Sunday 20 March 2016

54 बाबा की क्लास (होली: बसंतोत्सव)

54 बाबा की क्लास  (होली: बसंतोत्सव)
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रवि- बाबा! होली आने वाली है इसका यथार्थ रूप क्या वैसा ही है जो हर वर्ष हम देखते हैं, या कुछ और? 
बाबा-  लोगों ने काल्पनिक कहानियों के आधार पर कैसी कैसी विचित्र परम्पराएँ बना ली हैं कि होली के नाम पर एक दूसरे पर कीचड़/ रंग फेकते हैं , अकथनीय अपशब्द कहकर मन की भड़ास निकलते हैं और कहते हैं कि ‘‘बुरा न मानो होली है‘‘। होली के लिए चंदा बटोरकर रोड के बीचोंबीच टनों लकडि़याँ जलाकर कभी न सुधर पाने वाले रोड खराब तो करते ही हैं वातावरण में कार्बनडाई ऑक्साइड  मिलाकर प्रदूषण फैलाते हैं, रंगों / कीचड़ भरे शरीर और कपड़ों को धोने में पानी और समय भी नष्ट करते  हैं। परंतु होली अर्थात् बसंतोत्सव का उद्देश्य  बाहरी रंगों से खेलना नहीं है, उसका उद्देषश्य  है कि संसार की जिन वस्तुओं ने मन को पकड़ रखा है अपने रंग में जकड़ रखा है उनके रंगों को परमपुरुष को भेंट कर देना। जब तुम अपने आकर्षणों और रंगों को इस प्रकार परमपुरुष को भेंट करने के खूब अभ्यस्थ हो जाओगेे तब तुम उन्हीं में मिल जाओगे, तुम्हें किसी रंग की आवश्यकता ही नहीं रहेगी तुम रंगहीन हो जाओगे, कोई रंग तुम्हें आकर्षित नहीं कर सकेगा। तुम्हारा इकाई अहं, महततत्व में मिल जायेगा और तुम्हें हर दिशा  में उन्हीं का कीर्तिगान सुनाई देगा उन्हीं की भव्यता दिखाई देगी। फिर मेरे तेरे की भावना के बीच पड़ा पर्दा सदा के लिये हट जायेगा। इस अवस्था में तुम उन्हें ‘मैं‘, ‘तुम‘ अथवा ‘वह‘ कुछ भी संबोधित कर सकते हो यह इस बात पर निर्भर करेगा कि तुम्हारा उनके प्रति समर्पण भाव किस स्तर का है।

राजू- इस कार्य को सभी लोग कर सकते हैं या कोई विशेष प्रशिक्षित व्यक्ति?
बाबा- यह कार्य है तो सभी के लिये परंतु जो अष्टाॅंगयोग की साधना करते हैं उन्हें इसका अभ्यास करना सरल हो जाता है। इसीलिये मैं कहता हॅूं कि अपने निर्णय और विचारों के प्रवाह में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाओ। फिर बाहरी रंगों के आकर्षण से मुक्त होकर देखोगे कि तुम्हारा मन परमपुरुष के भव्य रंग में किस प्रकार झलकने लगा है। अष्टाॅंग योग  में निम्न स्तर की वृत्तियों की ओर से मन को खींच कर उस महान की ओर संचालित करने का कार्य प्रत्याहार योग अथवा वर्णार्ध्यदान कहलाता है। सभी लोग किसी न किसी कार्य या वस्तु से किसी न किसी प्रकार आकर्षित होते हैं , ज्योंही वे उससे आकर्षित होते हैं उनका मन उसके रंग में रंग जाता है। तुम उस वस्तु के रंग से अपने मन को हटाकर परमपुरुष को भेंट कर अपने मन को परमपुरुष के रंग में रंग सकते हो। यही सच्चा प्रत्याहार योग है, प्रत्याहार माने मन को उसके विषय से खींच लेना।

चंदू- आपने जो कहा है उसका वैज्ञानिक आधार क्या है?
बाबा-
- भौतिकवेत्ता  (physicists) कहते हैं कि किसी भी वस्तु का अपना कोई रंग नहीं होता , सभी रंग प्रकाश के ही होते हैं।  प्रकाश तरंगों की विभिन्न लम्बाइयां (wave lengths) ही रंग प्रदर्शित करती  हैं। जो वस्तु प्रकाश की जिन तरंग लम्बाइयों को परावर्तित करती है वह उसी रंग की दिखाई देती है अतः यदि कोई वस्तु प्रकाश विकिरण की  सभी तरंग लम्बाइयों को परावर्तित कर दे तो वह सफेद और सभी को शोषित कर ले तो काली दिखाई देती है। सफेद और काला कोई पृथक रंग नहीं हैं।   

- मनोभौतिकी विद (psycho-physicist) कहते हैं कि मन के वैचारिक कम्पनों से बनने वाली  मानसिक तरंगें (psychic wave) भी व्यक्ति के चारों ओर अपना रंग पैटर्न बनाती हैं जिसे ‘‘आभामण्डल‘‘ (aura) कहते हैं। अनेक जन्मों के संस्कार भी इसी पैटर्न में विभिन्न परतों में संचित रहते हैं और पुनर्जन्म के लिए उत्तरदायी होते हैं।   
 - मनोआत्मिक  विज्ञानी  (psycho-spiritualists)  इन तरंगों ( wave patterns) को वर्ण (colours) कहते हैं।  यह लोग यह भी कहते हैं कि जिस परमसत्ता (cosmic entity) ने यह समस्त ब्रह्माण्ड निर्मित किया है वह अवर्ण (colourless) है परन्तु इस ब्रह्माण्ड में अस्तित्व रखने वाली सभी वस्तुओं के द्वारा प्रकाश तरंगों के परावर्तन करने के अनुसार ही  वर्ण (colours) होते हैं क्योंकि ये सब उसी परमसत्ता की विचार तरंगें ही हैं।  अतः यदि उस परमसत्ता को प्राप्त करना है तो स्वयं को अवर्ण  बनाना होगा।  इसी सिद्धांत का पालन करते हुए अष्टांगयोगी प्रतिदिन अपनी त्रिकाल संध्या में  इन वर्णो को ईशचिंतन, मनन, कीर्तन और निदिध्यासन की विधियों द्वारा उस परमसत्ता को सौंपने का कार्य करते हैं जिसे वर्णार्घ्य  दान कहते हैं। बोलचाल की भाषा में वे इसे ही असली होली खेलना कहते हैं। 

नन्दू- लेकिन, आधुनिक विज्ञान के नियम तो अपेक्षतया बहुत बाद के हैं अष्टाॅंगयोग विज्ञान तो बहुत पुरातन है? वर्णार्घ्य दान  की पद्धति का प्रारंभ और प्रचार कैसे और कब से हुआ?
बाबा- भारतीय योगदर्शन  पूर्णतः वैज्ञानिक सिद्धान्तों और मनोवैज्ञानिक विधियों पर आधारित है जो हमारे ऋषियों ने अपार पराक्रम से अनुसंधान कर हमें सौंपा है। यह लोग और कोई नहीं उन्नत श्रेणी के वैज्ञानिक ही थे। मन के रहस्यों के बारे में उन्होंने अनुभव किया कि मन के दो खंड होते हैं एक व्यक्तिनिष्ठ (subjective mind) और दूसरा वस्तुनिष्ठ (objective mind) । मानलो एक बिल्ली दिखाई दी, अब यदि आॅंख बंद कर उस बिल्ली को फिर से याद किया जाता है तो मन का जो भाग बिल्ली का आकार बनाने लगता है उसे वस्तुनिष्ठ मन और जो भाग केवल देखता रहता है अर्थात् साक्ष्य देता है कि हाॅं बिल्ली का रूप बन गया, उसे  व्यक्तिनिष्ठ भाग कहते हैं। वस्तुनिष्ठ मन के कार्य करने का दूसरा प्रकार यह  है, मानलो अब उसकी कल्पना करते हैं जिसका अस्तित्व ही नहीं है जैसे भूत,  तो अस्तित्व न होते हुए भी जो सोचा जा रहा है कि इस अंधेरे कमरे में भूत रहता है जिसके बड़े बड़े दाॅंत और उल्टे पैर होते हैं, यह बिल्कुल कल्पना है परंतु फिर भी वह वस्तुनिष्ठ मन में अपना प्रतिविंब बनाता है और इस कल्पित भूत को जो देखने का काम करता है वह भी इसी मन का व्यक्तिनिष्ठ भाग है। अनेक प्रयोगों के आधार पर ऋषियों ने अनुभव किया कि यथार्थ निर्णय करने के लिये मन के व्यक्तिनिष्ठ भाग को (अर्थात् जो देख रहा है या साक्ष्य दे रहा है), वस्तुनिष्ठ भाग  ( अर्थात् जो देखा जा रहा है) से अधिक षक्तिषाली होना चाहिये अन्यथा वस्तुनिष्ठ मन में लगातार एकत्रित होते जाने वाले यह काल्पनिक प्रतिबिम्व (पूर्वोक्त अर्थों में वर्ण या रंग)  भ्रमित करते रहते हैं और सत्य के रास्ते से दूर हटा देते हैं। इन्हीं सिद्धान्तों का व्यावहारिक स्वरूप श्रीकृष्ण ने अपने बाल सखाओं, गोप और गोपियों को सबसे पहले बताया था कि किस प्रकार वस्तुनिष्ठ मन के प्रतिबिंवों अर्थात् रंगों को व्यक्तिनिष्ठ मन की सहायता से वापस परमपुरुष को भेट कर देना चाहिये क्योंकि सभी रंग उन्हीं के हैं। सभी गोप और गोपियों को सामूहिक रूप से जिस दिन यह प्रत्याहार योग या वर्णार्घ्य दान  की साधना सिखाई गयी थी उसे ही बसंतोत्सव का नाम दिया गया है। उसके बाद पौराणिक काल से अनेक प्रकार के सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तनों के कारण इसमें अनेक विरूपतायें आ गयीं हैं और अब उसका स्वरूप कैसा हो गया है यह बताने की आवश्यकता नहीं  है। 

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