(द) भगवान शिव, कृष्ण और आनन्दमूर्ति :
हजारों वर्ष पुरानी मानव सभ्यता में जब जब भी जटिलता और दिशा हीनता आई वहीं निर्पेक्ष परम सत्ता सगुण रूपमें आकर मनुष्यों को सही दिशा दिखाती रही है। भगवान सदाशिव आज से सात हजार वर्ष पहले तारक ब्रह्म के रूपमें आये और मानव सभ्यता में पनप रही विद्रूपता और शोषण को तात्कालिक आवश्यकता के अनुसार बल , बुद्धि और विवेक के अनुसार नई दिशा दी। विशेष व्यवस्था के अनुसार जीवन यापन करने अर्थात् ‘‘विवाह‘‘ नामक सामाजिक व्यवस्था उन्होंने ही स्थापित की। अलग अलग लोगों के अलग अलग कौशल को मान्यता देकर किसी को कृषि कार्य में, किसी को पशुपलन में, किसी को व्यवसाय में , किसी को रक्षा कार्य में, किसी को बौद्धिक कार्यों में प्रशिक्षित कर समाज सेवा में आगे बढ़ने की शिक्षा दी। इतना ही नहीं मानव स्वभाव के मनोवैज्ञानिक पक्ष का अध्ययन कर तन्त्रविज्ञान, वैद्यकशास्त्र, संगीत और भवन निर्माण कला में विशेष योग्यता देकर क्रमशः भैरव, धनवन्तरी, भरत मुनि और विश्वकर्मा को प्रशिक्षित कर सारे विश्व को सिखाने का दायित्व सौंपा। अलग अलग मतों और संकीर्ण विचारों में अपने अपने को श्रेष्ठ करने में संघर्षरत तत्कालीन आर्य, मंगोल और द्रविड़ तीनों को एकीकृत करने का कार्य उन्होंने ही किया। उनकी विशेषता यह थी कि वे जनजन में इतने लोकप्रिय थे कि सब उन्हें अपना निकटतम संबंधी , अत्यंत हितैषी और संरक्षक, हर समस्या का तत्काल समाधान करने वाला, मानकर पूजने लगे। इसके बाद आज तक हजारों मतों और संप्रदायों का समाज में आगमन हुआ पर शिव को अलग करने का किसी का साहस नहीं हुआ। यही उनकी महानता का परिचय है, वे महासंभूति थे। आज, लोग उनके इन कार्यों को भूल कर केवल उनकी मूर्ति बनाकर पानी, धतूरे और अन्य विषैले पदार्थ चढ़़ा कर अपनी भक्ति प्रदर्शित करते हैं और उनके द्वारा सिखाई गई तान्त्रिक साधना पद्धति को भूलचुके हैं, कितनी मूर्खता है।
इसी क्रम में आज से तीन हजार पाॅंचसौ वर्ष पहले महासंभूति कृष्ण का प्रादुर्भाव हुआ। उनके कार्यों से सभी परिचित हैं। तात्कालिक समाज में स्वार्थ और अहंकार का साम्राज्य छोटे छोटे राज्यों में , समग्र विश्व में फैलकर मानवता को जड़ से समाप्त करने तुला था। कृष्ण ने मानव सभ्यता की रक्षा के लिये सभी को एकीकृत कर महाभारत बनाया और छल बल कौशल तीनों की जहाॅं जितनी आवश्यकता हुई उनका उपयोग किया। कर्म करो और फल की इच्छा का त्याग करो यही उनका मूल मंत्र था। आघ्यात्मिक उन्नति के लिये अष्टाॅंग योग का नये ढंग से प्रतिपादन किया और बतलाया कि ज्ञानपूर्वक कर्म करने से ही भक्ति उत्पन्न की जा सकती है अन्य सब तो केवल आडम्बर है। भगवान कृष्ण के ज्ञान, कर्म और भक्ति के समन्वय ने समाज को आत्मोन्नति के लिये नया रास्ता दिखाया और वे महासंभूति के साक्षात स्वरूप कहलाये। पर आज लोगों ने उन्हें क्या से क्या बना दिया और उपासना पद्धतियों में भी मनमाना परिवर्तन कर दिया और चाहने लगे कि कृष्ण उन्हें मोक्ष दे देंगे। कितना आश्चर्य है। भगवान सदाशिव और कृष्ण के संबंध में विस्तार से अध्याय चार ‘‘महासंभूतियाॅं‘‘ नामक खंडशीर्षक में समझाया गया है।
आज के वैज्ञानिक युग में मानवता फिर कराह रही है, अनाचार और अनैतिक कार्य समाज में अपना वर्चस्व बनाये हुए हैं, कोई भी सुरक्षित नहीं है, महिलायें खिलौना बन चुकी हैं, शोषण, अत्याचार और भृष्टाचार सभी सदाचार के पर्याय बन गये हैं, धर्म, आडम्बर और कपट का आधार बन गया है। इस दशा में फिर से मानवता की प्रतिष्ठा वापस दिलाने, धर्मराज्य की स्थापना करने, विज्ञान धर्म और नैतिकता को मानवता से संलग्न करने और विश्व को महाविश्व बनाने का संकल्प लेकर परम गुरु श्रीश्री आनन्दमूर्ति जी इस धूलधूसरित धरा को पवित्र करने महासंम्भूति और तारक ब्रह्म के रूप में आये । अन्य संभूतियों ने शस्त्र उठाकर ही मानवता और हमारा कल्याण किया जबकि श्रीश्री आनन्दमूर्ति ने शास्त्र से। यहाॅं एक बार फिर बता दें कि तारक ब्रह्म और महासंभूति दार्शनिक पद हैं, वे महात्मा जो कभी हमारी तरह ही संस्कारों में बद्ध होकर धरती पर जन्म लिये पर अपनी उन्नत साधना के बल पर उस निर्पेक्ष परमचैतन्य सच्चिदानन्द अवस्था को इसी जन्म में अनुभव कर मानव समाज के कल्याण हेतु स्वेच्छा से संकल्प लेकर सगुण ब्रह्म की सहायतार्थ कुछ अधिक काल तक भौतिक शरीर धारण किये रहे और अपना संकल्प पूरा करने के बाद महाप्रयाण कर गये वे महान आत्मा, महासंभूति या तारक ब्रह्म कहलाते हैं। आज महासंभूति श्रीश्री आनन्दमूर्ति की शिक्षायें सभी के लिये अनुकरणीय हैं और उनके मनोआत्मिक सिद्धान्त और प्रक्रियाएं वैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिकों के लिये शोध का विषय हैं। मानव कल्याण के लिये जितने समय का उन्होने संकल्प लिया था उसके एक एक सेकेंड का उपयोग उन्होंने किया और लगातार चैबीसों घंटे काम करते रहे। जीवन में प्रमासंवृद्धि, प्रमारिद्धि और प्रमासिद्धि के लिये उन्होंने कोई भी क्षेत्र नहीं छोड़ा जिसमें उचित कार्य करने के दिशा निर्देश न दिये हों। आध्यात्म जगत के रहस्यों के अलावा शिक्षा, संगीत, व्यवसाय, कृषि, उद्योग, राजनीति, अर्थशास्त्र , वन और भूसंपदा, भूगोल, इतिहास, परामनोविज्ञान, जीवविज्ञान, माइक्रोवइटा जैसे वैज्ञानिक शोध के नये क्षेत्रों में क्या और कैसे किया जाये ताकि अधिकतम मानव समाज का हित संपन्न हो इसके स्पष्ट मार्गदर्शन उन्होंने दिये हैं। इन सबसे यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि इतना वहुआयामी व्यक्तित्व और ज्ञान संपदा का धनी साधारण व्यक्ति तो नहीं हो सकता अतः वे महासंभूति ही थे। इस प्रकार उन्हें महासंभूति कहा जाना सर्वथा उचित ही कहा जायेगा। उनके द्वारा दिया गया अनन्त ज्ञान समझने के लिये यह पूरा जीवन ही कम है फिर इस लघु पुस्तक में किस प्रकार समाहित किया जा सकता है? केवल यही कहा जा सकता है कि यहाॅं जो कुछ भी कहा गया है वह उन्हीं की शिक्षाओं के कुछ कण मात्र हैं। आज आवश्यकता है उनके सिद्धान्तों और क्रिया पद्धतियों को पालन कर समाज को द्रुत गति से आगे बढ़ाने की ।
हजारों वर्ष पुरानी मानव सभ्यता में जब जब भी जटिलता और दिशा हीनता आई वहीं निर्पेक्ष परम सत्ता सगुण रूपमें आकर मनुष्यों को सही दिशा दिखाती रही है। भगवान सदाशिव आज से सात हजार वर्ष पहले तारक ब्रह्म के रूपमें आये और मानव सभ्यता में पनप रही विद्रूपता और शोषण को तात्कालिक आवश्यकता के अनुसार बल , बुद्धि और विवेक के अनुसार नई दिशा दी। विशेष व्यवस्था के अनुसार जीवन यापन करने अर्थात् ‘‘विवाह‘‘ नामक सामाजिक व्यवस्था उन्होंने ही स्थापित की। अलग अलग लोगों के अलग अलग कौशल को मान्यता देकर किसी को कृषि कार्य में, किसी को पशुपलन में, किसी को व्यवसाय में , किसी को रक्षा कार्य में, किसी को बौद्धिक कार्यों में प्रशिक्षित कर समाज सेवा में आगे बढ़ने की शिक्षा दी। इतना ही नहीं मानव स्वभाव के मनोवैज्ञानिक पक्ष का अध्ययन कर तन्त्रविज्ञान, वैद्यकशास्त्र, संगीत और भवन निर्माण कला में विशेष योग्यता देकर क्रमशः भैरव, धनवन्तरी, भरत मुनि और विश्वकर्मा को प्रशिक्षित कर सारे विश्व को सिखाने का दायित्व सौंपा। अलग अलग मतों और संकीर्ण विचारों में अपने अपने को श्रेष्ठ करने में संघर्षरत तत्कालीन आर्य, मंगोल और द्रविड़ तीनों को एकीकृत करने का कार्य उन्होंने ही किया। उनकी विशेषता यह थी कि वे जनजन में इतने लोकप्रिय थे कि सब उन्हें अपना निकटतम संबंधी , अत्यंत हितैषी और संरक्षक, हर समस्या का तत्काल समाधान करने वाला, मानकर पूजने लगे। इसके बाद आज तक हजारों मतों और संप्रदायों का समाज में आगमन हुआ पर शिव को अलग करने का किसी का साहस नहीं हुआ। यही उनकी महानता का परिचय है, वे महासंभूति थे। आज, लोग उनके इन कार्यों को भूल कर केवल उनकी मूर्ति बनाकर पानी, धतूरे और अन्य विषैले पदार्थ चढ़़ा कर अपनी भक्ति प्रदर्शित करते हैं और उनके द्वारा सिखाई गई तान्त्रिक साधना पद्धति को भूलचुके हैं, कितनी मूर्खता है।
इसी क्रम में आज से तीन हजार पाॅंचसौ वर्ष पहले महासंभूति कृष्ण का प्रादुर्भाव हुआ। उनके कार्यों से सभी परिचित हैं। तात्कालिक समाज में स्वार्थ और अहंकार का साम्राज्य छोटे छोटे राज्यों में , समग्र विश्व में फैलकर मानवता को जड़ से समाप्त करने तुला था। कृष्ण ने मानव सभ्यता की रक्षा के लिये सभी को एकीकृत कर महाभारत बनाया और छल बल कौशल तीनों की जहाॅं जितनी आवश्यकता हुई उनका उपयोग किया। कर्म करो और फल की इच्छा का त्याग करो यही उनका मूल मंत्र था। आघ्यात्मिक उन्नति के लिये अष्टाॅंग योग का नये ढंग से प्रतिपादन किया और बतलाया कि ज्ञानपूर्वक कर्म करने से ही भक्ति उत्पन्न की जा सकती है अन्य सब तो केवल आडम्बर है। भगवान कृष्ण के ज्ञान, कर्म और भक्ति के समन्वय ने समाज को आत्मोन्नति के लिये नया रास्ता दिखाया और वे महासंभूति के साक्षात स्वरूप कहलाये। पर आज लोगों ने उन्हें क्या से क्या बना दिया और उपासना पद्धतियों में भी मनमाना परिवर्तन कर दिया और चाहने लगे कि कृष्ण उन्हें मोक्ष दे देंगे। कितना आश्चर्य है। भगवान सदाशिव और कृष्ण के संबंध में विस्तार से अध्याय चार ‘‘महासंभूतियाॅं‘‘ नामक खंडशीर्षक में समझाया गया है।
आज के वैज्ञानिक युग में मानवता फिर कराह रही है, अनाचार और अनैतिक कार्य समाज में अपना वर्चस्व बनाये हुए हैं, कोई भी सुरक्षित नहीं है, महिलायें खिलौना बन चुकी हैं, शोषण, अत्याचार और भृष्टाचार सभी सदाचार के पर्याय बन गये हैं, धर्म, आडम्बर और कपट का आधार बन गया है। इस दशा में फिर से मानवता की प्रतिष्ठा वापस दिलाने, धर्मराज्य की स्थापना करने, विज्ञान धर्म और नैतिकता को मानवता से संलग्न करने और विश्व को महाविश्व बनाने का संकल्प लेकर परम गुरु श्रीश्री आनन्दमूर्ति जी इस धूलधूसरित धरा को पवित्र करने महासंम्भूति और तारक ब्रह्म के रूप में आये । अन्य संभूतियों ने शस्त्र उठाकर ही मानवता और हमारा कल्याण किया जबकि श्रीश्री आनन्दमूर्ति ने शास्त्र से। यहाॅं एक बार फिर बता दें कि तारक ब्रह्म और महासंभूति दार्शनिक पद हैं, वे महात्मा जो कभी हमारी तरह ही संस्कारों में बद्ध होकर धरती पर जन्म लिये पर अपनी उन्नत साधना के बल पर उस निर्पेक्ष परमचैतन्य सच्चिदानन्द अवस्था को इसी जन्म में अनुभव कर मानव समाज के कल्याण हेतु स्वेच्छा से संकल्प लेकर सगुण ब्रह्म की सहायतार्थ कुछ अधिक काल तक भौतिक शरीर धारण किये रहे और अपना संकल्प पूरा करने के बाद महाप्रयाण कर गये वे महान आत्मा, महासंभूति या तारक ब्रह्म कहलाते हैं। आज महासंभूति श्रीश्री आनन्दमूर्ति की शिक्षायें सभी के लिये अनुकरणीय हैं और उनके मनोआत्मिक सिद्धान्त और प्रक्रियाएं वैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिकों के लिये शोध का विषय हैं। मानव कल्याण के लिये जितने समय का उन्होने संकल्प लिया था उसके एक एक सेकेंड का उपयोग उन्होंने किया और लगातार चैबीसों घंटे काम करते रहे। जीवन में प्रमासंवृद्धि, प्रमारिद्धि और प्रमासिद्धि के लिये उन्होंने कोई भी क्षेत्र नहीं छोड़ा जिसमें उचित कार्य करने के दिशा निर्देश न दिये हों। आध्यात्म जगत के रहस्यों के अलावा शिक्षा, संगीत, व्यवसाय, कृषि, उद्योग, राजनीति, अर्थशास्त्र , वन और भूसंपदा, भूगोल, इतिहास, परामनोविज्ञान, जीवविज्ञान, माइक्रोवइटा जैसे वैज्ञानिक शोध के नये क्षेत्रों में क्या और कैसे किया जाये ताकि अधिकतम मानव समाज का हित संपन्न हो इसके स्पष्ट मार्गदर्शन उन्होंने दिये हैं। इन सबसे यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि इतना वहुआयामी व्यक्तित्व और ज्ञान संपदा का धनी साधारण व्यक्ति तो नहीं हो सकता अतः वे महासंभूति ही थे। इस प्रकार उन्हें महासंभूति कहा जाना सर्वथा उचित ही कहा जायेगा। उनके द्वारा दिया गया अनन्त ज्ञान समझने के लिये यह पूरा जीवन ही कम है फिर इस लघु पुस्तक में किस प्रकार समाहित किया जा सकता है? केवल यही कहा जा सकता है कि यहाॅं जो कुछ भी कहा गया है वह उन्हीं की शिक्षाओं के कुछ कण मात्र हैं। आज आवश्यकता है उनके सिद्धान्तों और क्रिया पद्धतियों को पालन कर समाज को द्रुत गति से आगे बढ़ाने की ।
No comments:
Post a Comment