Sunday 31 May 2015

8.10: मन्तव्य

8.10: मन्तव्य
चाहे वैज्ञानिक आधार हो या दार्शनिक आधार,  इस ब्रह्माॅंड के निर्माता को या ब्रह्माॅंड और इस मनुष्य जीवन को खंडों में नहीं समझा जा सकता। इसे सही ढंग से समझने के लिये समग्रता को एक साथ लेकर परखना होगा अर्थात् इस जीवन को केवल 100 या 120 वर्षों तक सीमित कर हम इसका रहस्य और उद्देश्य  नहीं समझ सकते और इसी प्रकार ब्रह्माॅंड को केवल पृथ्वी तक सीमित करने से पूरे ब्रह्माॅंड को नहीं जान सकते। यह ब्रह्माॅंड , उसका निर्माता,  हमारा जीवन और सभी प्राणियों और वनस्पतियों का जीवन परस्पर एक दूसरे से क्रमबद्ध रूपसे जुड़ा है और जहाॅं से प्रारंभ हुआ है वहीं पर समाप्त भी होता है।‘‘ मय्येव सकलं जातं, मयि सर्वं प्रतिष्ठितम, मयि सर्वं लयं याति तद्ब्रह्माद्वयमस्मयहम्‘‘। इसलिये इस चक्रात्मक यात्रा का जो मूल बिंदु है वही अंतिम बिंदु भी है उसी को पहचानने का कार्य करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य  है। यह मूल विंदु हम सबके भीतर ही केन्द्रित है और हमसब उसके भीतर, अतः इसे कहीं बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं है। भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक प्रवाह में अनन्त काल से आगे बढ़ते हुए हम मनुष्य के स्तर पर उस परम मूल बिंदु के पास ही पहुंच गये हैं परंतु भौतिक जगत का गुरुत्वाकर्षण हमें बार बार नीचे की ओर खींच लेता है क्योंकि हमारे संस्कार इतने भारी हैं कि वे इसकी सीमा को पार नहीं करने देते। इसलिये वे, जो अपने मूल बिंदु, जिसे दार्शनिक, ‘‘परमपुरुष‘‘ कहते हैं, को पाना चाहते हैं तो उन्हें पहले तो अपनी इस समग्र यात्रा में संचित पूर्व के सभी संस्कारों को शून्य करना  होगा और नये संस्कारों को बनने से रोकना होगा। इसके लिये महाकौल गुरु से अपना इष्टमंत्र और गुरुमंत्र प्राप्त करना होता है। इष्टमंत्र जाप के उचित अभ्यास से पूर्व के सभी जन्मों के संस्कार धीरे धीरे समाप्त होने लगते हैं और गुरु मंत्र के उचित प्रयोग से इस जन्म में नये संस्कार  बनना बंद हो जाते हैं। इन दोनों मंत्रों की सम्पूर्ण शक्ति का उपयोग करने के लिये शरीर के प्रत्येक ऊर्जा केन्द्र का यथा स्थान होना और उनका शुद्ध होना आवश्यक है अतः महाकौल गुरु इन की विधियाॅं को भी साथ में या कुछ दिन पूर्वोक्त बीज मंत्रों के अभ्यास करने के बाद सिखाते हैं। शरीर में प्राणों की पूरी शक्ति से क्रियशीलता बनी रहे और मन पर नियंत्रण रहे इसके लिये वे इष्ट मंत्र का प्रयोग करते हुए प्रणायाम किस प्रकार करना है इसकी विधि भी सिखाते हैं। इन सभी क्रियाओं में लगातार अभ्यास करने के बाद ध्यान की विधि सिखाई जाती है जिसके जान लेने और लगातार अभ्यास करने से ‘अपने आप‘ सहित सब कुछ जाना जा सकता है यही जीवन का लक्ष्य भी है। इसके पीछे आध्यात्म विज्ञान का सिद्धान्त, आधुनिक विज्ञान के सिद्धान्त से मेल खाता है। बीजमंत्र (fundamental frequency) यथार्थतः प्रत्येक सबंधित व्यक्ति का अपना अपना होता है जिसका अभ्यास श्वाश प्रश्वाश  के साथ करते करते मूलाधार में प्रसुप्त देवत्व जिसे तान्त्रिक भाषा में कुंडलनी (fundamental negativity) कहा गया है, पर आघात होता है जिससे वह क्रियाशील होकर ऊर्ध्व  गामी हो जाती है और विभिन्न ऊर्जा केन्द्रों जिन्हें तंत्र में चक्र (plexus) कहा गया है , को पार करते हुए सर्वोच्च स्तर सहस्त्रार (pineal gland or fundamental positivity) पर जा पहुंचती है और वहाॅं पर परमसत्ता की आवृत्ति (cosmic frequency) से मिलकर अनुनादीय स्वर(resonance) उत्पन्न करती है, (जीवविज्ञानी इस घटना को विशेष प्रकार के हारमोन्स( melatonin- a srotonin derived  hormone)  का स्राव मानते हैं, जो प्रकाश  से प्रभावित होता है और नींद के समय और मौसमी प्रभावों से अपने जीववैज्ञानिक लय में सामंजस्य बनाये रखता है।) जिससे आत्मदर्शन  होते हैं और जो भी अज्ञात होता है सब कुछ बिना पुस्तक पढ़े ज्ञात हो जाता है यही आत्म साक्षात्कार (self realization) कहलाता है यही परमानन्द (supreme bliss) कहलाता है। आधुनिक भौतिक विज्ञान की शब्दावली में इसे व्यक्तिगत आस्तित्विक आवृत्ति(existential frequency)  का,  इष्टमंत्रजाप आवृत्ति (incantative frequency)  के साथ अनुनाद(resonance)  होना और इस अनुनाद का परम सत्ता(cosmic frequency)  के साथ अनुनाद होना कहते हैं। वास्तव में यह, पूर्ण एकाग्रता की स्थिति में बनने बाली मानसिक तरंगों के शक्तिशाली हो जाने पर उन्हें उचित दिशा  में संचालित करते रहने पर ही घटित हो पाता है। ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति(big bang)  के समय जो ध्वनि उत्पन्न हुई उसे ओंकार ध्वनि (cosmic frequency)  कहते हैं और यह ब्रह्माॅंड की मूल आवृति मानी जाती है और समस्त ब्रह्माॅंड में आज भी व्याप्त है। इसे सगुण और निर्गुण का सम्मिलित रूप माना जाता है, अ, उ और म क्रमशः  उत्पत्ति, पालन और संहार के, चंद्रकार रेखा निर्गुण को सगुण में परिवर्तन करने के, और विंदु, निराकार ब्रह्म के द्योतक हैं। हमें इस ध्वनि को सुनते हुए, इससे निकली तरंगों के साथ मन को ले जाते हुए, गुरु द्वारा बताये गये उर्जा केन्द्र पर स्थिर कर, इष्टमंत्र के जाप से उत्पन्न मानसिक तरंगों को इसी केन्द्र पर एकत्रित कर निर्गुणस्वरूप ‘ विंदु ' को देखने का अभ्यास करना होता है इसे ही साधना कहते हैं जिसे अष्टाॅंग योग में विभिन्न पदों में उपरोक्तानुसार सिखाया जाता है। ( यहाॅं याद रहे कि ओंकार ध्वनि को सुनना और उसमें अपने आप का एकीकरण करना ही लक्ष्य होता है न कि ओम ओम चिल्लाना, इससे कुछ भी प्राप्त नहीं होता है क्योंकि पचास वृत्तियों (propensities) के संयुक्त स्वर ‘ओम‘ को गले से उच्चारित ही नहीं किया जा सकता।) यही एकमात्र विधि सम्पूर्ण है अन्य सभी मतों में इसके ही अनेक खंड कर, अंशों  को ही पूरा मानकर सुविधानुसार अपनी अपनी पद्धतियों को बनाया गया है और पृथक धर्म या मत या संप्रदाय के रूप में प्रचलन में लाया गया है। अतः स्पष्ट है कि जब तक पूर्णता प्राप्त नहीं होगी इन आॅंशिक विधियों से किसी को क्या लाभ हो सकता है यह सहज ही समझा जा सकता है। continued to next post--

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