55 बाबा की क्लास (गुरु)
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रवि- अब तो लगता है परमपुरुष को पा सकना बड़ा ही कठिन है! सच्चे अर्थो में उचित मार्गदर्शन कौन दे सकता है, यह बताइये?
बाबा- उस निर्विकार परम सत्ता को पाने का रास्ता और उस पर चलने की विधि वही बता सकता है जिसने उसे पा लिया हो और भली भाॅंति अनुभव भी किया हो। ऐंसा महान आत्मा, तन्त्र में महाकौल कहलाता है।
चंदू- महाकौल की क्या पहचान है?
बाबा- महाकौल के संबंध में कहा गया है,
शान्तोदान्तोकुलीनश्च विनीतशुद्धवेशवान्, शुद्धाचारी सुप्रतिष्ठित शुचिर्दक्ष सुबुद्धिमान।
आश्रमी ध्याननिष्ठश्च तंत्रमंत्र विशारद निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते।
इन्दु- इसे विस्तार से स्पष्ट कर दीजिये?
बाबा- ठीक है इस श्लोक में महाकौल गुरु के जो लक्षण दिये गये हैं उनको समझ लेने पर उन्हें पहचान पाना सरल हो जाता हैं
(1) शान्त. अर्थात् जिन्होंने अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया है।
(2)दान्त. अर्थात् जिनकी इन्द्रिय समूह की कर्म प्रणाली बहुमुखी है। श्रवण, मनन और निदिध्यासन के कार्य में इन्द्रियोंकी महती भूमिका है, अतः इन तीनों कार्यों को छोड़ इंन्द्रियों की समस्त कर्मधाराओं को जिन्होंने नियंत्रित कर लिया है।
(3)कुलीन. जो कुलकुंडलिनी की साधना करते हैं, जो पुरश्चरण में सिद्ध हैं, इन्हें ही कुलगुरु कहते हेंै।
(4)विनीत, जिसके प्रत्येक व्यवहार से विनम्रता का उत्सारण होता हो।
(5)शुद्धवेशवान , अर्थात् आचरण में शुद्ध और शुद्ध आजीविका युक्त तथा मन से शुचिता यानि शुद्धता जिनमें हो।
(6) आध्यात्म जगत में दक्षता , यह गुरु का आन्तरिक गुण है। दक्ष का अर्थ है जो सैद्धान्तिक और व्यावहारिक ज्ञान दोनों में पारंगत हैं। जिन्हें केवल सैद्धान्तिक ज्ञान है उन्हें कहा जाता है विद्वान। गुरु के विद्वान होने से काम नहीं चलेगा उन्हें दक्ष होना पड़ेगा, इसी प्रकार उन्हें बुद्धिमान नहीं सुबुद्धिमान होना पड़ेगा।
(7)आश्रमी अर्थात् तंत्र विधानानुसार ग्रही ही ग्रही के गुरु हो सकते हैं अन्य नहीं। केवल ध्यान की विधि सिखाने का काम ही नहीं उन्हें ध्याननिष्ठ होना होगा।
(8) तंत्रमंत्र विशारद, इस संबंध में कहा गया है कि ‘‘मननात् तारयेत्यस्तु सः मंत्रः परिकीर्तितः‘‘ अतः किसके लिये कौन मंत्र उपयुक्त है, कौन सिद्धमंत्र है कौन नहीं, कौल गुरु में यह ज्ञान अवश्य ही होना चाहिये , इसीलिये कहा गया है कि उन्हें तंत्रमंत्र विशारद होना चाहिये। जो एकसाथ दक्ष और विद्वान हैं उन्हें विशारद कहा जाता है।
(9) निग्रहानुग्रहे शक्तो अर्थात् अभ्यास कराते समय द्रढ़ता और दयालुता का यथा समय प्रयोग करना।
राजू- इतने कठिन तपस्यापूर्ण गुणों का किसी एक व्यक्ति में होना क्या संभव है?
बाबा- हाॅं, इन सभी गुणों से युक्त बीसवीं सदी में हुए सद्गुरु, महासम्भूति और तारक ब्रह्म श्रीश्री आनन्दमूर्ति ने विश्व में प्रचलित सभी मतों के निचोड़ को वैज्ञानिक सूत्र में बाॅंध कर बिलकुल नयी विधि से हजारों व्यक्तियों को दीक्षित कर इन सभी रहस्यों से पर्दा हटा दिया है।
रवि- उन्होंने यह किस प्रकार किया है क्या हम उसका संक्षेप में विवरण जान सकते हैं?
बाबा- उन्होंने अष्टाॅंग योग पर आधारित छः स्तरों पर प्रयुक्त की जाने वाली पद्धति को सिखाने की व्यवस्था बनाई है, जिसमें पहले स्तर पर संबंधित के संस्कारों के आधार पर उसके बीज मंत्र की सहायता से साधक अपने पूर्व जन्म के संस्कार धीरे धीरे क्षय करता जाता है इसे इष्ट मंत्र कहते हैं। दूसरे स्तर पर नये संस्कारों का जन्म ही न हो पाये इसकी विधि और मंत्र दिया जाता है इसे गुरुमंत्र कहते हैं। तीसरे स्तर पर शरीर में स्थित पंचतत्वों के मंत्र और उनके उचित स्थान पर चिंतन करना सिखाया जाता है जिसे तत्व धारणा कहते हैं। चौथे स्तर पर मन और प्राणों पर नियंत्रण करने की विधि सिखाई जाती है जिसे प्राणायाम कहते हैं। पाॅंचवे स्तर पर शरीर के ऊर्जा केन्द्रों को इष्ट मंत्र की सहायता से शोधन करना सिखाया जाता है इसे चक्रशोधन कहते हैं। छठवें स्तर पर ध्यान की विधि सिखाकर परमपुरुष के साथ वार्तालाप करना सिखाया जाता है। इस प्रकार सभी स्तरों का लगातार अभ्यास करने और नियमित साधना करते रहने पर कुछ ही दिनों में यह समझ में आ जाता है कि अब नये संस्कार नहीं बन रहे हैं तथा पुराने शीघ्रातिशीघ्र क्षय होते जा रहे हैं। इसी क्रम में जब संस्कार शून्य हो जाते हैं तब आत्मसाक्षात्कार होता है। इस भौतिक मनोआध्यात्मिक विधि से विश्व के हजारों लोग लाभान्वित हो चुके हैं और होते जा रहे हैं।
चंदु-वह हमें कहाॅं मिल सकते हैं?
बाबा- वह अपनी भौतिक देह त्याग चुके हैं परंतु यह विधि उनके द्वारा प्रवर्तित आध्यात्मिकदर्शन ‘आनन्दमार्ग‘ (path of bliss) के किसी भी आचार्य से निःशुल्क सीखी जा सकती है । इस दर्शन के मूल्याॅंकन के अनुसार ‘ ब्रह्मसद्भाव‘ सर्वोत्तम, ‘ध्यान धारणा‘ मध्यम, ‘अर्चना प्रार्थना ‘ अधम और ‘मूर्तिपूजा‘ सर्वाधम मानी गई है। उत्तमो ब्रह्म सदभावो, मध्यो भावो ध्यान धारणा, अर्चना प्रार्थना अधमो भावो मूर्तिपूजा धमोधमा। अतः निराकार ब्रह्म के साथ एक्य स्थापित करने की यह विज्ञान सम्मत पद्धति है।
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रवि- अब तो लगता है परमपुरुष को पा सकना बड़ा ही कठिन है! सच्चे अर्थो में उचित मार्गदर्शन कौन दे सकता है, यह बताइये?
बाबा- उस निर्विकार परम सत्ता को पाने का रास्ता और उस पर चलने की विधि वही बता सकता है जिसने उसे पा लिया हो और भली भाॅंति अनुभव भी किया हो। ऐंसा महान आत्मा, तन्त्र में महाकौल कहलाता है।
चंदू- महाकौल की क्या पहचान है?
बाबा- महाकौल के संबंध में कहा गया है,
शान्तोदान्तोकुलीनश्च विनीतशुद्धवेशवान्, शुद्धाचारी सुप्रतिष्ठित शुचिर्दक्ष सुबुद्धिमान।
आश्रमी ध्याननिष्ठश्च तंत्रमंत्र विशारद निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते।
इन्दु- इसे विस्तार से स्पष्ट कर दीजिये?
बाबा- ठीक है इस श्लोक में महाकौल गुरु के जो लक्षण दिये गये हैं उनको समझ लेने पर उन्हें पहचान पाना सरल हो जाता हैं
(1) शान्त. अर्थात् जिन्होंने अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया है।
(2)दान्त. अर्थात् जिनकी इन्द्रिय समूह की कर्म प्रणाली बहुमुखी है। श्रवण, मनन और निदिध्यासन के कार्य में इन्द्रियोंकी महती भूमिका है, अतः इन तीनों कार्यों को छोड़ इंन्द्रियों की समस्त कर्मधाराओं को जिन्होंने नियंत्रित कर लिया है।
(3)कुलीन. जो कुलकुंडलिनी की साधना करते हैं, जो पुरश्चरण में सिद्ध हैं, इन्हें ही कुलगुरु कहते हेंै।
(4)विनीत, जिसके प्रत्येक व्यवहार से विनम्रता का उत्सारण होता हो।
(5)शुद्धवेशवान , अर्थात् आचरण में शुद्ध और शुद्ध आजीविका युक्त तथा मन से शुचिता यानि शुद्धता जिनमें हो।
(6) आध्यात्म जगत में दक्षता , यह गुरु का आन्तरिक गुण है। दक्ष का अर्थ है जो सैद्धान्तिक और व्यावहारिक ज्ञान दोनों में पारंगत हैं। जिन्हें केवल सैद्धान्तिक ज्ञान है उन्हें कहा जाता है विद्वान। गुरु के विद्वान होने से काम नहीं चलेगा उन्हें दक्ष होना पड़ेगा, इसी प्रकार उन्हें बुद्धिमान नहीं सुबुद्धिमान होना पड़ेगा।
(7)आश्रमी अर्थात् तंत्र विधानानुसार ग्रही ही ग्रही के गुरु हो सकते हैं अन्य नहीं। केवल ध्यान की विधि सिखाने का काम ही नहीं उन्हें ध्याननिष्ठ होना होगा।
(8) तंत्रमंत्र विशारद, इस संबंध में कहा गया है कि ‘‘मननात् तारयेत्यस्तु सः मंत्रः परिकीर्तितः‘‘ अतः किसके लिये कौन मंत्र उपयुक्त है, कौन सिद्धमंत्र है कौन नहीं, कौल गुरु में यह ज्ञान अवश्य ही होना चाहिये , इसीलिये कहा गया है कि उन्हें तंत्रमंत्र विशारद होना चाहिये। जो एकसाथ दक्ष और विद्वान हैं उन्हें विशारद कहा जाता है।
(9) निग्रहानुग्रहे शक्तो अर्थात् अभ्यास कराते समय द्रढ़ता और दयालुता का यथा समय प्रयोग करना।
राजू- इतने कठिन तपस्यापूर्ण गुणों का किसी एक व्यक्ति में होना क्या संभव है?
बाबा- हाॅं, इन सभी गुणों से युक्त बीसवीं सदी में हुए सद्गुरु, महासम्भूति और तारक ब्रह्म श्रीश्री आनन्दमूर्ति ने विश्व में प्रचलित सभी मतों के निचोड़ को वैज्ञानिक सूत्र में बाॅंध कर बिलकुल नयी विधि से हजारों व्यक्तियों को दीक्षित कर इन सभी रहस्यों से पर्दा हटा दिया है।
रवि- उन्होंने यह किस प्रकार किया है क्या हम उसका संक्षेप में विवरण जान सकते हैं?
बाबा- उन्होंने अष्टाॅंग योग पर आधारित छः स्तरों पर प्रयुक्त की जाने वाली पद्धति को सिखाने की व्यवस्था बनाई है, जिसमें पहले स्तर पर संबंधित के संस्कारों के आधार पर उसके बीज मंत्र की सहायता से साधक अपने पूर्व जन्म के संस्कार धीरे धीरे क्षय करता जाता है इसे इष्ट मंत्र कहते हैं। दूसरे स्तर पर नये संस्कारों का जन्म ही न हो पाये इसकी विधि और मंत्र दिया जाता है इसे गुरुमंत्र कहते हैं। तीसरे स्तर पर शरीर में स्थित पंचतत्वों के मंत्र और उनके उचित स्थान पर चिंतन करना सिखाया जाता है जिसे तत्व धारणा कहते हैं। चौथे स्तर पर मन और प्राणों पर नियंत्रण करने की विधि सिखाई जाती है जिसे प्राणायाम कहते हैं। पाॅंचवे स्तर पर शरीर के ऊर्जा केन्द्रों को इष्ट मंत्र की सहायता से शोधन करना सिखाया जाता है इसे चक्रशोधन कहते हैं। छठवें स्तर पर ध्यान की विधि सिखाकर परमपुरुष के साथ वार्तालाप करना सिखाया जाता है। इस प्रकार सभी स्तरों का लगातार अभ्यास करने और नियमित साधना करते रहने पर कुछ ही दिनों में यह समझ में आ जाता है कि अब नये संस्कार नहीं बन रहे हैं तथा पुराने शीघ्रातिशीघ्र क्षय होते जा रहे हैं। इसी क्रम में जब संस्कार शून्य हो जाते हैं तब आत्मसाक्षात्कार होता है। इस भौतिक मनोआध्यात्मिक विधि से विश्व के हजारों लोग लाभान्वित हो चुके हैं और होते जा रहे हैं।
चंदु-वह हमें कहाॅं मिल सकते हैं?
बाबा- वह अपनी भौतिक देह त्याग चुके हैं परंतु यह विधि उनके द्वारा प्रवर्तित आध्यात्मिकदर्शन ‘आनन्दमार्ग‘ (path of bliss) के किसी भी आचार्य से निःशुल्क सीखी जा सकती है । इस दर्शन के मूल्याॅंकन के अनुसार ‘ ब्रह्मसद्भाव‘ सर्वोत्तम, ‘ध्यान धारणा‘ मध्यम, ‘अर्चना प्रार्थना ‘ अधम और ‘मूर्तिपूजा‘ सर्वाधम मानी गई है। उत्तमो ब्रह्म सदभावो, मध्यो भावो ध्यान धारणा, अर्चना प्रार्थना अधमो भावो मूर्तिपूजा धमोधमा। अतः निराकार ब्रह्म के साथ एक्य स्थापित करने की यह विज्ञान सम्मत पद्धति है।
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