Sunday 3 April 2016

56 बाबा की क्लास (उत्तम शिष्य के लक्षण)


56 बाबा की क्लास (उत्तम शिष्य के लक्षण)
राजू- बाबा!  आपने सही कहा, ब्रह्मविद्या को सीखने से पहले शिष्य में मूलतः उसे जानने की तीब्र इच्छा होना चाहिये, तभी तो सद्गुरु मिलेंगे।
बाबा- शायद तुम लोगों को याद होगा कि मैंने पहले की कक्षाओं में बह्मविद्या के सम्बंध में बताया था फिर भी उत्तम शिष्य के लक्षणों की जानकारी देने से पहले मैं उसे संक्षेप में बताना चाहता हॅूं । कारण यह है कि  अल्प में संतुष्ट होना आदमी का स्वभाव नहीं है, इसलिये आदि काल से ही वह वृहत् का उपासक रहा है। उसने वृहत् ज्ञान और परोक्ष तथा अपरोक्ष अनुभूति का पथ ढूढ़ निकालने का पराक्रम किया जिससे उसकी जिज्ञासा जागी। मनन से प्राप्त उपलब्धियों के कारण ही वह मानव कहलाया। वेदों में संग्रहीत इस उपलब्धि से ज्ञानपिपासा तो मिटी है पर प्राणकी क्षुधा नहीं मिटी, यह साधना की सार्थक अनुभूति के द्वारा ही मिटती है। ब्र्रह्मविद्या की इस साधना के आदि प्रवक्ता सदाशिव थे। उन्हीं ने इसे विद्यातंत्र के नाम से अभिहित किया जिसकी शास्त्रीय ब्याख्या है,‘‘तं जाड्यात् तरयेत् यस्तु सः तंत्रः परिकीर्तितः’’। अर्थात् जड़ता के बीज ‘‘ तं ’’ से जो त्राण दिलाये वह तंत्र कहलाता है। अन्य अर्थ में भी तन् का मतलब है विस्तार, प्रसार। इसलिये आत्म विस्तार करने की विधि जिससे मोक्ष प्राप्त होता है वह तंत्र कहलाता है। यह एक व्यावहारिक विधि है जिसका सूत्रपात शरीर से होता है और मन से अनुशीलन करते हुए यह आत्मिक चेतना में पहुंचाकर आत्म साक्षात्कार पर समाप्त होती है। व्यावहारिक होने के कारण तन्त्र गुरु के द्वारा सीधे ही व्यक्ति को सिखाकर सतत पर्यवेक्षण में अभ्यास कराने की पृथा रही है, परंतु कालक्रम में गुरु, आचार्य और उपयुक्त जिज्ञासु के अभाव में यह लिपिबद्ध हुआ ताकि यह विद्या लुप्त ही न हो जावे। वर्तमान में लिपिबद्ध रूप में हम चैसठ तंत्र पाते हैं। इन सबको मूलतः दो विभागों में बांटा गया है, एक है आगम और दूसरा है निगम। आगम व्यावहारिक है जबकि निगम सैद्धान्तिक। वेद निगम के अंतर्गत आते हैं।

रवि- तो क्या ब्रह्म विद्या की उपासना बहुत ही कठिन है, हम लोग उसकी योग्यता नहीं रखते?
बाबा-साधना मार्ग के बारे में कहा गया है कि ‘‘ क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया’’ अर्थात् इस रास्ते में अनेक क्षुर धार बिछे हुए हैं। इसी कारण तन्त्र में गुरु और शिष्य को बड़ी ही सावधानी से चलना पड़ता हैं, गुरु के आदेश  का पालन करने में साधक की थोड़ी सी चूक पतन का कारण बनती है। अतः तान्त्रिक साधना की प्रारंभिक प्रयोजनीयता होती है उपयुक्त गुरु तथा शिष्य के चयन करने की।  इसलिये कहा गया है कि साधक का हृदय है खेत, साधना है हल चलाना और पानी सींचना तथा गुरु का दीक्षादान है बीजबोना। गुरु की अयोग्यता अर्थात् त्रुटिपूर्ण बीज तथा शिष्य की अयोग्यता अर्थात् अनुर्वर भूमि।

चंदू- हम लोग किस श्रेणी में आते हैं?
बाबा- शिष्य तीन प्रकार के होते हैं। 1. अधोमुख कुभ, जिनमें तभी तक पानी रहता है जब तक वे डूबे रहते हैं, अर्थात् गुरु के सान्निध्य में रहते हैं तो ठीक अन्यथा ज्यों के त्यों। 2. उत्संगी बदरी, जो बड़े कष्ट पाकर गुरु से कुछ सीखते हैं परंतु ज्ञान को अपने पास सुरक्षित रखने की व्यवस्था  नहीं कर पाते । जैसे बेर के पेड़ पर चढ़कर काटों में से बेर तो तोड़ लिये पर उन्हें रखने के लिये केवल हाथ। 3. ऊर्ध्वमुख कुम्भ, जो जल के भीतर रहते हुए भी जल से भरा रहता है तथा बाहर लाने पर भी पूरा भरा रहता है। अर्थात् वे सीखी गई चीज को यत्न पूर्वक संचित रखते हैं।  और गुरु भी तीन प्रकार के होते हैं। 1. अधम, ये अच्छी अच्छी बातें सुना और सिखा के दूर हो जाते हैं शिष्य वैसा कर रहा है या नहीं उसे देखने की चिन्ता नहीं करते । 2. मध्यम, ये सिखाते तो हैं ही खोज खबर भी रखते है पर वह कुछ कर भी रहा है या नहीं इसकी छानबीन नहीं करते। 3. उत्तम, ये शिष्य को सिखाते हैं खोज खबर रखते हैं और साधनागत त्रुटियों को सुधारने हेतु बाध्य करते हैं, नहीं सुधारनें पर दंडित भी करते हैं। उत्तम गुरु के लक्षणों के बारे में पिछली क्लास में बताया जा चुका है।

इंदु- तो उत्तम शिष्य के लक्षण क्या होते हैं?
बाबा-उत्तम शिष्य के लक्षणों में तंत्रसार कहता है-
‘‘शान्तो विनीत शुद्धात्मा श्रद्धावान धारणाक्षमः, समर्थश्च   कुलीनश्च  
 प्राज्ञः सच्चरितो यति, एवमादि गुर्णैयुक्तः शिष्यो भवति नान्यथा।’’ 
अर्थात् जो शान्त , विनीत, शुद्धात्मा, श्रद्धावान ,धैर्यशील, समर्थ , कौल साधना में उत्साही, प्राज्ञ, सच्चरित्र एवं यति हैं वे ही उपयुक्त शिष्य हैं। जो हर समय प्रत्येक स्थिति में गुरु की आज्ञा का पालन करने को उत्सुक हों, उन्हें समर्थ कहते हैं। जिसमें उपयुक्त ज्ञान और समझ दोनों हो वह है प्राज्ञ। जिसे मानसिक संयम प्राप्त है उसे यति कहते हैं। अन्य लक्षणों के अर्थ तो जानते ही हो।
साधारण अवस्था में हर आदमी के अपने संस्कार होने के कारण वह विवेकशील पशु  (rational animal  ) कहलाता है। अतः साधना का पहला स्तर पशु  स्वभाव के साथ युद्ध करना सिखाता है उसे पश्वाचार कहते हैं, इन वृत्तियों पर विजय प्राप्त करने वाले ही वीर कहलाते हैं। रुद्रयामल तंत्र के अनुसार 
‘‘सर्वे च पशवः सन्ति तलवत भूतले नराः, तेषां ज्ञानप्रकाशाय वीरभाव प्रकाशितः, वीर भाव सदा प्राप्य क्रमेण देवता भवेत्।‘‘ 
अर्थात् स्वाभाविक अवस्था में सभी पशु  हैं, आध्यात्मिक जिज्ञासा उत्पन्न होने पर उसे वीर कहते हैं और जब यह वीर भाव हृदय में स्थान ले लेता है तब वह देवता कहलाता है। तंत्र का साधना क्रम इसी व्यावहारिक सत्य पर आधारित है इस कारण, विज्ञान से इसका कोई विरोध नहीं है। ‘‘पशु, वीर और देवता ‘‘ के भावत्रय के बीच भी समाज में विभिन्न स्तर भेद हैं, गुरु इन्हीं आध्यात्मिक और मानसिक स्तर भेद के अनुसार शिक्षा देते रहते हैं। 
‘‘वैदिकं वैष्णवं शैवं दाक्षिणंम् पाशवं स्मृतं सिद्धान्ते वागे च वीरे दिव्यं तु कौलमुच्यते।’’ 
अर्थात् वैदिकाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, और दक्षिणाचार ये सब पशुभाव के विभिन्न स्तर हैं। सिद्धान्ताचार और वामाचार वीरभाव के अंतर्गत हैं तथा कौलाचार दिव्यभाव कहलाता है। 

2 comments:

  1. बिना अखंड ब्रह्मचर्य व्रत धारण कि सभी साधक पशुभाव वालें हैं।। जो साधक केवल सत्य आचरण मे प्रतिष्ठित हैं।। वही शास्त्रों की दृष्टिकोण से वीर और दिव्य भाव के साधक कहें जातें हैं।। महाहठयोगी अम्बरीष ब्रह्मचारी जी ।। तंत्राचार्य।। शैवाचार्य।। संपर्क सूत्र whatsapp 9554712283 प्रयागराज।।

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    1. धन्यवाद आचार्य जी।
      कृपया ‘सांइंस आफ लिविंग’ नामक यह ब्लाग पढ़ते रहिए और अपनी मूल्यवान टिप्पणियों से अवगत कराते रहिए। सादर।

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