8 . 9 जन्म मृत्यु और संस्कार ,( पिछली पोस्ट से आगे )
यह तो हुआ भौतिक मृत्यु का वर्णन अब देखते हैं मनुष्य का जन्म किस प्रकार होता है।
जो हम भोजन करते हैं उसका सार तत्व रस में, रस खून में, खून माॅंस में, मास का सार तत्व मेद में, मेद अर्थात् वसा इसी क्रम में तब तक रूपान्तरित होता है तब तक हड्डी में और अंततः शुक्र में न बदल जाये। भौतिक शरीर इन सात पदार्थों से बनता है, शुक्र जिनका अंतिम सारतत्व है। इस जीवन्त तरल(vital fluid) के तीन स्तर होते हैं, लिंफ या प्राणरस या लसिका, स्पर्मेटोजोआ और सेमिनल फ्लुड। लिंफ, आर्टरीज के साथ रहने वाली लिंर्फेिटक वेसिल्स के द्वारा दाब डलता है । शरीर में लिंफ का काम शरीर को सुंदरता देना और खून को साफ करना और ग्रंथियों में प्रवेश कर हारमोन्स का उचित स्राव करने में मदद करना होता है। लिंफ, ऊपर मस्तिष्क में जाकर उसे प्रबल बनाता है अतः बौद्धिक काम करने वालों के लिये पर्याप्त मात्रा में लिंफ प्राप्त करना आवश्यक है। इसकी कमी से अनेक जटिलतायें जन्म ले लेती हैं। गर्म देशों में 12 से 14 वर्ष में और ठंडे देषों में 13 से 16 वर्ष में कुछ नाड़ी ग्रंथियां सक्रिय हो जाती हैं जो मस्तिष्क की आवश्यकता से अतिरिक्त लिंफ को, पुरुषों में टेस्टीज को और महिलाओं में ओवरीज को भेज देती हैं। पुरुषों में यह अतिरिक्त लिंफ स्पर्मेटोजोआ में और महिलाओं में ओवा में बदल जाता है। पुरुष के स्पर्म और महिला के ओवा मिलने पर नया शरीर निर्मित करते हैं। गर्भ में, इस प्राथमिक रचना में स्पर्म के संवेग के कारण ऊर्जा होती है और उससे तरंगे उत्सर्जित होती रहती हैं। पूर्व में कहे गये विच्छेदित मन जिसमें अपने संचित संस्कार होते हैं और वे अपनी तरंगे उत्सर्जित कर अनुकूल तरंगों वाली रचना को पाकर संतुलन स्थापित हो जाने पर उसमें प्रवेश कर जाते हैं जहाॅं वे अपने को प्रदर्शित कर पाते हैं। इस प्रकार कास्मिक रजोगुण की सहायता से वह विच्छेदित मन, माॅं के गर्भ में नया शरीर पा जाता है इस प्रकार भौतिक जीवन अस्तित्व में आता हैं।
इस विवरण से स्पष्ट है कि यह ब्रह्माॅंड सगुण ब्रह्म की मानसिक तरंगों का प्रवाह है जो संचर और प्रतिसंचर गतियों में लगातार गतिशील रह कर ब्रह्मचक्र कहलाता है। हमारा जीवन केवल इसी जन्म और मृत्यु तक सीमित नहीं है वरन् वह ब्रह्मचक्र के सभी स्तरों की पूर्वोक्त तरंगों अर्थात् स्पेस टाइम में बंधकर गेेलेक्सियों तारों और पंचभूतों के साथ पौधों और प्राणियों में से होता हुआ अभी इस स्तर पर आ पाया है और उसे अपने मूल उद्गम (origin) तक पहुॅंचना है तभी उसकी यह यात्रा पूरी होगी। मनुष्य के स्तर पर आकर यह स्वतंत्रता है कि या तो बचा हुआ रास्ता आगे बढ़कर पूरा करे या पीछे लौट कर इन्हीं जीवजंतुओं और पेड़पौधों में से होकर फिर से लाखों वर्षों तक ठोस द्रव गैस और प्लाज्मा अवस्थाओं में भटकता रहे। चूंकि यह जन्म पिछले लाखों जन्मों का परिणाम है अतः स्वाभाविक रूप से उन सबके अभुक्त संस्कारों का बोझ हमें ढोते जाना होगा जब तक कि वे समग्रतः समाप्त नहीं हो जाते। यह संस्कार हमारे सोच विचार और कर्मों के अनुसार लगातार प्रत्येक क्षण बनते और क्षय होते रहते हैं। इन संस्कारों से मुक्त होना तभी संभव हो सकता है जब नये संस्कार बन ही न पायें और पुराने जल्दी से जल्दी समाप्त हो जायें। मृत्यु के समय जिस प्रकार के संस्कारों का समूह भोगने के लिये बचा रहेगा उसी के अनुसार अनुकूल अवसर आने पर ही प्रकृति हमें उस प्रकार का शरीर उपलब्ध करायेगी और तब तक हमें अपने संस्कारों का बोझ लादकर मानसिक शरीर या सूक्ष्म शरीर (luminous body) में रहते हुए ही आकाश (space) में भटकते रहना होगा। साधना ही वह प्रक्रिया है जिसका अनुसरण कर हम नये संस्कारों को जन्म लेने से रोक सकते हैं और पुराने संस्कारों को शीघ्रातिशीघ्र समाप्त कर सकते हैं, संस्कारों के शून्य हो जाने पर हम वापस अपने असली घर में पहुंच जाते हैं जो देश , काल (space-time) से मुक्त परमानन्द अवस्था है। साधना क्या है और कैसे की जाती है यह कौल गुरु ही सिखा सकते हैं वे बताते हैं कि किस प्रकार व्यक्ति विशेष के द्वारा, ब्राह्मिक भाव लेकर कार्य करने से नये संस्कार जन्म नहीं ले पाते , किस प्रकार के इष्ट मंत्र से पिछले सभी संस्कारों को अभ्यास द्वारा क्षय किया जाता है और हमारे इस मानव शरीर में प्रसुप्त देवत्व को जाग्रत कर हम कैसे अपने चिदानन्द स्वरूप को पा सकते हैं। साधना करने के लिये सबसे उपयुक्त षरीर मनुष्य का ही है अन्य किसी भी प्राणी का नहीं अतः इसका अधिकतम लाभ लेना चाहिये न कि साॅंसारिक आकर्षण में उलझकर स्नायविक आनन्द को ही सब कुछ मानते हुए यहीं भटकते रहना। पिछले खंडों में तथा ऊपर दिये विवरण में भी लिंफ का महत्व समझाया गया है। यह पुनरुत्पादन करने और प्रसुप्त देवत्व को जगाने, दोनों के लिये उपयोगी है, इसलिये इसका कुशलता से उपयोग और संरक्षण करना चाहिये। चूंकि यह भोजन का सारतत्व ही होता है अतः हमें उपयुक्त सात्विक भोजन कर इसे अपने मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिये उपयोग करना चाहिये क्योंकि वास्तव में यह मस्तिष्क का ही भोजन है। मस्तिष्क के लिये आवश्यक भोजन से अतिरिक्त लिंफ का उपयोग संतानोत्पत्ति के लिये किया जा सकता है। वैज्ञानिक अनुसंधान यह सिद्ध करते हैं कि एक माह में किये गये पोषणयुक्त सात्विक भोजन से 26 दिन के भोजन से बनने वाला लिंफ केवल मस्तिष्क के सैलों को सक्रिय बनाये रखने के लिये आवश्यक होता है और शेष 4 दिन के भोजन से उत्पन्न लिंफ ही अतिरिक्त होता है जो आवश्यक होने पर ही संतानोत्पत्ति के लिये प्रयुक्त किया जाना चाहिये अन्यथा उसका संरक्षण करने के लिये माह में चार दिन निर्जल उपवास करना चाहिये। संन्यासियों के यों को निर्जल उपवास करना ही चाहिये जिससे अतिरिक्त लिंफ संरक्षित रहकर मस्तिष्क की सक्रियता में प्रयुक्त किया जा सके और मन में असात्विक विचार न आ सकें। यह स्वयंसिद्ध है कि यदि चार दिन के अतिरिक्त लिंफ से अधिक का दुरुपयोग किया जाता है तो निश्चय ही अवशेष लिंफ मस्तिष्क को आवश्यक भोजन के लिये कम पड़ेगा जिससे अन्य मानसिक और शारीरिक विषमतायें जन्म लेकर समाज में विद्रूपता (डेफोर्मेशन ) उत्पन्न करेंगी।
यहाॅं एक महत्वपूर्ण बात ध्यान में यह रखना चाहिये कि मन में चाहे सात्विक या असात्विक कैसे भी विचार क्यों न आयें और उन्हें कार्य में परिणित किया गया हो या नहीं उनके संस्कार तो बन ही जाते हैं और वे अपना क्रम आने पर अवश्य कार्य रूप लेते हैं चाहे इसके लिये कितने ही जन्मों की प्रतीक्षा क्यों न करना पड़े। अतः मन में विचार भी बड़ी सावधानी से करना चाहिये ताकि प्रतिकूल संस्कार न बनें, साधना का करने की प्रथम आवश्यक शर्त यही है।
यह तो हुआ भौतिक मृत्यु का वर्णन अब देखते हैं मनुष्य का जन्म किस प्रकार होता है।
जो हम भोजन करते हैं उसका सार तत्व रस में, रस खून में, खून माॅंस में, मास का सार तत्व मेद में, मेद अर्थात् वसा इसी क्रम में तब तक रूपान्तरित होता है तब तक हड्डी में और अंततः शुक्र में न बदल जाये। भौतिक शरीर इन सात पदार्थों से बनता है, शुक्र जिनका अंतिम सारतत्व है। इस जीवन्त तरल(vital fluid) के तीन स्तर होते हैं, लिंफ या प्राणरस या लसिका, स्पर्मेटोजोआ और सेमिनल फ्लुड। लिंफ, आर्टरीज के साथ रहने वाली लिंर्फेिटक वेसिल्स के द्वारा दाब डलता है । शरीर में लिंफ का काम शरीर को सुंदरता देना और खून को साफ करना और ग्रंथियों में प्रवेश कर हारमोन्स का उचित स्राव करने में मदद करना होता है। लिंफ, ऊपर मस्तिष्क में जाकर उसे प्रबल बनाता है अतः बौद्धिक काम करने वालों के लिये पर्याप्त मात्रा में लिंफ प्राप्त करना आवश्यक है। इसकी कमी से अनेक जटिलतायें जन्म ले लेती हैं। गर्म देशों में 12 से 14 वर्ष में और ठंडे देषों में 13 से 16 वर्ष में कुछ नाड़ी ग्रंथियां सक्रिय हो जाती हैं जो मस्तिष्क की आवश्यकता से अतिरिक्त लिंफ को, पुरुषों में टेस्टीज को और महिलाओं में ओवरीज को भेज देती हैं। पुरुषों में यह अतिरिक्त लिंफ स्पर्मेटोजोआ में और महिलाओं में ओवा में बदल जाता है। पुरुष के स्पर्म और महिला के ओवा मिलने पर नया शरीर निर्मित करते हैं। गर्भ में, इस प्राथमिक रचना में स्पर्म के संवेग के कारण ऊर्जा होती है और उससे तरंगे उत्सर्जित होती रहती हैं। पूर्व में कहे गये विच्छेदित मन जिसमें अपने संचित संस्कार होते हैं और वे अपनी तरंगे उत्सर्जित कर अनुकूल तरंगों वाली रचना को पाकर संतुलन स्थापित हो जाने पर उसमें प्रवेश कर जाते हैं जहाॅं वे अपने को प्रदर्शित कर पाते हैं। इस प्रकार कास्मिक रजोगुण की सहायता से वह विच्छेदित मन, माॅं के गर्भ में नया शरीर पा जाता है इस प्रकार भौतिक जीवन अस्तित्व में आता हैं।
इस विवरण से स्पष्ट है कि यह ब्रह्माॅंड सगुण ब्रह्म की मानसिक तरंगों का प्रवाह है जो संचर और प्रतिसंचर गतियों में लगातार गतिशील रह कर ब्रह्मचक्र कहलाता है। हमारा जीवन केवल इसी जन्म और मृत्यु तक सीमित नहीं है वरन् वह ब्रह्मचक्र के सभी स्तरों की पूर्वोक्त तरंगों अर्थात् स्पेस टाइम में बंधकर गेेलेक्सियों तारों और पंचभूतों के साथ पौधों और प्राणियों में से होता हुआ अभी इस स्तर पर आ पाया है और उसे अपने मूल उद्गम (origin) तक पहुॅंचना है तभी उसकी यह यात्रा पूरी होगी। मनुष्य के स्तर पर आकर यह स्वतंत्रता है कि या तो बचा हुआ रास्ता आगे बढ़कर पूरा करे या पीछे लौट कर इन्हीं जीवजंतुओं और पेड़पौधों में से होकर फिर से लाखों वर्षों तक ठोस द्रव गैस और प्लाज्मा अवस्थाओं में भटकता रहे। चूंकि यह जन्म पिछले लाखों जन्मों का परिणाम है अतः स्वाभाविक रूप से उन सबके अभुक्त संस्कारों का बोझ हमें ढोते जाना होगा जब तक कि वे समग्रतः समाप्त नहीं हो जाते। यह संस्कार हमारे सोच विचार और कर्मों के अनुसार लगातार प्रत्येक क्षण बनते और क्षय होते रहते हैं। इन संस्कारों से मुक्त होना तभी संभव हो सकता है जब नये संस्कार बन ही न पायें और पुराने जल्दी से जल्दी समाप्त हो जायें। मृत्यु के समय जिस प्रकार के संस्कारों का समूह भोगने के लिये बचा रहेगा उसी के अनुसार अनुकूल अवसर आने पर ही प्रकृति हमें उस प्रकार का शरीर उपलब्ध करायेगी और तब तक हमें अपने संस्कारों का बोझ लादकर मानसिक शरीर या सूक्ष्म शरीर (luminous body) में रहते हुए ही आकाश (space) में भटकते रहना होगा। साधना ही वह प्रक्रिया है जिसका अनुसरण कर हम नये संस्कारों को जन्म लेने से रोक सकते हैं और पुराने संस्कारों को शीघ्रातिशीघ्र समाप्त कर सकते हैं, संस्कारों के शून्य हो जाने पर हम वापस अपने असली घर में पहुंच जाते हैं जो देश , काल (space-time) से मुक्त परमानन्द अवस्था है। साधना क्या है और कैसे की जाती है यह कौल गुरु ही सिखा सकते हैं वे बताते हैं कि किस प्रकार व्यक्ति विशेष के द्वारा, ब्राह्मिक भाव लेकर कार्य करने से नये संस्कार जन्म नहीं ले पाते , किस प्रकार के इष्ट मंत्र से पिछले सभी संस्कारों को अभ्यास द्वारा क्षय किया जाता है और हमारे इस मानव शरीर में प्रसुप्त देवत्व को जाग्रत कर हम कैसे अपने चिदानन्द स्वरूप को पा सकते हैं। साधना करने के लिये सबसे उपयुक्त षरीर मनुष्य का ही है अन्य किसी भी प्राणी का नहीं अतः इसका अधिकतम लाभ लेना चाहिये न कि साॅंसारिक आकर्षण में उलझकर स्नायविक आनन्द को ही सब कुछ मानते हुए यहीं भटकते रहना। पिछले खंडों में तथा ऊपर दिये विवरण में भी लिंफ का महत्व समझाया गया है। यह पुनरुत्पादन करने और प्रसुप्त देवत्व को जगाने, दोनों के लिये उपयोगी है, इसलिये इसका कुशलता से उपयोग और संरक्षण करना चाहिये। चूंकि यह भोजन का सारतत्व ही होता है अतः हमें उपयुक्त सात्विक भोजन कर इसे अपने मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिये उपयोग करना चाहिये क्योंकि वास्तव में यह मस्तिष्क का ही भोजन है। मस्तिष्क के लिये आवश्यक भोजन से अतिरिक्त लिंफ का उपयोग संतानोत्पत्ति के लिये किया जा सकता है। वैज्ञानिक अनुसंधान यह सिद्ध करते हैं कि एक माह में किये गये पोषणयुक्त सात्विक भोजन से 26 दिन के भोजन से बनने वाला लिंफ केवल मस्तिष्क के सैलों को सक्रिय बनाये रखने के लिये आवश्यक होता है और शेष 4 दिन के भोजन से उत्पन्न लिंफ ही अतिरिक्त होता है जो आवश्यक होने पर ही संतानोत्पत्ति के लिये प्रयुक्त किया जाना चाहिये अन्यथा उसका संरक्षण करने के लिये माह में चार दिन निर्जल उपवास करना चाहिये। संन्यासियों के यों को निर्जल उपवास करना ही चाहिये जिससे अतिरिक्त लिंफ संरक्षित रहकर मस्तिष्क की सक्रियता में प्रयुक्त किया जा सके और मन में असात्विक विचार न आ सकें। यह स्वयंसिद्ध है कि यदि चार दिन के अतिरिक्त लिंफ से अधिक का दुरुपयोग किया जाता है तो निश्चय ही अवशेष लिंफ मस्तिष्क को आवश्यक भोजन के लिये कम पड़ेगा जिससे अन्य मानसिक और शारीरिक विषमतायें जन्म लेकर समाज में विद्रूपता (डेफोर्मेशन ) उत्पन्न करेंगी।
यहाॅं एक महत्वपूर्ण बात ध्यान में यह रखना चाहिये कि मन में चाहे सात्विक या असात्विक कैसे भी विचार क्यों न आयें और उन्हें कार्य में परिणित किया गया हो या नहीं उनके संस्कार तो बन ही जाते हैं और वे अपना क्रम आने पर अवश्य कार्य रूप लेते हैं चाहे इसके लिये कितने ही जन्मों की प्रतीक्षा क्यों न करना पड़े। अतः मन में विचार भी बड़ी सावधानी से करना चाहिये ताकि प्रतिकूल संस्कार न बनें, साधना का करने की प्रथम आवश्यक शर्त यही है।
बहुत ही अच्छा लेख है| पूरी वैज्ञानिकता के साथ विषय रखा गया है |
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Deleteआशीष कुमार प्यासी मो-+091-8319220533/+091-9669938129 ashishkumarpyasi94845@gmail.com ashishkumarPyasi129@gmail.com
Deleteसमधिकारसेवा संयुक्तहितविकास आदर्शचरित्रजनसंघएकता जन जागरुकता अभियान परिषद् जानकारी एवं सूचना सन्देश पोस्ट साझा करें देश हित में।
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