ये कहानियाॅं सबसे बड़ी बाधा खड़ी करती हैं, इनके प्रभाव से मुक्त होने का सरलतम उपाय क्या हो सकता है?
बाबा- ठीक है, तुम लोग समाज के हित संवर्धन में अपना योगदान देने की इच्छा रखते हो यह बहुत ही सात्विक सोच है। परंतु इसके लिये सर्वप्रथम यह आवश्यक होगा कि कुछ भी कहने और अन्य लोगों को उसके रहस्य की व्याख्या करने के पहले उस पर स्वयं आचरण करने का अभ्यास करो। केवल सैद्धान्तिक रूप से समझाने का परिणाम सार्थक नहीं होगा। तुम लोगों को शायद यह पता है कि वेदव्यास जी जब गहन साधना से ज्ञान प्राप्त कर जन साधारण को सिखाने के उद्देश्य से गाॅंवों और नगरों के भीड़ वाले स्थानों पर जाकर बुला बुला कर कहने लगे कि आओ तुम्हें ज्ञान की बातें सिखायें तब किसी ने उनकी बात सुनी ही नहीं । तभी उन्होंने उस ज्ञान की बातों को कहानियों के रूप में लिखने और सुनाने का संकल्प लिया, वही सब इन पौराणिक कथाओं के रूप में हमारे सामने है।
इंदु- अर्थात् ये कहानियाॅं काल्पनिक हैं?
बाबा- हाॅं। परन्तु उनके भीतर लोक शिक्षा भरी हुई है जिस पर कोई ध्यान नहीं देता बस अंधानुकरण ही किया जाता रहा है। तुम लोग यह तो जानते ही हो कि सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य को इतिकथा, इतिहास, पुराण और इतिवृत्त , इन चार भागों में बाॅंटा गया है। इतिकथा में सभी यथार्थ घटनाओं का तिथिवार पंजीकरण होता है और उसके जिस भाग का शैक्षिक महत्व होता है उसे ही इतिहास कहा जाता है। वे काल्पनिक कहानियाॅं जिनके किसी भाग का शैक्षिक महत्व होता है उन्हें पुराण कहते हैं और किसी व्यक्ति विशेष के जन्म से मरण तक का विवरण चाहे उसका शैक्षिक महत्व हो या न हो उसे इतिकथा कहते हैं।
चंदू- बाबा! वेदव्यासजी ने किसी तथ्य विशेष को समझाने के लिये कल्पना का आधार लिया है इसे हम कैसे पहचान सकते हैं, या उस कहानी को पढ़ कर उसके शैक्षिक सारतत्व को कैसे समझ सकते हैं, इसे क्या आप उन्हीं की कहानी के आधार पर समझा सकते हैं?
बाबा- तुम लोग यह तो जान ही चुके हो कि यह स्रष्टि चक्र एक ही परमपुरुष की कल्पना तरंगे हैं जिन्हें उनकी ही क्रियात्मक शक्ति से निर्माण ,पालन और संहार के द्वारा इसे गतिमान बनाये रखा जा रहा है और उसके सभी अवयवों, विशेषतः मनुष्यों को अपने इष्ट के प्रति निष्ठा और हृदय में प्रेम भर कर आगे बढ़ते जाने और अंततः उन्हीं में मिलकर चक्र पूरा करने की अपेक्षा की गई है। इस तथ्य को समझाने के लिये वेदव्यास जी ने उक्त त्रिविध शक्ति अर्थात् निर्माण, पालन और संहार को समझाने के लिये तीन अलग अलग अस्तित्वों की कल्पना की जिन्हें क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश या शिव कहा । फिर इनके प्रति निष्ठा और हार्दिक प्रेम के आधार पर चक्र को पूरा करने के लिये विष्णु को इष्ट मानने वाले त्रिपुरासुर और उसके पुत्र गयासुर की कल्पना की । और बोले-
एक त्रिपुरासुर नाम का असुर विष्णु का भक्त था, कुछ शिव भक्तों ने चाहा कि त्रिपुरासुर भी शिव की भक्ति करने लगे, अतः बिना यह समझाये कि जो विष्णु हैं वही शिव भी हैं बलपूर्वक शिव की पूजा कराने के लिये उस पर दबाव बनाने लगे। परंतु वह तो इष्टनिष्ठ था जानता था कि उसके इष्ट तो विष्णु हैं उन्हें नहीं छोड़ सकते। इसलिये उसने भी वैसा ही रास्ता अपनाया और शिवभक्तों के साथ लड़ाई कर बैठा। लड़ाई में उसकी मृत्यु हो गयी (इसी कारण शिव का एक नाम है त्रिपुरारि अर्थात् त्रिपुरासुर के शत्रु)। इसके बाद उसका पुत्र गयासुर भी बदले की भावना से शिवभक्तों के साथ लड़ाई करता रहा परंतु उसकी भी हार होतीे गई। इसके बाद उसने विष्णु की बहुत उपासना कर उनसे वरदान पा लिया कि स्वर्ग, मृत्यु अथवा रसातल किसी भी लोक में देवता, दानव या मानव किसी से भी उसकी हार न हो। इस प्रकार, अब वह चारों ओर फिर से लड़ाई करते हुए हर जगह अपनी जीत प्राप्त करने लगा। इससे उसका अहंकार इतना बढ़ गया कि वह कहने लगा कि अब वह विष्णु को भी युद्ध में हरायेगा।
तुम लोग तो जानते हो, यदि कोई शक्तिशाली हो जाता है तो वह उस शक्ति का दुरुपयोग करने लगता है और यदि बहुत अधिक शक्ति मिल जाये गयासुर जैसी, तो वह बहुत अधिक दुरुपयोग करने लगता है।
फिर, हुआ यह कि उसने विष्णु जी पर हमला कर उन्हें हराकर पेड़ से बाॅंध दिया और उनकी पूजा अर्चना भी की, फिर चारों ओर मार काट करना प्रारंभ कर दी। अब, सब ओर से हाहाकार करते लोग विष्णु जी के पास आये और कहने लगे कि आपका वरदान पाकर गयासुर ने अत्याचार कर रखा है कुछ तो करो।
विष्णुजी बोले, हमारी हालत देखते हो? कैसे प्रेम से बाॅंध रखा है और पूजा अर्चना भी करता है, हम तो वचन से बंधे हैं। लोगों ने कहा, आपने उसे भौतिक स्तर की लड़ाई में जीतने का वरदान दिया था मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर नहीं, इसलिये संसार की रक्षा के लिये कुछ तो करो, संसार का पालन करना आपका कर्तव्य है।
इस पर विष्णु जी ने गयासुर से कहा, देखो गयासुर! लड़ाई में कौन जीता, वह बोला मैं जीता, आप हारे । विष्णु जी ने कहा, बिलकुल सही , तो अब तुम मुझे वरदान दो? वह बोला क्यों नहीं, मैं तो आपके लिये कुछ भी कर सकता हॅूं। इस पर विष्णु जी ने कहा , गयासुर एक ही वरदान माॅंगता हॅूं, तू पत्थर बन जा।
गयासुर भी दमदार था , उसे मनुष्यों के प्रति सहानुभूति थी, इसलिये बोला बिलकुल, हम तो तथास्तु कहते हैं, परंतु हमारी तीन शर्तें हैं। विष्णु जी ने भी कहा ठीक है मंजूर, बताओ क्या शर्तें हैं? इस बीच गयासुर पैरों की ओर से पत्थर का हो चला, और बोला पहली शर्त है कि आपको अपने दोनों चरणों को हमारी छाती पर रखना पड़ेगा। विष्णु जी बोले इसका क्या मतलब? उसने कहा इसका मतलब यह है कि आपके चरणों की छाप मेरे हृदय में रहे। विष्णु जी ने कहा, इससे क्या होगा? वह बोला इससे यह होगा कि जितने भी आपके भक्त हैं चाहे वे दुष्ट हों या शिष्ट सभी आपको नहीं भूल पायेंगे क्योंकि उनके हृदय में आपके पैरों की छाप बनी रहेगी। विष्णु जी ने कहा ठीक है और दोनों पैर उसकी छाती पर रख दिये, अब तक गयासुर का आधा शरीर पत्थर हो चुका था, विष्णु जी बोले जल्दी करो गयासुर दूसरी शर्त क्या है, उसने कहा इन चरणों की शरण में जो आ गये उनको मुक्ति मोक्ष अवश्य देना पड़ेगा? वचन दो? विष्णु जी ने कहा वचन देता हॅूं ,जो भी इन चरणों की शरण में आ जायेगे उन्हें मोक्ष मिलेगा। अब तक गयासुर गले तक पत्थर हो चुका था, विष्णु जी बोले गयासुर जल्दी बताओ तीसरी शर्त क्या है? वह बोला तीसरी शर्त यह है कि जो कोई इन चरणों की शरण में आने के बाद भी मुक्त न हो पाया तो यह पत्थर बना गयासुर फिर से जीवित हो जायेगा। विष्णु जी ने कहा तथास्तु।
देखा? यह कहानी कितनी सुंदर है, इसकी शिक्षा भी सुंदर है कि भक्तों के हृदय में भगवान सदैव रहते हैं भक्त चाहे शिष्ट हों या दुष्ट भगवान उन्हें भूल नहीं सकते जैसे बच्चे चाहे शिष्ट हों या दुष्ट, पिता उसे भले डाॅंट फटकार करें पर त्याग नहीं कर सकते, उनके लिये यह कर पाना असंभव होता है। इसका दूसरा अर्थ है, भगवान के चरणों की शरण में आने वालों को मुक्तिमोक्ष तो बहुत छोटी सी चीज है अवश्य ही मिलेगा, भक्तों को इसकी ओर से निश्चिन्त रहना चाहिये।
रवि- तो इसका अर्थ यह हुआ कि पुराणों में तथ्यों को सरल ढंग से समझाने के लिये कहानियों का सहारा सहायक साधन साधन की तरह लिया गया है, उनमें से काल्पनिक भाग हटा कर केवल तथ्यों को ही विवेकपूर्वक पहचानकर ग्रहण करना चाहिये।
बाबा- अवश्य। परंतु वर्तमान वैज्ञानिक युग में इन तथ्यों की विज्ञान, विवेक और तर्क सम्मत व्याख्या करना आना चाहिये। कहानी का जहाॅं उपयोग आवश्यक है, किया जा सकता है परंतु उसके साथ जोड़े गये तथ्यों की विवेचना भी पृथक से की जाना चाहिये। यदि साहित्यकार अपनी कल्पना शक्ति का उपयोग विवेकपूर्ण वैज्ञानिक ढंग से, लोकहित के द्रष्टिकोण से करने लगें तो लोक शिक्षा और समाज कल्यााण के लिये उनका महत्वपूर्ण योगदान मिल सकता है।
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नन्दू- बाबा! आपने तो हमें तर्क, विज्ञान और विवेकपूर्ण आधार पर सभी कुछ समझा दिया है और हमारे मन के अनेक संदेहों को भी दूर कर दिया है, परंतु पौराणिक कथाओं ने तो समाज के मन पर इस प्रकार राज्य जमा लिया है कि उनकी सभी घटनायें काल्पनिक होते हुए भी उन्हें सत्य माना जाता है, इस भ्रम को दूर करने के लिये लोगों को समझा पाना अत्यंत दुष्कर कार्य है। इसके लिये कुछ उपाय सुझाइये ताकि समाज का अधिकतम लाभ हो सके?
राजू- हाॅं बाबा! हम जब भी आपके बताये अनुसार तथ्यों को वैज्ञानिक आधार पर समाज के अन्य लोगों से चर्चा करते हैं तो वे सुनकर आश्चर्य करते हैं, हमारे स्पष्टीकरण को सही मानते हैं परंतु आचरण में कोई परिवर्तन नही ला पाते क्यों कि उनके मन में गहराई तक वही पौराणिक संस्कार भरे हुए हैं , वे उनके बाहर निकलना ही नहीं चाहते?
रवि- बाबा! ये लोग सही कह रहे हैं, मैं ने भी यही अनुभव किया है, यदि हम लोग समाज हित में सचमुच कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो ये कहानियाॅं सबसे बड़ी बाधा खड़ी करती हैं, इनके प्रभाव से मुक्त होने का सरलतम उपाय क्या हो सकता है?
बाबा- ठीक है, तुम लोग समाज के हित संवर्धन में अपना योगदान देने की इच्छा रखते हो यह बहुत ही सात्विक सोच है। परंतु इसके लिये सर्वप्रथम यह आवश्यक होगा कि कुछ भी कहने और अन्य लोगों को उसके रहस्य की व्याख्या करने के पहले उस पर स्वयं आचरण करने का अभ्यास करो। केवल सैद्धान्तिक रूप से समझाने का परिणाम सार्थक नहीं होगा। तुम लोगों को शायद यह पता है कि वेदव्यास जी जब गहन साधना से ज्ञान प्राप्त कर जन साधारण को सिखाने के उद्देश्य से गाॅंवों और नगरों के भीड़ वाले स्थानों पर जाकर बुला बुला कर कहने लगे कि आओ तुम्हें ज्ञान की बातें सिखायें तब किसी ने उनकी बात सुनी ही नहीं । तभी उन्होंने उस ज्ञान की बातों को कहानियों के रूप में लिखने और सुनाने का संकल्प लिया, वही सब इन पौराणिक कथाओं के रूप में हमारे सामने है।
इंदु- अर्थात् ये कहानियाॅं काल्पनिक हैं?
बाबा- हाॅं। परन्तु उनके भीतर लोक शिक्षा भरी हुई है जिस पर कोई ध्यान नहीं देता बस अंधानुकरण ही किया जाता रहा है। तुम लोग यह तो जानते ही हो कि सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य को इतिकथा, इतिहास, पुराण और इतिवृत्त , इन चार भागों में बाॅंटा गया है। इतिकथा में सभी यथार्थ घटनाओं का तिथिवार पंजीकरण होता है और उसके जिस भाग का शैक्षिक महत्व होता है उसे ही इतिहास कहा जाता है। वे काल्पनिक कहानियाॅं जिनके किसी भाग का शैक्षिक महत्व होता है उन्हें पुराण कहते हैं और किसी व्यक्ति विशेष के जन्म से मरण तक का विवरण चाहे उसका शैक्षिक महत्व हो या न हो उसे इतिकथा कहते हैं।
चंदू- बाबा! वेदव्यासजी ने किसी तथ्य विशेष को समझाने के लिये कल्पना का आधार लिया है इसे हम कैसे पहचान सकते हैं, या उस कहानी को पढ़ कर उसके शैक्षिक सारतत्व को कैसे समझ सकते हैं, इसे क्या आप उन्हीं की कहानी के आधार पर समझा सकते हैं?
बाबा- तुम लोग यह तो जान ही चुके हो कि यह स्रष्टि चक्र एक ही परमपुरुष की कल्पना तरंगे हैं जिन्हें उनकी ही क्रियात्मक शक्ति से निर्माण ,पालन और संहार के द्वारा इसे गतिमान बनाये रखा जा रहा है और उसके सभी अवयवों, विशेषतः मनुष्यों को अपने इष्ट के प्रति निष्ठा और हृदय में प्रेम भर कर आगे बढ़ते जाने और अंततः उन्हीं में मिलकर चक्र पूरा करने की अपेक्षा की गई है। इस तथ्य को समझाने के लिये वेदव्यास जी ने उक्त त्रिविध शक्ति अर्थात् निर्माण, पालन और संहार को समझाने के लिये तीन अलग अलग अस्तित्वों की कल्पना की जिन्हें क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश या शिव कहा । फिर इनके प्रति निष्ठा और हार्दिक प्रेम के आधार पर चक्र को पूरा करने के लिये विष्णु को इष्ट मानने वाले त्रिपुरासुर और उसके पुत्र गयासुर की कल्पना की । और बोले-
एक त्रिपुरासुर नाम का असुर विष्णु का भक्त था, कुछ शिव भक्तों ने चाहा कि त्रिपुरासुर भी शिव की भक्ति करने लगे, अतः बिना यह समझाये कि जो विष्णु हैं वही शिव भी हैं बलपूर्वक शिव की पूजा कराने के लिये उस पर दबाव बनाने लगे। परंतु वह तो इष्टनिष्ठ था जानता था कि उसके इष्ट तो विष्णु हैं उन्हें नहीं छोड़ सकते। इसलिये उसने भी वैसा ही रास्ता अपनाया और शिवभक्तों के साथ लड़ाई कर बैठा। लड़ाई में उसकी मृत्यु हो गयी (इसी कारण शिव का एक नाम है त्रिपुरारि अर्थात् त्रिपुरासुर के शत्रु)। इसके बाद उसका पुत्र गयासुर भी बदले की भावना से शिवभक्तों के साथ लड़ाई करता रहा परंतु उसकी भी हार होतीे गई। इसके बाद उसने विष्णु की बहुत उपासना कर उनसे वरदान पा लिया कि स्वर्ग, मृत्यु अथवा रसातल किसी भी लोक में देवता, दानव या मानव किसी से भी उसकी हार न हो। इस प्रकार, अब वह चारों ओर फिर से लड़ाई करते हुए हर जगह अपनी जीत प्राप्त करने लगा। इससे उसका अहंकार इतना बढ़ गया कि वह कहने लगा कि अब वह विष्णु को भी युद्ध में हरायेगा।
तुम लोग तो जानते हो, यदि कोई शक्तिशाली हो जाता है तो वह उस शक्ति का दुरुपयोग करने लगता है और यदि बहुत अधिक शक्ति मिल जाये गयासुर जैसी, तो वह बहुत अधिक दुरुपयोग करने लगता है।
फिर, हुआ यह कि उसने विष्णु जी पर हमला कर उन्हें हराकर पेड़ से बाॅंध दिया और उनकी पूजा अर्चना भी की, फिर चारों ओर मार काट करना प्रारंभ कर दी। अब, सब ओर से हाहाकार करते लोग विष्णु जी के पास आये और कहने लगे कि आपका वरदान पाकर गयासुर ने अत्याचार कर रखा है कुछ तो करो।
विष्णुजी बोले, हमारी हालत देखते हो? कैसे प्रेम से बाॅंध रखा है और पूजा अर्चना भी करता है, हम तो वचन से बंधे हैं। लोगों ने कहा, आपने उसे भौतिक स्तर की लड़ाई में जीतने का वरदान दिया था मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर नहीं, इसलिये संसार की रक्षा के लिये कुछ तो करो, संसार का पालन करना आपका कर्तव्य है।
इस पर विष्णु जी ने गयासुर से कहा, देखो गयासुर! लड़ाई में कौन जीता, वह बोला मैं जीता, आप हारे । विष्णु जी ने कहा, बिलकुल सही , तो अब तुम मुझे वरदान दो? वह बोला क्यों नहीं, मैं तो आपके लिये कुछ भी कर सकता हॅूं। इस पर विष्णु जी ने कहा , गयासुर एक ही वरदान माॅंगता हॅूं, तू पत्थर बन जा।
गयासुर भी दमदार था , उसे मनुष्यों के प्रति सहानुभूति थी, इसलिये बोला बिलकुल, हम तो तथास्तु कहते हैं, परंतु हमारी तीन शर्तें हैं। विष्णु जी ने भी कहा ठीक है मंजूर, बताओ क्या शर्तें हैं? इस बीच गयासुर पैरों की ओर से पत्थर का हो चला, और बोला पहली शर्त है कि आपको अपने दोनों चरणों को हमारी छाती पर रखना पड़ेगा। विष्णु जी बोले इसका क्या मतलब? उसने कहा इसका मतलब यह है कि आपके चरणों की छाप मेरे हृदय में रहे। विष्णु जी ने कहा, इससे क्या होगा? वह बोला इससे यह होगा कि जितने भी आपके भक्त हैं चाहे वे दुष्ट हों या शिष्ट सभी आपको नहीं भूल पायेंगे क्योंकि उनके हृदय में आपके पैरों की छाप बनी रहेगी। विष्णु जी ने कहा ठीक है और दोनों पैर उसकी छाती पर रख दिये, अब तक गयासुर का आधा शरीर पत्थर हो चुका था, विष्णु जी बोले जल्दी करो गयासुर दूसरी शर्त क्या है, उसने कहा इन चरणों की शरण में जो आ गये उनको मुक्ति मोक्ष अवश्य देना पड़ेगा? वचन दो? विष्णु जी ने कहा वचन देता हॅूं ,जो भी इन चरणों की शरण में आ जायेगे उन्हें मोक्ष मिलेगा। अब तक गयासुर गले तक पत्थर हो चुका था, विष्णु जी बोले गयासुर जल्दी बताओ तीसरी शर्त क्या है? वह बोला तीसरी शर्त यह है कि जो कोई इन चरणों की शरण में आने के बाद भी मुक्त न हो पाया तो यह पत्थर बना गयासुर फिर से जीवित हो जायेगा। विष्णु जी ने कहा तथास्तु।
देखा? यह कहानी कितनी सुंदर है, इसकी शिक्षा भी सुंदर है कि भक्तों के हृदय में भगवान सदैव रहते हैं भक्त चाहे शिष्ट हों या दुष्ट भगवान उन्हें भूल नहीं सकते जैसे बच्चे चाहे शिष्ट हों या दुष्ट, पिता उसे भले डाॅंट फटकार करें पर त्याग नहीं कर सकते, उनके लिये यह कर पाना असंभव होता है। इसका दूसरा अर्थ है, भगवान के चरणों की शरण में आने वालों को मुक्तिमोक्ष तो बहुत छोटी सी चीज है अवश्य ही मिलेगा, भक्तों को इसकी ओर से निश्चिन्त रहना चाहिये।
रवि- तो इसका अर्थ यह हुआ कि पुराणों में तथ्यों को सरल ढंग से समझाने के लिये कहानियों का सहारा सहायक साधन साधन की तरह लिया गया है, उनमें से काल्पनिक भाग हटा कर केवल तथ्यों को ही विवेकपूर्वक पहचानकर ग्रहण करना चाहिये।
बाबा- अवश्य। परंतु वर्तमान वैज्ञानिक युग में इन तथ्यों की विज्ञान, विवेक और तर्क सम्मत व्याख्या करना आना चाहिये। कहानी का जहाॅं उपयोग आवश्यक है, किया जा सकता है परंतु उसके साथ जोड़े गये तथ्यों की विवेचना भी पृथक से की जाना चाहिये। यदि साहित्यकार अपनी कल्पना शक्ति का उपयोग विवेकपूर्ण वैज्ञानिक ढंग से, लोकहित के द्रष्टिकोण से करने लगें तो लोक शिक्षा और समाज कल्यााण के लिये उनका महत्वपूर्ण योगदान मिल सकता है।
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