Monday, 1 June 2015

8-10 मंतव्य (पिछली पोस्ट से आगे ---)


8-10 मंतव्य ( पिछली पोस्ट से आगे -----)
प्रतिसंचर की क्रिया में जड़ से सूक्ष्म की ओर गति करते हुए प्रकृति अपने प्रभावों को जड़पदार्थों पर से कम करने लगती है और परम चेतना या पुरुष का प्रभाव बढ़ने लगता है। मनुष्य तक पहुंचते पहुंचते प्रकृति का प्रभाव अपेक्षतया कम हो जाता है जिससे वह प्रकृति के दासता के बंधन में अब और अधिक नहीं रहना चाहता है और प्रकृति के विरुद्ध स्वतंत्रता से कार्य करने लगता है जो प्रतिक्रया के दंड स्वरूप भोगना पड़ते हैं। इस धरती पर केवल मनुष्यों के ऊपर ही परमचेतना पूर्णतः परावर्तित होती है अतः वे ही स्वतंत्रता से अपनी इच्छा से कार्य कर सकते हैं अन्य प्राणी नहीं। प्रकृति के नियम, मनुष्यों के उन कार्यों के लिये जो प्रकृति के विरुद्ध अपने मनमाने ढंग से ही किये जाते हैं, प्रतिक्रिया के रूपमें दंड देते हैं, स्पष्ट है कि वे जो मनमाने ढंग से कोई कार्य प्रकृति के विरुद्ध कर ही नहीं पाते दंड के भागी भी नहीं होते अतः मनुष्यों के अलावा अन्य प्राणियों को कर्मफल नहीं भोगना पड़ता।

इस दंड के कष्ट के माध्यम से प्रकृति का उद्देश्य  यह  शिक्षा देना होता है कि बुरे कार्यों से दूर रहना चाहिये। पर कुछ लोग साधना से प्राप्त बल के द्वारा इसे दूर करने का प्रयास करने में इस विधिमान्य नियम को भूल जाते हैं और समझते हैं कि वे कल्याण कर रहे हैं। कर्मफल तो कर्म करने वाले को भोगना ही पड़ेगा, चाहे कितना बड़ा भक्त क्यों न हो वह इसे नहीं रोक सकता यदि वह ऐंसा करता है तो वह भोले भाले लोगों को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं माना जायेगा। यह हो सकता है कि कर्मफल का दंड भोगने का समय कुछ आगे टल जाये पर वह भोगना ही पड़ेगा चाहे उसे फिर से जन्म क्यों न लेना पड़े , क्योंकि हो सकता है कि दंड भोग के समय, व्यक्ति के मन में साधना कर मुक्ति की जिज्ञासा जाग जाये पर साधना सिद्धि प्राप्त व्यक्ति अपने बल से उसका कष्ट दूर करने का प्रयास करे तो यह प्रकृति के नियम के विरुद्ध होने के कारण  कल्याणकारी नहीं माना जायेगा वरन् वह दंड का भागीदार माना जायेगा।  इसलिये पराशक्तियों का उपयोग करना ईशनिंदा ही माना जायेगा क्योंकि यह प्रकृति के नियमों को चुनौती देकर उन्हें उदासीन करना ही कहलायेगा। पराशक्तियों के उपयोग से पानी पर चल सकते हैं, आग में चल सकते हैं, असाध्य बीमारियों को दूर कर सकते हैं, अनेक चमत्कार दिखा सकते हैं पर यह प्रकृति के स्थापित संवैधानिक नियमों की अवहेलना होगी इसलिये जो यह करता है उसे कर्मफल भोगना ही पड़ेगा।


कुछ लोग यह भ्रान्त धारणा पाल लेते हैं कि उनके गुरु तो पहुँचे हुए आत्मसाक्षात्कारी हैं, उनकी कृपा से वे मुक्त हो जायेंगे, उन्हें साधना की क्या आवश्यकता? पर वे गलती करते हैं क्योंकि मुक्ति बिना प्रयास के नहीं मिल सकती। गुरु की कृपा के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती यह बात भी सही है पर गुरुकृपा पाने की योग्यता भी तो होना चाहिये केवल तभी गुरुकृपा मिल सकती है। गुरुकृपा पाने के लिये ही शिष्य  को , विश्वास और भक्तिभाव से साधना करने के लिये गुरु सतत निर्दैश  देते हैं।


आध्यात्मिक साधना करने वाले भक्त अपने कर्मफलों को भोगने के लिये पुनः जन्म नहीं लेना चाहते अतः वे इसी जन्म में मुक्त होने की उत्कंठा से शेष बचे सभी संस्कारों के प्रभावों को शीघ्र ही इसी जन्म में भोग लेना चाहते हैं अतः यदि उन्हें साधना करने में समस्यायें/कष्ट आते हैं तो इसे शुभ संकेत माना जाना चाहिये क्यों कि यह प्रकट करता है कि उनके कर्मफल का भोग तेजी से ही हो रहा है। साधना करने का अर्थ है कि मन के भीतर बाहर चिपके जन्म जन्मान्तरों के संस्कार और गंदगी को साफ कर उसे बिलकुल दर्पण की तरह स्वच्छ बना लेना, जिससे वह परम सत्ता पूर्णतः परावर्तित होने लगे। यहाॅं स्वामी रामतीर्थ द्वारा कहे गये उस द्रष्टाॅंत की याद आती है जिसमें दो टक्कर के चित्रकारों ‘रवि‘ और ‘कवि‘ में से श्रेष्ठ को चुनने के लिये एक कमरे में बीचोंबीच परदा डालकर आमने सामने की दीवार पर प्रत्येक से अपनी आपनी चित्रकारी करने को कहा गया और पूरी सुरक्षा और पहरेदारी से एक दूसरे की ओर देखने का अवसर नहीं दिया गया। निर्धारित अवधि ‘चैबीस घंटे‘ में पूरा करने के लिये रवि ने सैकड़ों प्रकार के रंग और अन्य सामग्री लगायी जबकि कवि ने केवल दीवार को साफ करने और चमकाने के लिये पूरी मेहनत की और रवि की तुलना में  लगभग नहीं के बराबर धन खर्च किया। जब परदा हटाया गया तो जो कलाकृति रवि ने बनायी थी बिलकुल वही आकृति कवि की दीवार पर दिखाई दी। कवि की कला को श्रेष्ठ माना गया और यह मुहावरा बना कि ‘‘जहाॅं न पहुंचे रवि वहाॅं पहुंचे कवि‘‘। तात्पर्य यह कि उस परमसत्ता को कहीं ढूढ़ने नहीं जाना है वह हमारे ‘मैंपन‘ के पीछे साक्षी सत्ता के रूप में रहती है हमारे मन पर अष्टपाश  और षडरिपुओं का मैल इतना जमा होता है कि हमें वह दिखाई नहीं देती परंतु जब हम कवि की तरह अपने मन की गंदी दीवार को दर्पण की तरह चमकदार बना लेते हैं तो वह अपने आप प्रकट होकर अपने मूल स्वरूप के दर्शन  करा देती है।

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