मित्रो !
अभी तक ‘‘ आद्यान्तिका ‘‘ के क्रमागत आठों सेक्सन्स में आप ने मनुष्य जीवन की विज्ञान और आध्यात्म सम्मत सैद्धान्तिक और व्यावहारिक जानकारी पाई। इस आधार पर ही मैंने जीवन को ‘जीने का विज्ञान‘ अर्थात् साइंस आफ लिविंग‘ कहा है । संसार के अधिकांश देशों में रहने वाले जिज्ञासु मित्र इसे पढ़कर लाभान्वित हो रहे हैं। इस ग्रंथ से संबंधित संदर्भ सूत्रों में विचाराधीन तथ्यों की जैसी व्याख्या विद्वानों ने प्रस्तुत की है उसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों में विना मौलिकता दूषित किये यथावत् रखे जाने के लोभ से, किन्हीं किन्हीं मित्रों को भाषा की क्लिष्टता से असहजता अनुभव हुई है जिसका खेद है।
मेरा मानना है कि सत्य को अनेक प्रकार से प्रकट किया जाता रहा है और भाषाओं की अनेकता और व्याख्याओं को सरल बनाने की चेष्टा में सत्य का मूल स्वरूप अद्रश्य हो गया और शब्दजाल में भ्रमित होते लोग हमारे अनुसंधानकर्ता़ ऋषियों की उपलब्धियों को अव्यावहारिक मानकर आध्यात्म से दूर भागने लगे। इस त्रुटि को मैं दुहराना नहीं चाहता हॅूं अतः अभी तक मौलिक तथ्यों पर आप का ध्यान केन्द्रित करने ही चेष्टा की है परंतु अनेक मित्रों का आग्रह है कि कठिन बातों के मूल रूप को परिवर्तित न करते हुए यदि लघु कहानियों को आधार बनाकर समझाया जाये तो सभी प्रकार के पाठकों को अधिकाधिक लाभ मिल सकेगा। अतः अब, आप चयनित किये गये महत्वपूर्ण परंतु कठिन प्रतीत होंने वाले तथ्यों को छोटी छोटी कहानियों के रूप में अगली पोस्ट्स में पढ़ सकेंगे । कहानियों का यह क्रम आज से ही प्रारंभ किया जा रहा है। आशा है यह प्रयास आपको पसंद आयेगा।
प्रस्तुत है आज की कहानी ----
अभी तक ‘‘ आद्यान्तिका ‘‘ के क्रमागत आठों सेक्सन्स में आप ने मनुष्य जीवन की विज्ञान और आध्यात्म सम्मत सैद्धान्तिक और व्यावहारिक जानकारी पाई। इस आधार पर ही मैंने जीवन को ‘जीने का विज्ञान‘ अर्थात् साइंस आफ लिविंग‘ कहा है । संसार के अधिकांश देशों में रहने वाले जिज्ञासु मित्र इसे पढ़कर लाभान्वित हो रहे हैं। इस ग्रंथ से संबंधित संदर्भ सूत्रों में विचाराधीन तथ्यों की जैसी व्याख्या विद्वानों ने प्रस्तुत की है उसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों में विना मौलिकता दूषित किये यथावत् रखे जाने के लोभ से, किन्हीं किन्हीं मित्रों को भाषा की क्लिष्टता से असहजता अनुभव हुई है जिसका खेद है।
मेरा मानना है कि सत्य को अनेक प्रकार से प्रकट किया जाता रहा है और भाषाओं की अनेकता और व्याख्याओं को सरल बनाने की चेष्टा में सत्य का मूल स्वरूप अद्रश्य हो गया और शब्दजाल में भ्रमित होते लोग हमारे अनुसंधानकर्ता़ ऋषियों की उपलब्धियों को अव्यावहारिक मानकर आध्यात्म से दूर भागने लगे। इस त्रुटि को मैं दुहराना नहीं चाहता हॅूं अतः अभी तक मौलिक तथ्यों पर आप का ध्यान केन्द्रित करने ही चेष्टा की है परंतु अनेक मित्रों का आग्रह है कि कठिन बातों के मूल रूप को परिवर्तित न करते हुए यदि लघु कहानियों को आधार बनाकर समझाया जाये तो सभी प्रकार के पाठकों को अधिकाधिक लाभ मिल सकेगा। अतः अब, आप चयनित किये गये महत्वपूर्ण परंतु कठिन प्रतीत होंने वाले तथ्यों को छोटी छोटी कहानियों के रूप में अगली पोस्ट्स में पढ़ सकेंगे । कहानियों का यह क्रम आज से ही प्रारंभ किया जा रहा है। आशा है यह प्रयास आपको पसंद आयेगा।
प्रस्तुत है आज की कहानी ----
(1) असली होली नकली होली
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एक सेवानिवृत्त फिजिक्स के प्रोफेसर के घर, आसपास के आठ दस लड़के जिनमें तीन चार उच्छृंखल भी थे , होली का चंदा मांगने आये । प्रोफेसर ने सब को अपनी गृह वाटिका में विठाया और समझाने लगे - आपलोग होली का असली अर्थ जानते हैं? लड़कों ने अपने अपने ढंग से वही पौराणिक किस्से सुनना प्रारम्भ किये, कुछ बोले यह तो रंगों का त्यौहार है, आदि। प्रोफेसर बोले नहीं , ये सब तो काल्पनिक किस्से हैं सच्ची बात जानना हो तो सुनो - देखो !
- भौतिकवेत्ता (physicist) कहते हैं कि किसी भी वस्तु का अपना कोई रंग नहीं होता , सभी रंग प्रकाश के ही होते हैं। प्रकाश तरंगों की विभिन्न लम्बाइयां (wave lengths) ही रंग प्रदर्शित करती हैं। जो वस्तु प्रकाश की जिन तरंग लम्बाइयों को परावर्तित करती है वह उसी रंग की दिखाई देती है अतः यदि कोई वस्तु प्रकाश विकिरण की सभी तरंग लम्बाइयों को परावर्तित कर दे तो वह सफ़ेद और सभी को शोषित कर ले तो काली दिखाई देती है।सफ़ेद और काला कोई पृथक रंग नहीं हैं।
- मनोभौतिकी विद (psycho physicist) कहते हैं कि मन के वैचारिक कम्पनों से बनने वाली मानसिक तरंगें (psychic waves) भी व्यक्ति के चारों ओर अपना रंग पैटर्न बनाती हैं जिसे "आभामण्डल " (aura) कहते हैं। अनेक जन्मों के संस्कार भी इसी पैटर्न में विभिन्न परतों में संचित रहते हैं और पुनर्जन्म के लिए उत्तरदायी होते हैं।
- मनोआत्मिक विज्ञानी (psycho spiritualists) इन तरंगों ( wave patterns) को वर्ण (color) कहते हैं। यह लोग यह भी कहते हैं कि जिस परमसत्ता (cosmic entity) ने यह समस्त ब्रह्माण्ड निर्मित किया है वह अवर्ण (colorless) है परन्तु इस ब्रह्माण्ड में अस्तित्व रखने वाली सभी वस्तुओं के द्वारा प्रकाश तरंगों के परावर्तन करने के अनुसार ही वर्ण (color) होते हैं क्योंकि ये सब उसी परमसत्ता की विचार तरंगें ही हैं। अतः यदि उस परमसत्ता को प्राप्त करना है तो स्वयं को अवर्ण बनाना होगा। इसी सिद्धांत का पालन करते हुए अष्टांगयोगी प्रतिदिन अपनी त्रिकाल संध्या में इन वर्णो को मनन, चिंतन ,कीर्तन और निदिध्यासन की विधियों द्वारा उस परमसत्ता को सौंपने का कार्य करते हैं जिसे वर्णार्घ्य दान कहते हैं। बोलचाल की भाषा में वे इसे ही असली होली खेलना कहते हैं।
समझे ?
हम लोगों ने काल्पनिक कहानियों के आधार पर कैसी विचित्र परम्पराएँ बना ली हैं कि होली के नाम पर एक दूसरे पर कीचड़ /रंग फेकते हैं , अकथनीय अपशब्द कहकर मन की भड़ास निकलते हैं और कहते हैं कि "बुरा न मानो होली है", होली के लिए चंदा बटोरकर रोड के बीचोंबीच टनों लकड़ियाँ जलाकर कभी न सुधर पाने वाले रोड ख़राब तो करते ही हैं वातावरण में कार्बनडाई ऑक्साइड मिलाकर प्रदूषण फैलाते हैं , तथाकथित रंगों / कीचड़ भरे शरीर और कपड़ों को धोने में पानी और समय भी नष्ट करते हैं।
यह सब गलत है कि नहीं बोलो?
इतना बोलना ख़त्म ही नहीं हुआ था कि दो उद्दंडी लड़के आगे आये और जेब में रखे रंगों के पेकेट खोलकर प्रोफेसर का मुह और वस्त्रों को रंग से यह कहते हुए पोत डाला कि आप योगियों की होली मनाओ हम तो भोगी हैं हमें अपने ढंग से होली मानाने दो ? …
और "होली है, होली है" कहते शोर मचाते लड़के भाग खड़े हुए और प्रोफेसर साब ----? ? ?
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