( मित्रो पिछली क्लासों में अष्टाॅंगयोग के चार सोपानों, यम , नियम, आसन, और प्राणायाम पर विस्त्रित चर्चा की जा चुकी है, आज हम इसके आगे के शेष चारों सोपानों पर चर्चा करेंगे )
53 बाबा की क्लास (अष्टाॅंगयोग -3)
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राजू- बाबा! अभी तक के चारों सोपान तो लगातार कठिन ही होते गये हैं, पांचवाॅं सोपान तो सरल है या और कठिन?
बाबा- पहले समझ लो फिर विचार करना कि सरल है या कठिन। पाॅंचवें स्तर को कहते हैं ‘‘ प्रत्याहार‘‘ । इसमें मन को उसके विषयों से हटाकर उसे निर्धारित विंदु पर स्थिर करने का अभ्यास किया जाता है। तुम लोग जानते हो कि हमारा मन पाॅंच ज्ञानेन्द्रियों (आॅंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा) तथा पाॅंच कर्मेन्द्रियों (वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और पायु) की सहायता से सभी काम करता है और सदैव चलायमान रहता है। परंतु यह इंद्रियाॅं, सभी प्रकार की वाह्य सूचनाओं को पाॅंच प्रकार की तन्मात्राओं की सहायता से ही प्राप्त कर पाती हैं। ये तन्मात्रायें शब्द, स्पर्श , रूप, रस और गंध के माध्यम से उन तक पहुॅच पाती हैं अतः यदि धीरे धीरे अभ्यास करते हुए इन तन्मात्राओं से उत्सर्जित होने वाले संवेदनों को मन तक पहुंचने से रोकने का प्रयास करना होता है । इसी अभ्यास का नाम प्रत्याहार है। योग मार्ग में प्रवीण आचार्यगण इस संबंध में अपने अपने अनुभव के अनुसार विभिन्न प्रकार की विधियों को उपयोग में लाते पाये गये हैं ।
रवि- तो हम लोगों को इस का अभ्यास किस प्रकार करने में सरलता होगी?
बाबा- सरल और कठिन की अवधारणा को ही भूल जाओ। सभी कार्य प्रारंभ में कठिन लगते हैं परंतु अभ्यास की निरंतरता उन्हें सरल कर देती है। तुम लोग पूछ सकते हो कि कैसे भूल जाओ; जिस कार्य की जो प्रकृति है उसे तो अनुभव करना ही पड़ेगा? हाॅं, इसी अनुभूति को अभ्यास के द्वारा धीरे धीरे कम किया जा सकता है जिसके लिये किये गये सभी प्रयास प्रत्याहार की परिधि में आयेंगे। जैसे ‘शब्द तन्मात्रा‘‘ अर्थात् ध्वनि। कोई भी ध्वनि हो वह कानों के माध्यम से ही मन तक पहुंचेगी अतः कानों तक उसे पहुंचने के रास्ते को बंद करने का उपाय करना अनिवार्य होगा, यही उपाय करने का कार्य प्रत्याहार की परिधि में आयेगा, जैसे कमरे को बंद करना, ध्वनि अवरोधकों का उपयोग करना आदि । धीरे धीरे इन संवेदनों के प्रति मन स्वयं उपेक्षा भाव लेने का अभ्यस्थ होता जाता है और एक ऐसी स्थिति आती है कि कोई कितना ही शोरगुल क्यों न करता रहे वह उससे प्रभावित नहीं होता। इसी प्रकार के अन्य उपायों द्वारा अन्य तन्मात्राओं को मन तक पहुंचने से रोका जा सकता है। परंतु , अचानक इस प्रकार वाह्य संवेदनों से विच्छेदित मन और अधिक विचलित होने लगता है अतः उसे यदि उचित स्थान पर वैठा कर उचित कार्य दे दिया जाये तो वह कुछ देर के लिये शांत हो जायेगा, इसके बाद वह फिर से दिये गये कार्य और स्थान को छोड़कर भागना चाहेगा परंतु बौद्धिक स्पंदनों से उसे बार बार याद दिलाना होता है कि भौतिक जगत की तुच्छ वस्तुऐं तुम्हारा लक्ष्य नहीं हैं तुम्हारा लक्ष्य तो महान है, विराट है आदि। उसे इसी प्रकार के सतत प्रयास से एक ही स्थान पर लगातार देर तक बैठाने का अभ्यास कराते कराते वह स्थिर हो जाता है और आगे के सोपान तक जाने के लिये तैयार हो जाता है। इस कार्य में ही सबसे अधिक समय लगता है, परंतु एक बार जब मन पर नियंत्रण हो जाता है तो फिर आगे बढ़ना सरल हो जाता है।
इंदु- इसके आगे उसे किस सोपान पर पहुंचाना पड़ता है?
बाबा- अगला सोपान ‘‘धारणा‘‘ कहलाता हैं, इसकी परिभाषा है ‘‘ देशबंधस्चित्तस्य धारणा‘‘ अर्थात् शरीर के किसी क्षेत्र विशेष में मन को द्रढ़ता पूर्वक बाॅंधे रखना । इसका आशय यह है कि शरीर में स्थित उसके मुख्य पाॅंच घटकों पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश के ऊर्जा केन्द्रों पर मन को वैठा कर उन चक्रों या केन्द्रों से संबंधित दिये गये मंत्र पर पृथक पृथक चिंतन कराना। योग के प्रबुद्ध आचार्य इन चक्रों को मंत्रों की सहायता से उनका शुद्धीकरण करने की विधियाॅं भी बताते हैं, जिससे मन को देर तक स्थिर बनाये रखने में सहायता मिलती है। इस कार्य को चक्रशोधन कहते हैं। इस स्तर पर पूर्वोक्त घटकों पर उनके मंत्र का आघात करने से ऊर्जाकेन्द्र सक्रिय हो जाते हैं। यहाॅं ऊर्जा केन्द्रों के सक्रिय हो जाने पर अनेक प्रकार की सिद्धियाॅं मन को लुभाने लगती हैं जिनसे बड़ी सावधानी के साथ सतर्क रहना पड़ता है अन्यथा अहंकार का बढ़ता प्रभाव, किये गये सब पराक्रम पर पानी फेर देता है और पतन की ओर गति हो जाती है। अनेक उच्च स्तर पर पहुंच चुके महात्मा लोग सिद्धियों के चक्कर में पतित होते देखे गए हैं।
नन्दू- बाबा! इसके आगे का स्तर क्या है ?
बाबा- इसके आगे का स्तर कहलाता है ‘‘ध्यान‘‘। पतंजली के अनुसार ‘तत्र प्रत्यत्यैकतानता ध्यानम्‘ अर्थात् परम लक्ष्य की ओर मन का सतत प्रवाह बनाये रखना। इसलिये ध्यान परमपुरुष पर किया गया इस प्रकार का चिंतन है जिसमें मन बिना किसी अवरोध या रुकावट के उनकी ओर लगातार बढ़ता जाता है। इसमें वैज्ञानिक तथ्य यह है कि साधक अपनी मूल आवृत्ति (fundamental frequency) अर्थात् इष्ट मंत्र की सहायता से परमपुरुष की मूल आवृत्ति (cosmic frequency) के साथ समानान्तरता लाने का अभ्यास करता है। इस स्तर पर गुरु का सतत मार्गदर्शन आवश्यक होता है। परम सत्ता की मूल आवृत्ति को विद्वान योगाचार्योें ने ‘ओंकार ध्वनि‘ (cosmic sound) कहा है, इसके साथ व्यक्तिगत इष्टमंत्र की सहायता से होने वाला अनुनाद (resonance) ही परम लक्ष्य तक पहॅुंचाता है।
रवि- बाबा! धारणा और ध्यान के मूलतत्व क्या हैं इन्हें फिर से समझा दीजिये और यह भी बता दीजिये कि इनमें अंतर क्या है, और इसके आगे क्या है?
बाबा - ठीक है, इसे ध्यान पूर्वक समझ लो। चित्त का लक्षण अपने विषय का रूप ग्रहण करने का होता है जो वह ग्राहिका और विक्षेपिका नामक क्रियाओं के द्वारा कर पाता है, ग्राहिका ज्ञानेद्रियों और विक्षेपिका कर्मेन्द्रियों के द्वारा सम्पन्न होती हैं। इस प्रकार पहले वह संवेदना ग्रहण करता है फिर उसे कार्य रूप देता है। अतः चित्त के अपने विषय के अनुरूप आकार ग्रहण करने के गुण को धारणा अर्थात् पकड़ना कहते हैं। चूंकि आकार संवेदनों द्वारा ग्रहण किया जाता है अतः वह सतत नहीं होता क्योंकि संवेदनायें सतत नहीं होती परंतु उनकी तेज गति से होने के कारण हमें सतत होते प्रतीत होती हैं। इसलिये धारणा गतिशील नहीं होती स्थिर होती है। ध्यान भी धारणा की तरह चित्त की ही अवस्था है, परंतु ध्यान बाहरी विषय का नहीं होता इसलिये, इसे बाहरी संवेदनाओं की आवश्यकता नहीं होती और यहाँ किन्हीं दो संवेदनाओं में अंतर न होने के कारण चित्त में बने आकार का ध्यान सतत होता है तैल धारावत्। अतः ध्यान का अर्थ हुआ स्थायी स्मरण, विना रुकावट के स्मरण। ध्यान की प्रक्रिया इतनी सतत होती है कि पूरी क्रियात्मकता इसके सातत्य को बनाये रखने में ही व्यय हो जाती है इसलिये ध्यान में अन्य सब क्रियायें समाप्त हो जाती हैं। और जब क्रियायें समाप्त हो जातीं हैं तो मन भी समाप्त हो जाता है इसे ही समाधि कहते हैं, ‘‘कर्म समाधि ‘‘। यही अष्टाॅंगयोग का आठवाॅं और अंतिम सोपान है। इस प्रकार धारणा और ध्यान दोनों में बहुत भिन्नता है भले ही वे दोनों चित्त से ही उत्पन्न होते हैं। धारणा में चित्त वाह्य वस्तुओं का आकार ग्रहण करता है जबकि ध्यान में सब कुछ आन्तरिक होता है। धारणा स्थिर होती है जबकि ध्यान गतिशील। धारणा में क्रिया हो सकती है पर ध्यान में नहीं । धारणा तमोगुणी होती है जबकि ध्यान रजोगुणी। ध्यान में अंतिम रूप से क्रिया समाप्त हो जाती है जिसका उद्देश्य सतोगुणी समाधि प्राप्त होने पर पूरा होता है।
इंदु- हमें समाधि का अनुभव प्राप्त करने के लिये अपने को किस प्रकार तैयार करना चाहिये?
बाबा- समाधियाॅं अनेक प्रकार की होती हैं, परंतु सभी का रसास्वादन करने के लिये मूलभूत आवश्यकता होती है, मन के विभिन्न कोशों का शुद्धिकरण । मन के पंच कोशों को पूर्णतः विकसित कर लेने पर ही वहाॅं पहुंचने और अनुभव करने में सरलता होती है। समुचित आसनों के अभ्यास करते रहने में ‘अन्नमय कोश ‘, यम और नियम के पालन करने में ‘काममय कोश ‘ प्राणायाम के नियमित अभ्यास से ‘मनोमय कोश ‘ प्रत्याहार के अभ्यास से ‘अतिमानस कोश ‘ धारणा के अभ्यास से ‘विज्ञानमय कोश ‘ ध्यान के अभ्यास से ‘हिरण्यमय कोश ‘ पूर्ण रूपसे शुद्ध हो जाते हैं। इसके बाद, केवल ध्यान समाधि ही आत्म दर्शन कराती है। इसलिये पवित्र व्यक्ति वे हैं जो पंचकोशों को शुद्ध करने में नियमित रूपसे जुटे हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट ही है कि मानव अस्तित्व तो पाॅंच कोशों का होता है परंतु आध्यात्मिक साधना आठ स्तरों की होती है। इन आठों स्तरों का सही सही अभ्यास करना ही धर्म है, जो भी सिद्धान्त इन पंचकोशों के शुद्धिकरण के संबंध में समुचित जानकारी नहीं दे पाते वे धर्म नहीं मतवाद ही कहलाते हैं ।
53 बाबा की क्लास (अष्टाॅंगयोग -3)
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राजू- बाबा! अभी तक के चारों सोपान तो लगातार कठिन ही होते गये हैं, पांचवाॅं सोपान तो सरल है या और कठिन?
बाबा- पहले समझ लो फिर विचार करना कि सरल है या कठिन। पाॅंचवें स्तर को कहते हैं ‘‘ प्रत्याहार‘‘ । इसमें मन को उसके विषयों से हटाकर उसे निर्धारित विंदु पर स्थिर करने का अभ्यास किया जाता है। तुम लोग जानते हो कि हमारा मन पाॅंच ज्ञानेन्द्रियों (आॅंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा) तथा पाॅंच कर्मेन्द्रियों (वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और पायु) की सहायता से सभी काम करता है और सदैव चलायमान रहता है। परंतु यह इंद्रियाॅं, सभी प्रकार की वाह्य सूचनाओं को पाॅंच प्रकार की तन्मात्राओं की सहायता से ही प्राप्त कर पाती हैं। ये तन्मात्रायें शब्द, स्पर्श , रूप, रस और गंध के माध्यम से उन तक पहुॅच पाती हैं अतः यदि धीरे धीरे अभ्यास करते हुए इन तन्मात्राओं से उत्सर्जित होने वाले संवेदनों को मन तक पहुंचने से रोकने का प्रयास करना होता है । इसी अभ्यास का नाम प्रत्याहार है। योग मार्ग में प्रवीण आचार्यगण इस संबंध में अपने अपने अनुभव के अनुसार विभिन्न प्रकार की विधियों को उपयोग में लाते पाये गये हैं ।
रवि- तो हम लोगों को इस का अभ्यास किस प्रकार करने में सरलता होगी?
बाबा- सरल और कठिन की अवधारणा को ही भूल जाओ। सभी कार्य प्रारंभ में कठिन लगते हैं परंतु अभ्यास की निरंतरता उन्हें सरल कर देती है। तुम लोग पूछ सकते हो कि कैसे भूल जाओ; जिस कार्य की जो प्रकृति है उसे तो अनुभव करना ही पड़ेगा? हाॅं, इसी अनुभूति को अभ्यास के द्वारा धीरे धीरे कम किया जा सकता है जिसके लिये किये गये सभी प्रयास प्रत्याहार की परिधि में आयेंगे। जैसे ‘शब्द तन्मात्रा‘‘ अर्थात् ध्वनि। कोई भी ध्वनि हो वह कानों के माध्यम से ही मन तक पहुंचेगी अतः कानों तक उसे पहुंचने के रास्ते को बंद करने का उपाय करना अनिवार्य होगा, यही उपाय करने का कार्य प्रत्याहार की परिधि में आयेगा, जैसे कमरे को बंद करना, ध्वनि अवरोधकों का उपयोग करना आदि । धीरे धीरे इन संवेदनों के प्रति मन स्वयं उपेक्षा भाव लेने का अभ्यस्थ होता जाता है और एक ऐसी स्थिति आती है कि कोई कितना ही शोरगुल क्यों न करता रहे वह उससे प्रभावित नहीं होता। इसी प्रकार के अन्य उपायों द्वारा अन्य तन्मात्राओं को मन तक पहुंचने से रोका जा सकता है। परंतु , अचानक इस प्रकार वाह्य संवेदनों से विच्छेदित मन और अधिक विचलित होने लगता है अतः उसे यदि उचित स्थान पर वैठा कर उचित कार्य दे दिया जाये तो वह कुछ देर के लिये शांत हो जायेगा, इसके बाद वह फिर से दिये गये कार्य और स्थान को छोड़कर भागना चाहेगा परंतु बौद्धिक स्पंदनों से उसे बार बार याद दिलाना होता है कि भौतिक जगत की तुच्छ वस्तुऐं तुम्हारा लक्ष्य नहीं हैं तुम्हारा लक्ष्य तो महान है, विराट है आदि। उसे इसी प्रकार के सतत प्रयास से एक ही स्थान पर लगातार देर तक बैठाने का अभ्यास कराते कराते वह स्थिर हो जाता है और आगे के सोपान तक जाने के लिये तैयार हो जाता है। इस कार्य में ही सबसे अधिक समय लगता है, परंतु एक बार जब मन पर नियंत्रण हो जाता है तो फिर आगे बढ़ना सरल हो जाता है।
इंदु- इसके आगे उसे किस सोपान पर पहुंचाना पड़ता है?
बाबा- अगला सोपान ‘‘धारणा‘‘ कहलाता हैं, इसकी परिभाषा है ‘‘ देशबंधस्चित्तस्य धारणा‘‘ अर्थात् शरीर के किसी क्षेत्र विशेष में मन को द्रढ़ता पूर्वक बाॅंधे रखना । इसका आशय यह है कि शरीर में स्थित उसके मुख्य पाॅंच घटकों पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश के ऊर्जा केन्द्रों पर मन को वैठा कर उन चक्रों या केन्द्रों से संबंधित दिये गये मंत्र पर पृथक पृथक चिंतन कराना। योग के प्रबुद्ध आचार्य इन चक्रों को मंत्रों की सहायता से उनका शुद्धीकरण करने की विधियाॅं भी बताते हैं, जिससे मन को देर तक स्थिर बनाये रखने में सहायता मिलती है। इस कार्य को चक्रशोधन कहते हैं। इस स्तर पर पूर्वोक्त घटकों पर उनके मंत्र का आघात करने से ऊर्जाकेन्द्र सक्रिय हो जाते हैं। यहाॅं ऊर्जा केन्द्रों के सक्रिय हो जाने पर अनेक प्रकार की सिद्धियाॅं मन को लुभाने लगती हैं जिनसे बड़ी सावधानी के साथ सतर्क रहना पड़ता है अन्यथा अहंकार का बढ़ता प्रभाव, किये गये सब पराक्रम पर पानी फेर देता है और पतन की ओर गति हो जाती है। अनेक उच्च स्तर पर पहुंच चुके महात्मा लोग सिद्धियों के चक्कर में पतित होते देखे गए हैं।
नन्दू- बाबा! इसके आगे का स्तर क्या है ?
बाबा- इसके आगे का स्तर कहलाता है ‘‘ध्यान‘‘। पतंजली के अनुसार ‘तत्र प्रत्यत्यैकतानता ध्यानम्‘ अर्थात् परम लक्ष्य की ओर मन का सतत प्रवाह बनाये रखना। इसलिये ध्यान परमपुरुष पर किया गया इस प्रकार का चिंतन है जिसमें मन बिना किसी अवरोध या रुकावट के उनकी ओर लगातार बढ़ता जाता है। इसमें वैज्ञानिक तथ्य यह है कि साधक अपनी मूल आवृत्ति (fundamental frequency) अर्थात् इष्ट मंत्र की सहायता से परमपुरुष की मूल आवृत्ति (cosmic frequency) के साथ समानान्तरता लाने का अभ्यास करता है। इस स्तर पर गुरु का सतत मार्गदर्शन आवश्यक होता है। परम सत्ता की मूल आवृत्ति को विद्वान योगाचार्योें ने ‘ओंकार ध्वनि‘ (cosmic sound) कहा है, इसके साथ व्यक्तिगत इष्टमंत्र की सहायता से होने वाला अनुनाद (resonance) ही परम लक्ष्य तक पहॅुंचाता है।
रवि- बाबा! धारणा और ध्यान के मूलतत्व क्या हैं इन्हें फिर से समझा दीजिये और यह भी बता दीजिये कि इनमें अंतर क्या है, और इसके आगे क्या है?
बाबा - ठीक है, इसे ध्यान पूर्वक समझ लो। चित्त का लक्षण अपने विषय का रूप ग्रहण करने का होता है जो वह ग्राहिका और विक्षेपिका नामक क्रियाओं के द्वारा कर पाता है, ग्राहिका ज्ञानेद्रियों और विक्षेपिका कर्मेन्द्रियों के द्वारा सम्पन्न होती हैं। इस प्रकार पहले वह संवेदना ग्रहण करता है फिर उसे कार्य रूप देता है। अतः चित्त के अपने विषय के अनुरूप आकार ग्रहण करने के गुण को धारणा अर्थात् पकड़ना कहते हैं। चूंकि आकार संवेदनों द्वारा ग्रहण किया जाता है अतः वह सतत नहीं होता क्योंकि संवेदनायें सतत नहीं होती परंतु उनकी तेज गति से होने के कारण हमें सतत होते प्रतीत होती हैं। इसलिये धारणा गतिशील नहीं होती स्थिर होती है। ध्यान भी धारणा की तरह चित्त की ही अवस्था है, परंतु ध्यान बाहरी विषय का नहीं होता इसलिये, इसे बाहरी संवेदनाओं की आवश्यकता नहीं होती और यहाँ किन्हीं दो संवेदनाओं में अंतर न होने के कारण चित्त में बने आकार का ध्यान सतत होता है तैल धारावत्। अतः ध्यान का अर्थ हुआ स्थायी स्मरण, विना रुकावट के स्मरण। ध्यान की प्रक्रिया इतनी सतत होती है कि पूरी क्रियात्मकता इसके सातत्य को बनाये रखने में ही व्यय हो जाती है इसलिये ध्यान में अन्य सब क्रियायें समाप्त हो जाती हैं। और जब क्रियायें समाप्त हो जातीं हैं तो मन भी समाप्त हो जाता है इसे ही समाधि कहते हैं, ‘‘कर्म समाधि ‘‘। यही अष्टाॅंगयोग का आठवाॅं और अंतिम सोपान है। इस प्रकार धारणा और ध्यान दोनों में बहुत भिन्नता है भले ही वे दोनों चित्त से ही उत्पन्न होते हैं। धारणा में चित्त वाह्य वस्तुओं का आकार ग्रहण करता है जबकि ध्यान में सब कुछ आन्तरिक होता है। धारणा स्थिर होती है जबकि ध्यान गतिशील। धारणा में क्रिया हो सकती है पर ध्यान में नहीं । धारणा तमोगुणी होती है जबकि ध्यान रजोगुणी। ध्यान में अंतिम रूप से क्रिया समाप्त हो जाती है जिसका उद्देश्य सतोगुणी समाधि प्राप्त होने पर पूरा होता है।
इंदु- हमें समाधि का अनुभव प्राप्त करने के लिये अपने को किस प्रकार तैयार करना चाहिये?
बाबा- समाधियाॅं अनेक प्रकार की होती हैं, परंतु सभी का रसास्वादन करने के लिये मूलभूत आवश्यकता होती है, मन के विभिन्न कोशों का शुद्धिकरण । मन के पंच कोशों को पूर्णतः विकसित कर लेने पर ही वहाॅं पहुंचने और अनुभव करने में सरलता होती है। समुचित आसनों के अभ्यास करते रहने में ‘अन्नमय कोश ‘, यम और नियम के पालन करने में ‘काममय कोश ‘ प्राणायाम के नियमित अभ्यास से ‘मनोमय कोश ‘ प्रत्याहार के अभ्यास से ‘अतिमानस कोश ‘ धारणा के अभ्यास से ‘विज्ञानमय कोश ‘ ध्यान के अभ्यास से ‘हिरण्यमय कोश ‘ पूर्ण रूपसे शुद्ध हो जाते हैं। इसके बाद, केवल ध्यान समाधि ही आत्म दर्शन कराती है। इसलिये पवित्र व्यक्ति वे हैं जो पंचकोशों को शुद्ध करने में नियमित रूपसे जुटे हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट ही है कि मानव अस्तित्व तो पाॅंच कोशों का होता है परंतु आध्यात्मिक साधना आठ स्तरों की होती है। इन आठों स्तरों का सही सही अभ्यास करना ही धर्म है, जो भी सिद्धान्त इन पंचकोशों के शुद्धिकरण के संबंध में समुचित जानकारी नहीं दे पाते वे धर्म नहीं मतवाद ही कहलाते हैं ।
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