Thursday 4 June 2015

8-10 मन्तव्य ( अन्तिम भाग )


 मन्तव्य ( अन्तिम  भाग )

साधना करने की प्रणाली का अभ्यास सक्षम गुरु के द्वारा इस प्रकार कराया जाता है कि वह अतीन्द्रिय रूप से मन को जड़ पदार्थों की ओर जाने से रोक देता है और भौतिक पदार्थों की चाह समाप्त हो जाती है। कुछ लोग सोचते हैं कि साधना करने पर भौतिक आनन्द और सुख सुविधाएं छिन जायेंगी उनका यह विचार अविवेकपूर्ण है और वे जो इन सुख सुविधाओं को जीवन का आवश्यक अंग मानते हैं वे भी गलती करते हैं।
जिन्हें उचित गुरु नहीं मिल पाते या जो इस प्रकार के सिद्धान्त में विश्वास न कर केवल इसी जीवन को ही सब कुछ मानते हैं वे जीवन मृत्यु के चक्र में अपने संस्कारोें के वशीभूत होकर एक जन्म से दूूसरे में आते जाते रहते हैं। अगला जन्म मनुष्य का मिलेगा या नहीं उसके संस्कारों पर निर्भर करता है अतः कर्म और कर्म फल के सिद्धान्त के अनुसार वे अपने संस्कारों के भोग के लिये अनुकूल शरीर की तलाश  में भटकते रहते है। इस प्रकार वे मनुष्येतर प्राणियों में वापस जाकर भी अपने संस्कार भोगते हैं। यह संसार उस परमसत्ता के एक से अनेक होने की, कल्पना तरंगों का समूह है और हम इन तरंगों के विभिन्न पैटर्न हैं जो परमपुरुष अर्थात् मूल बिंदु (origin) से सापेक्षिक होने के कारण परस्पर वास्तविक लगते प्रतीत होते हैं। परमपुरुष की यह कल्पना अभी तक कभी की समाप्त हो जाना चाहिये थी पर यह सापेक्षिक संसार इसलिये चलता जा रहा है क्यों कि उचित मार्गदर्शन  के अभाव में  स्वार्थवश  मनुष्य बार बार यहीं भटकते रहना चाहते हैं और कुसंस्कारों में दबकर पेड़ पौधों और पत्थरों के रूप में बने रहना चाहते हैं। कहा गया है कि ‘‘ स्वागमै कल्पतैः त्वं च जनान्मद्विमुखान कुरु, माॅंचगोपय येन स्यात् स्रष्टिरेषोत्तरोत्तरा।‘‘ लोगों ने अपनी अपनी कल्पना के अनुसार, संस्कारों के भोग के लिये और इस भौतिक जगत की विभिन्न वस्तुएं पाने के लिये, अनेक देवताओं की कल्पना कर उनकी पूजा करना प्रारंभ की । यह तथाकथित देवता भी उन्हीं के स्वभाव वाले अर्थात् नारियल और अगरबत्ती के भूखे, उन्हें यहीं भटकाये हुये हैं इसीलिये यह संसार चलता जा रहा है। सोचने की बात है कि जिस परमसत्ता ने इस संसार की सभी वस्तुएं और जीवधारी बनाये हैं उसे इन चीजों और तुम्हारे रत्नों की आवश्यकता ही क्या है? फिर भी धनाड्य लोग सोचते हैं कि तथाकथित उनके धन का प्रसाद पाकर, सोने के मुकुट और पादुकायें पहिन कर भगवान की मूर्ति उन्हें मुक्ति मोक्ष दे देगी या संसार कर राज्य दे देगी, यह कितना हास्यास्पद है? संसार में प्रचलित सभी मतों में यह निर्विवाद स्वीकृत है कि परम सत्ता को केवल शतप्रतिशत आत्मसमर्पण प्रिय है, जिसने भी थोड़ा सा भी अपने पास बचाकर रखना चाहा वह यहीं भटकता रहा, वह उन्हें कभी नहीं देख पाया। और, संपूर्ण आत्मसमर्पण की विधि महाकौल (आत्मसाक्षात्कारी गुरु) से ही प्राप्त की जा सकती है अन्य किसी से नहीें क्योंकि, वे ही इस संसार में रहते हुए भी मुक्त होते हैं, संसार के कल्याण के लिये ही अपने संकल्प से कुछ समय के लिये संस्कार शून्य शरीर को बनाये रखते हैं और फिर अपने स्वरूप में चले जाते हैं । आदर से तंत्र में उन्हें तारक ब्रह्म या महासम्भूमति कहा गया है।

संसार के अनेक विद्वानों ने समय समय पर अपने अपने ढंग से उस एक ही अकथनीय, अवर्णनीय , अद्रश्य  और अपरिमाप्य अखंड चिदैकरस परम सत्ता का वर्णन करने के लिये प्रयास किया है, किसी ने शव्दों के माध्यम से या लच्छेपुच्छे दार भाषा से , किसी ने सिद्धान्तों  और शास्त्रों की व्याख्या से, किसी ने यौगिक क्रियाओं से। इसीलिये यह कहा गया है कि ‘‘ एको सत् विप्राः वहुधा वदन्ति‘‘। कुछ लोग व्याख्यानों और शब्दजाल से जनमानस को लुभाकर स्वार्थ सिद्धि करते भी देखे गये हैं , वर्तमान में तो यही हो रहा है। इन लोगों की विद्वत्ता आपनी शास्त्रार्थ क्षमता के प्रदर्शन  तक तो उचित है पर इससे उन्हें मुक्ति मोक्ष नहीं मिल सकता । कहा गया है कि ‘‘ वाक् वैखरी शव्दझरी शास्त्र व्याख्यान कौशलम, वैदुष्यम विदुषाम तद्वत भुक्यते न तु मुक्तये‘‘। अतः इस प्रकार के लोगों से सावधान रहना चाहिये। उतना ज्ञान अवश्य  प्राप्त कर लेना चाहिये जिसके अनुसार आचरण करते हुए आत्मसाक्षात्कार संभव हो सके और यह कार्य महाकौल गुरु के माध्यम से ही संभव है जैसा कि ऊपर बताया गया है। वित्तहर्ता गुरु तो अनेक मिल जायेंगे पर चित्तहर्ता गुरु मुश्किल  से मिल पाते हैं, जिन्हें चित्तहर्ता गुरु मिल गये उन्हें ईश्वर  प्राप्ती में देर नहीं लगती। एक बात यहाॅं स्मरणीय यह है कि ईश्वर  प्राप्त करने  के लिये विभिन्न डिग्रियाॅं किसी काम की नहीं होती केवल मनुष्य शरीर में शुद्धान्तःकरण का होना ही पर्याप्त होता है।


सत्यद्रष्टा ऋषियों ने अनुभव किया है कि यदि किसी का अस्तित्व है तो केवल एक ही परमसत्ता का है जिसे हम दार्शनिक  रूप से परमब्रह्म , परमपुरुष , परमात्मा आदि नामों से पुकारते हैं। अन्य सभी का अस्तित्व सापेक्षिक है , टाइम और स्पेस से बंधा है इसलिये सीमित है । परमसत्ता वह है जो टाइम और स्पेस पर नियंत्रण करता है अतः भौतिक संसार के पृथ्वी, सूर्य सहित अनेक गेलेक्सियां और ब्रह्माॅंड आदि सभी उसकी कल्पना की तरंगे हैं जिन्हें हमने पृथक अस्तित्व मानकर भेद पैदा कर लिया है और अपना अपना संसार बनाकर ‘‘क्रिया प्रतिक्रिया नियम‘‘ में बंधकर ब्रह्म चक्र में घूमने को विवश  हो गये हैं। कुछ लोग भौतिक जगत के बहुमूल्य पदार्थों जैसे सोना, चाॅंदी, हीरे आदि को बटोर कर अपने अस्तित्व के स्थायी बनाने के प्रयास करते पाये जाते हैं पर वे कितनी गलती करते हैं यह तब पता लगता है कि उनकी बटोरी हुई बहुमूल्य वस्तुयें  सब यहीं पड़ी हैं पर वे स्वयं कहाॅं हैं इसका कुछ अता पता नहीं है। कुछ तो इससे भी आगे निकलकर अपनी अपनी कल्पना के भगवानों को मंदिरों में मूर्तियों के आकार में बैठा कर उन्हें ये मूल्यवान वस्तुएं भेंट कर याचना करते हैं कि उनका अस्तित्व सदा बना रहे पर यह भूल जाते हैं कि जिसके सोचने मात्र से इन सब का निर्माण हुआ है उसे इन सब की आवश्यकता ही क्या है। शायद वे यह मानते हैं कि वे परम सत्ता को लोभ लालच देकर अपना काम करा लेंगे जैसा वे स्वयं करते रहे हैं। क्या यह संभव है?


उस परम सत्ता की अद्वितीयता अनुभव कर हम उन्हें सदैव स्मरण करते हैं, बार बार अपनी तुच्छता का अनुभव करते हुए अपनी सीमित सोच कि ‘हम उनसे पृथक हैं‘ के परिणामों पर लज्जित होते हुए अपने आप को उन्हें ही भेंट करना चाहते हैं, बस उनकी पूजा करने का यही उद्देश्य  होता है दूसरा नहीं। ब्रह्म के इस गुण का सच्चे भक्त लाभ ले लेते हैं कि ‘‘ ब्रहत्वाद ब्रह्म, ब्रंहणत्वाद ब्रह्म‘‘ अर्थात् ब्रह्म विराट हैं और उनका चिंतन करने वालों को भी वे विराट ही बना देते हैं। जैसा सोचोगे वैसा ही हो जाओगे इसलिये केवल उन्हीं के बारे में सोचो, ‘‘बाबा नाम केवलम्‘‘, बाबा का अर्थ है सर्वाधिक प्रिय, सर्वाधिक निकट अर्थात् परमपुरुष। उनकी प्रशंसा और स्तुति कर भौतिक सुविधाओं की याचना करना क्या यह प्रकट नहीं करता कि यह करके वह सिद्ध कर रहे हैं कि परम सत्ता ने उनके साथ न्याय नहीं किया, उन्हें कम सुविधायें दी अन्यों को उनसे अधिक? सच्चाई यह है कि सबके लिये उन्होंने पात्रता के अनुसार इतना अधिक दिया है कि जीवन भर वे उसका दुरुपयोग ही करते हैं। सर्वाधिक मूल्यवान मानव शरीर दिया है फिर भी वे पशुओं जैसा जीवन जीने में ही आनन्द पाते हैं इसे क्या कहेंगे? बार बार हम उनका नाम  इस लिये स्मरण करते हैं कि हम अपने मूलस्वरूप को अनुभव करते हुए उसमें वापस पहुंच जावें, साधना पूजा का यही अर्थ है और मनुष्य जन्म मिला ही इसीलिये है।


हमारे पूर्वज महापुरुषों में से जिन्होंने आत्म साक्षात्कार किया है, यह स्पष्टतः कहा है कि उस परम सत्ता को तत्वतः कोई नहीं जान सकता पर वह है अवश्य । अपने अनुभव और ज्ञान के आधार पर उन्होंने यह भी कहा है कि उसे वाणी से नहीं बताया जा सकता, भाषा वहाॅं गूंगी हो जाती है फिर भी एक बार जिसने उसका थोड़ा सा भी आभाष  पा लिया है वह उसके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता। आखिर वह क्या है, कैसा है, जो इतना आकर्षक है कि उसके बिना रहा नहीं जाता? कुछ लोग इसके उत्तर में चुप रह जाते हैं कुछ लोग कहते हैं कि वही हमारे प्राण हैं, वही जीवन के जीवन हैं, हमारे वास्तविक स्वरूप वही हैं उनके बिना कैसे रहें? मेरी, पिछले लगभग पचास वर्षों की इस खोज यात्रा के दौरान जीवन धारा के प्रवाह मार्ग में विद्या और अविद्या के विक्षोभों से अनेक बार ऐसे अवसर आये हैं कि जब लगता था कि अब जीवन शून्य होने वाला है, या उछलकर कहीं अन्यत्र ही जाने वाला है, पर वह कौन था जो एक हाथ को पकड़े हमेशा  सुरक्षित आधार उपलब्ध कराता रहा? इन सबका अध्ययन चिंतन और मनन करने के बाद यही कहा जा सकता है कि यह वही था जिसे कोई आज तक देख ही नहीं पाया, वही था जिसे ऋषियों ने अलखनिरंजन कहा है, वही जिसकी व्याख्या करते वेद नेति नेति करने लगते हैं, वही जिसकी हलकी सी झलक पाने के लिये ब्रह्मचारी आचार्यगण अपने जीवन को दाव पर लगा देते हैं, वही जिसके विचार मात्र से हृदय की धड़कने तेज हो जाती हैं और आॅंखें निर्झर की तरह झरने लगती हैं, यह वही था जिसकी याद में भूख प्यास ,ग्रीष्म शीत, सुख दुख, हानि लाभ सब कुछ भूल जाते हैं। और अब तो मैंने भी अपने दूसरे हाथ से, उसको जोर से जकड़ लिया है। अब, इस प्रकार मुझे उसके कार्य के अलावा अपना व्यक्तिगत कोई कार्य नहीं है। इस संसार को एक फिल्म रील की तरह ही अनुभव करता हॅूं जो लगातार अनेक चलमान द्रश्यों  को क्रमशः  गतिशील बनाये हुए है। अब यदि मुझे कोई अहंकार है तो केवल यही कि मैं उसी परम सत्ता की विचार तरंगों का ही भाग हॅूं जैसे अन्य भी हैं और ब्रह्माॅंड की अनन्त यात्रा में सहभागी हैं। जीवन के शेष समय में, अनन्त ज्ञान के कुछ अंश  को पाकर ही अब उसे व्यावहारिक रूप देने में लगा हॅूं क्योंकि यदि उसे उपयोग में नहीं लाया तो इतना परिश्रम व्यर्थ ही चला जायेगा। भौतिक जगत की परीक्षाओं को पास करने के लिये न्यूनतम 33 प्रतिशत उत्तीर्णांक  प्राप्त करने की अनिवार्यता है पर महापुरुष गण कहते हैं कि आध्यात्मिक जीवन की परीक्षा में 100 प्रतिशत अंक  प्राप्त करने पर ही उत्तीर्ण हो पाते हैं। इस तरह लगता है कि मैं तो कभी पास ही नहीं हो पाऊंगा, पर जब मैंने दोनों हाथों से उन्हें पकड़  रखा है तो यह नहीं हो सकता कि वह झटक कर मेरे हाथ छोड़ दें. क्योंकि यदि वह ऐसा चाहते तो मेरा हाथ उन विषम परिस्थितियों में भी क्यों पकड़े रहे? इसलिये इतना तो अवश्य  है कि उनके पास कृपाॅंकों का जो आरक्षित कोटा है वह मेरे लिये ही है, और मैं यही चाहता हॅूं कि वे मुझ पर अहैतुकी कृपा ही करें। तव तत्वम् न जानामि कि द्रशोसि  महेश्वरा , या द्रशोसि महादेव ताद्रशाय नमो नमः।

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