Thursday, 7 May 2015

8.24..मन्त्र

8.24..मन्त्र

मंत्रों के संबंध में भी बड़ी ही भ्रान्तियां फैली हुई है। मंत्र की परिभाषा है ‘‘ मननात् तारयेत् यस्तु मंत्रः प्रर्कीिर्ततः‘‘ अर्थात् जिसके मनन करने से मुक्ति मिले वह मंत्र कहलाता है। यह भी कहा गया है कि ‘‘अमंत्रमक्षरं नास्ति पत्रं नास्ति निरौषधम, अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः‘‘ अर्थात् कोई भी अक्षर ऐसा नहीं है जो मंत्र न हो, कोई भी पत्ता ऐंसा नहीं जो औषाधि न हो, कोई भी व्यक्ति अयोग्य नहीं केवल पहचानने बाला ही दुर्लभ होता है। अतः वर्णमाला के 50 अक्षरों में सभी में मंत्रशक्ति है पर वह किस किस काम में लाई जा सकती है यह कौन जानता है? वैज्ञानिक सिद्धान्त भी यह कहते हैं कि प्रत्येक अक्षर की निर्धारित आवृत्ति होती है और प्रत्येक वस्तु की भी निर्धारित आवृत्ति होती है अतः उच्चारण की शुद्धता द्वारा अक्षरों अर्थात् मंत्रों, की सहायता से संबंधित बस्तुओं और व्यक्तियों को न केवल नियंत्रित किया जा सकता है वरन् उनकी आंतरिक संरचना और गुणधर्मों के संबंध में भी जाना जा सकता है। आप स्वयं देखें और विचार करें कि चाहे कोई स्वयं तथाकथित पूजा पाठ करे या तथाकथित पंडित से कराये, यदि किसी को भी मंत्र की आवृत्तियेां के बारे में कोई ज्ञान नहीं है तो उनके उस पूजा करने का क्या कोई फल प्राप्त होगा? यही कारण है कि विना आवृत्तियों के सही सही उच्चारण किये जो भी काम किये जाते हैं वे फलित नहीं होते, फिर भी सभी लोग आडंबर के वशीभूत होकर अपने अपने विश्वास के आधार पर यह कार्य जारी रखे हुए हैं। सच्चाई यही है कि जानकार व्यक्ति नहीं है, जो सच्चाई के साथ बताना भी चाहे तो लोग उसे सुनना ही नहीं चाहते क्याकि वे तो केवल वाह्य प्रदर्शन को ही महत्व देने बाले होते हैं और समय की कमी का बहाना बनाकर फार्मेलिटि निभाने में ही विश्वास करते हैं। ये व्यक्ति न केवल अपनी अधोगति करते हैं वरन् अपने से जुड़े सभी को पतन की और धकेलने के दोषी हो जाते हैं। मनोवैज्ञानिक सत्य यह है कि मनुष्य को मन होने के कारण ही मनुष्य कहा जाता है और वह इस मन की माया में ही उत्तरोत्तर उच्च आवृ्त्तियों पर कार्य करते रहने में आनंदित होता है। ये उच्च आवृत्तियां काममय और मनोमय कोष तक ही फैली रहती हैं, ज्योंही  उन आवृत्तियों को घटाने का अभ्यास किया जाता है, यही मन, अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय कोष की ओर जाने लगता है जिनमें सर्वज्ञता का खजाना छिपा रहता है पर इन कम आवृत्तियों पर अधिक देर तक रुके रहना बड़ा ही कठिन होता है अतः अधिकांश  लोग प्रारंभिक अवस्था में ही इन्हें कष्टदायी मानकर त्याग देते हैं और अपने उस प्रदर्शनकारी आरती चंदन और स्तुति आदि में ही संतुष्ठ होकर संसार का राज्य प्राप्त कर लेने का दंभ भरते हैं । स्पष्ट है कि सभी जागरूक व्यक्तियों को चाहिये कि वे इस मंत्र विज्ञान के जानकार सही  व्यक्ति के पास जाकर अपनी मूल आवृत्ति की पहचान कर लें और निर्देशानुसार मनन का अभ्यास करते हुए अतिमानस , विज्ञानमय और हिरण्यमय कोष की ओर अपने मन की गति को बढ़ाते जाकर उसे स्थिर करें जिससे उसमें वांछित आवृत्ति को उत्पन्न करने और ग्रहण करने की क्षमता प्राप्त हो सके। यह प्राप्त हो जाने पर फिर कुछ भी प्राप्त करना असंभव नहीं होगा। ध्यान रहे यही जानकार व्यक्ति  पंडित कहलाने की पात्रता रखता है अन्य नहीं।

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