Monday 20 June 2016

70 बाबा की क्लास (माया)

70 बाबा की क्लास (माया)
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 इंदु- बाबा! आनन्द सूत्रम के अनुसार ‘शिवशक्तयात्मकम् ब्रह्म‘ अर्थात् ब्रह्म, शिव और शक्ति का सम्मिश्र हैं, उनका परस्पर संबंध अविच्छेद्य है। एक से दूसरे को अलग करने का प्रयास उनके अस्तित्व को ही खतरे में डाल देगा। वे, दूध और उसकी सफेदी, पानी और उसकी द्रवता, आग और उसकी दाहिकाशक्ति की तरह सघनता से संबद्ध हैं। इसीलिये कुछ लोग मानते हैं कि शक्ति, माया और प्रकृति समानार्थी हैं। इसमें कितनी सत्यता है?
बाबा- सैद्धान्तिक रूप से उनकी समानता प्रतीत होती है पर प्रायोगिक रूप से  उनमें अंतर है। जब प्रकृति के तीनों गुण सत, रज और तम, बलसाम्य और भारसाम्य स्थिति में होते हैं तो वह अपनी आदिकालीन सुप्तावस्था में होती है और निर्माण व्यक्त नहीं होता। इस अवस्था को वर्णन करने के लिये शब्द ‘प्रकृति‘ का उपयोग किया जाता है। पर जब ये तीनों गुण अपना बलसाम्य (equilibrium) और भारसाम्य (equipoise) खो देते हैं तब यह गुणात्मक जगत प्रकट होता है। इस अवस्था में जब प्रकृति , परमपुरुष  अर्थात् परम ज्ञानात्मक सत्ता के अनन्त शरीर के सीमित भाग पर निर्माण कार्य प्रारंभ करती है तब उसे माया अर्थात् परम रचनात्मक सत्ता  कहते हैं। विभिन्न जीवधारी, पेड़ पौधे और जानवर और अतुलनीय विभिन्नताओं वाले चारों ओर के संसार का निर्माण माया के द्वारा होता है तथा यह परम पुरुष की इच्छा और आज्ञा से ही होता है।

रवि- तो क्या प्रकृति को आधुनिक विज्ञान के अनुसार ऊर्जा और माया को शक्ति कहा जा सकता है?
बाबा- तुम लोग जानते हो कि ऊर्जा का अर्थ है कार्य करने की क्षमता और शक्ति का अर्थ है कार्य करने की दर। अतः जब प्रकृति अपनी आदिकालीन सुप्तावस्था में होती है और निर्माण व्यक्त नहीं होता तब वह अपने पोटेंशियल फार्म (potential form) में और जब निर्माण कार्य प्रारंभ करने लगती है तब उसे कायनेटिक फार्म (kinetic form) में कहा जा सकता है। कायनेटिक फार्म में माया के द्वारा समय के सापेक्ष किये गये कार्य को शक्ति कहते हैं।

राजू- क्या इसे ही ‘‘महामाया‘‘ कहते हैं?
बाबा- निर्माण के क्षेत्र में रचनात्मक भूमिका की अनेकता होने के कारण माया की अनेक अभिव्यक्तियां होती हैं। महामाया उनमें से एक है, जब भीतर और बाहर परम निर्माण सत्ता अपना रचनाधर्म जारी रखती है तो वह सत्ता जो गतिशीलता का वाह्य प्रभाव वनाये रखती है, वह ‘‘महामाया‘‘ कहलाती है। इस माया के प्रचंड प्रभाव के कारण ब्राह्मिक मन और पंच भूतों का निर्मााण होता है। इसके ही प्रभाव से प्रत्येक अणु और परमाणु सब अपने रूपान्तरण और परिवर्तन के स्तरों पर निर्धारित पथ का अनुसरण करते हैं और इकाई जीवों और इकाई मन अर्थात् चित्त, महत्, अहम आदि में बदलते रहते हैं। महामाया के प्रभाव से ही निर्जीव और सजीव संसार का निर्माण होता है। इसके विना सबकी सुप्त क्षमतायें विना किसी आकार के ही रह जावेंगी। ‘सर्वरूपमयी देवी सर्वं देवीमयं जगत, ततोहम विश्वरूपम् तम नमामी परमेश्वरीम्।‘ अर्थात् विश्व  का सभीकुछ उस महामाया के ही विभिन्न रूप है, मैं उस  विश्वरूप वाली महामाया को प्रणाम करता हूॅं।

नन्दू- तो फिर ‘‘विष्णुमाया‘‘ क्या है?
बाबा- जब वही माया अपनी बदली भूमिका में अपनी अतुलनीय रचनायें अंतहीनरूप से निर्मित करते हुए उनकी सुंदरता और आकर्षण में तल्लीन रहती है तो उसे विष्णु माया कहते हैं। विष्णु का अर्थ है सर्वव्याप्त सत्ता, अतः विष्णुमाया का अर्थ है जो इस अंतहीन संसार के प्रत्येक अणु परमाणु से अभिन्न रूपसे जुड़ी हुई है। भक्तों का एक समूह इस सर्वव्यापी विष्णु माया से ही अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये अनेक प्रकार से अनुनय विनय करते रहते हैं, ‘‘ त्वम वैष्णवी शक्तिर्नन्तवीर्या,  विश्वस्य वीजम् परमौसि माया, संम्मोहितम देवी समस्तमेतद, त्वम वै प्रसन्नभूवि मुक्ति हेतुः।‘‘ अर्थात् हे  अनन्त समर्थ्य वाली और विश्व को जन्म देनेवाली सर्वव्याप्त माया तुमने इस व्यक्त जगत को मोहित कर रखा है, मैं अपनी मुक्ति हेतु तुम्हें प्रसन्न करने के लिये प्रार्थना करता हॅूं ।

चंदु- कहीं कहीं ‘‘ अनुमाया‘‘ शब्द भी पाया जाता है क्या यह भिन्न है?

बाबा-प्रत्येक इकाई मन में रहने वाली रचनात्मक शक्ति को अनुमाया कहते हैं। इसके प्रभाव से सभी जीव अपने अपने वर्तमान भूत और भविष्य के रंगीन विचारों में व्यस्त बने रहते हैं। कुछ विचारों को वाह्य संसार में आकार मिल जाता है और कुछ मन में आते ही नष्ट हो जाते हैं। इसी के प्रभाव से अनेक लोग लुभावने भविष्य की आषा से जानलेवा व्यवधानों से संघर्ष करते  आगे बढ़ते रहते हैं। धन, दौलत, नाम और यश  भी मानव मन के भीतर रहने वाली अनुमाया के प्रभाव से प्राप्त होते हैं।

राजू- गीता में ‘‘योगमाया‘‘ का नाम भी आया है?
बाबा-जब परमाप्रकृति जीवधारियों को परमपुरुष की ओर ले जाती है तो उसे योगमाया कहते हैं। यह संसार संचर और प्रतिसंचर के प्रवाह में लगातार परिवर्तित हो रहा है। ब्राह्मिक मन के अपकेन्द्र बल से पंच भूत और अभिकेन्द्र बल से इकाई मन और उनमें जीवन का निर्माण हुआ है। मानव मन के द्वारा योगमाया का प्रभाव अधिक स्पष्ट अनुभव किया जाता है। सूक्ष्म जीवों को परम सत्ता तक ले जाने के प्रयास में वह इकाई मन को ब्राह्मिक मन से एकीकृत कराने हेतु लगातार जुटी रहती है।

रवि- और आपने तो अनेक बार ‘‘अविद्या माया‘‘ तथा ‘‘विद्यामाया‘‘ के बारे में चर्चा की है?
बाबा- परमा प्रकृति जो जीवों को सूक्ष्मता से जड़ता ही ओर ले जाती है ‘‘अविद्यामाया‘‘ कहलाती है। सृजन  की संचर क्रिया अविद्यामाया से ग्रस्त रहती है। यह मानव मन को दो प्रकार से प्रभावित करती है दार्शनिक  रूप से एक को विक्षेपीशक्ति और दूसरी को आवरणीशक्ति कहते हैं। जब मनुष्य जड़ पदार्थ का चिंतन  करता है तो उसका मन परम सत्ता से हट जाता है और आध्यात्मिक  जागरूकता धूमिल होने लगती है यह ‘विक्षेपशक्ति‘ के कारण होता है। यदि कोई व्यक्ति किसी के पास रहता है तो जरूरी नहीं कि वह उसके संबंध में सब कुछ जान ही ले जैसे , कोई वस्तु कपड़े में लपेटकर किसी के पास रखी रहे तो उसे कुछ भी पता नहीं हो सकता कि वह क्या है जब तक उसका कपड़ा न हटाया जावे। यह प्रभाव ‘आवरणीशक्ति‘ का होता है वह ज्ञान पर परदा डाल देती है। अंधेरे में  किसी वस्तु का सही ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता भले ही अस्पष्ट विचार बन जावे। अविद्यामाया की इन्हीं विक्षेपी और आवरणी शक्तियों के प्रभावी होने के कारण परम सत्ता के संबंध में मन, विभक्त विचार बना लेता है।

रवि- और ‘‘विद्यामाया‘‘?
बाबा- जड़ चिंतन से सूक्ष्म चिंतन की ओर जीवों को ले जाने वाली परमाप्रकृति ‘‘विद्यामाया‘‘ के नाम से जानी जाती है। इसके सहारे इकाई मन स्थायी प्रगति करता हुआ परम पुरुष की ओर बढ़ता जाता है और अविद्या का बंधन ढीला हो जाता है तथा यात्रा के समाप्त होने पर विद्या भी समाप्त हो जाती है। आध्यात्मिक प्रगति के लिये विद्यामाया की आवश्यकता पड़ती है परंतु साधना के अंतिम स्तर पर पहुंचने पर उसकी आवश्यकता नहीं रह जाती। साधना की सहायता अविद्या के द्वारा बनाये गये अंधेरे परदों को फाड़कर प्रतिसंचर के रास्ते पर बढ़ने के लिये ली जाती है। विद्यामाया अपनी दो शक्तियों के माध्यम से कार्य करती है, ‘संवित्शक्ति ‘ और ‘ह्लादनीशक्ति‘ या ‘राधिकाशक्ति‘। संवितशक्ति का काम जागरूकता लाना है वह नींद से जगा देती है और संवितशक्ति के कारण वह अपना अस्तित्व पहचान जाता है कि वह सृष्टि का शीर्ष है और उसे अविद्यामाया के आवरण को हटाकर परम सत्ता से साक्षात्कार करना है। जब यह विद्यामाया द्वारा प्रभावी बल साधक के मन में अच्छी तरह बस जाता है तो विक्षेपीशक्ति के विरुद्ध संघर्ष कर वह परमपुरुष के साथ समीपता का अनुभव करता है, इसे ह्लादनीशक्ति कहते हैं। साधकों को यह शक्ति सभी बाधाओं से पार कराते हुए आनन्द रस का अनुभव कराती है। वैष्णव लोग इसे ‘श्रीराधा‘ कहते हैं।

इंदु- इसका मतलब यह हुआ कि एक ही सत्ता, किये जाने वाले कार्य के अनुसार विभिन्न नामों से जानी जाती है?
बाबा- हाॅं, वैसे ही जैसे , एक ही व्यक्ति किसी के लिए बेटा, किसी के लिए पिता , किसी के लिए चाचा  आदि से नामित होता है । परंतु अनुमाया को छोड़ कर, चर्चा की गईं सभी प्रकार की माया ‘विश्वमाया ‘ ही कहलातीं हैं। इस प्रकार इकाई मानव और  परमपुरुष के बीच माया ने अपना गहरे काले रंग का संसार बसा दिया है यही कारण है कि लोग संसार का सही अर्थ समझ ही नहीं पाते क्योंकि उनकी आंखों के सामने यह स्पष्ट विभाजन रेखा खींची  होती है। इस शक्तिशाली माया से जूझना कठिन है पर यह माया है तो परम पुरुष की ही, अतः परमपुरुष की शरण में चले जाने वालों को माया स्वयं रास्ता दे देती है।" देवी ह्येशा  गुणमयी मममाया दुरत्यया, मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेताम् तरन्ति ते"।

राजू- जब माया इतनी शक्तिशाली है कि उससे जूझना बड़ा कठिन है तो क्या कोई रास्ता नहीं है?
बाबा- साधना का संघर्ष करने के तीन रास्ते हैं, दक्षिणाचार, वामाचार और मध्यमाचार। दक्षिणाचार में साधक प्रकृति के विरुद्ध सीधे संघर्ष करने में डरता है। वह उससे अनुनय विनय और स्तुतियों से प्रसन्न और शान्त कर मुक्ति चाहता है।  यह सोचने की महत्वपूर्ण बात है कोई शक्तिशाली व्यक्ति चापलूसी और गुणगान से प्रसन्न होकर कुछ रियायत या छूट तो  दे सकता है पर पूरी स्वतंत्रता नहीं। वामाचार में विना किसी लक्ष्य के अंधाधुंध, प्रकृति के विरुद्ध संग्राम छेड़कर विजय प्राप्त कर साधक मुक्त होना चाहता है, पर इसमें उनका साहस प्रशंसनीय भले हो पर लक्ष्य का निर्धारण न होने से साधक बीच में ही भटक जाता है और अपने घोर पराक्रम से अर्जित शक्तियों का दुरुपयोग कर बैठता है और असफल रहता है और जानबूझकर पाश्विक  स्तर तक गिर जाता है। मध्यमाचार में साधक का लक्ष्य ब्रहम प्राप्ति का होने से वह ब्रह्मज्योति के सहारे अविद्या के अंधेरे पर्दों को चीर कर आगे बढ़ता है और अपने लक्ष्य को पा जाता है।

चंदु- क्या योग विज्ञान और तन्त्र, मध्यमाचार के अंतर्गत आते हैं?
बाबा- हाॅं, योग विज्ञान तथा तन्त्र में मानव शरीर को ही उस परम सत्ता तक पहुंच पाने का साधन माना गया है जिसमें ‘स्पाइनल कार्ड‘ के निम्नतम भाग को क्रमशः फंडामेंटल नेगेटिविटी (fundamental positivity) और मूलाधार चक्र तथा सिर के उच्चतम भाग को फंडामेंटल पाजीटिविटी(fundamental negativity) और सहस्त्रार चक्र कहा जाता है । इस स्पाइनल कार्ड के बीच में भी अनेक भागों पर अनेक ऊर्जा केन्द्र होते हैं जिन्हें प्लेक्सस (plexus) या चक्र कहा जाता है। मूलाधार में फंडामेंटल नेगेटिविटी के रूप में माया, जिसे तन्त्र में कुलकुंडलनी कहा जाता है, अपनी सुप्त अवस्था अर्थात् पोटेशियल फार्म में रहती है जिसे अपनी मूल आवृत्ति से आघात कर साधक उसे चैतन्य (activate) करता है और विभिन्न ऊर्जा केन्द्रों को क्रास करते हुए फंडामेंटल पाजीटिविटी अर्थात् सहस्त्रार तक ले जाता है जहाॅं अनुनाद होने पर वह परम पुरुष के साथ साक्षात्कार करता है। मानव जीवन का यही लक्ष्य है।

नन्दू- अब प्रश्न  यह है कि शक्तिशाली माया के बंधनों से मुक्त होने के लिये किसकी शरण ली जावे? किसे आश्रय के रूप में स्वीकार किया जावे?
बाबा- वेदों में कहा गया है कि
 ‘क्षरमप्रधानम् अम्रताक्षरम हरः, क्षारात्मनाविशते देव एकः,
 तस्याविध्यानद योजनात् तत्वभावाद् भूयशान्ते  विश्वमायानिवृत्तिः।‘
अर्थात् जब पुरुष को, प्रकृति अपने प्रभाव से इस संसार में परिवर्तित करती है तो जो भाग रूपान्तरित हो जाता है उसे क्षर कहते हैं। अतः संसार के संबंध, धन, दौलत और जमीन आदि सभी क्षर हैं इसलिये इनका लक्ष्य बना कर प्रकृति से संघर्ष करना व्यर्थ है। अक्षर, वह भाग है जो परिवर्तित नहीं होता और प्रकृति के साथ साक्षीसत्ता के रूप में रहता है। क्षर और अक्षर के अलावा एक और सत्ता होती है जिसे पुरुषोत्तम कहते हैं। परमचेतना जब तमोगुण के प्रभाव में होती है तब उसे प्रज्ञा कहते हैं। ईश्वर  भाव पुरुषोत्तम की विशेष अवस्था है इसे साधना
 की जरूरत नहीं होती। परंतु प्रज्ञा अर्थात् इकाई चेतना, प्रकृ्रति के तमोगुण के प्रभाव के विरुद्ध अपना संग्राम जारी रखती है और जब संघर्ष में सफल हो जाती है तो वह परमात्मा में मिल जाती है। परंतु प्रकृति के विरुद्ध संग्राम छेड़ने से पहले योग्य व्यक्ति से उसकी विधि सीखना पड़ती है। यह योग्यता सद्गुरु में ही होती है और सद्गुरु ब्रह्म के अलावा कोई नहीं हो सकता है। इसलिये कहा गया है कि मुक्तयाकांक्षया सदगुरु प्राप्तिः, अर्थात् मुक्ति की  तीव्र इच्छा/आकांक्षा होने पर ब्रह्म ही सद्गुरु के रूप में दीक्षा देते हैं।  इसलिये आध्यात्म के क्षेत्र में इस माया से संघर्ष करने में पद पद पर सहायक सद्गुरु और दीक्षा का बहुत महत्व है।

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