Friday, 26 June 2015

2 ‘‘जहाँ न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि‘‘

2 ‘‘जहाँ न पहुंचे  रवि  वहां पहुंचे कवि‘‘
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चित्रकला के प्रेमी एक राजा ने सभी जगह घोषणा करा दी कि जो सबसे अच्छी चित्रकला का प्रदर्शन करेगा उसे राज्य सम्मान के साथ मनमाना इनाम दिया जायेगा।  अनेक स्तरों पर प्रतियोगिता से निकलकर दो चित्रकार मिले जिनमें से सर्वश्रेष्ठ का  निर्णय राजा के सामने किया  जाना था।
राजा ने एक बड़े हॉल को बीचों बीच में मोटे परदे से दो भागों में बाँट कर  दोनों को अपना अपना भाग दे दिया और कहा जो भी सामग्री चाहिए हो भंडार गृह से ले सकते हो।  दोनों को निर्धारित समय में अपनी चित्रकारी दीवारों पर करना थी बिना किसी की ओर देखे , इसलिए चैबीसों  घंटे का कड़ा पहरा  बैठाया गया।
दोनों चित्रकारों में से एक का नाम था रवि और दूसरे का कवि। रवि ने अनेक प्रकार के रंग, ब्रश उपकरण, और सहायक सामग्री एकत्रित की और अपने काम में जुट गया।  कवि ने केवल दीवारों को साफ और चिकना बनाने के लिए मामूली से उपकरण मात्र,  भण्डार गृह से लिए और वह भी अपने काम में जुट गया।
समय पूरा होने के बाद मूल्यांकन के लिए राजा स्वयं अन्य विशेषज्ञों के साथ आये। सबसे पहले राजा और निर्णायकों ने  रवि की चित्रकारी देखी क्योंकि रवि की तारीफ अनेक अन्य राजा भी कर चुके थे।  चित्रकारी देख सभी वाह वाह कर उठे।  कुछ  निर्णायकों ने तो यह तक कह दिया कि ‘‘वाह !  भूतो न भविष्यति ‘‘ अब और कुछ देखना समय नष्ट करना ही है , यही सर्वश्रेष्ठ  है।  परन्तु नियमानुसार दूसरे चित्रकार की कला का भी निरीक्षण करना था,  इसलिए   कवि के कक्ष में जाने के लिए राजा के  आदेश पर बीच का पर्दा हटा दिया गया।
राजा और अन्य निर्णायकों  ने जब कवि की कला  को देखा तो सबकी आँखें खुली की खुली रह गयीं।  सब एक साथ कह उठे , आश्चर्य ! अद्भुद ! अद्वितीय। क्योंकि बिलकुल वैसी ही चित्रकारी कवि की दीवारों पर थी जैसी रवि ने अपनी दीवारों पर की थी। रवि ने  अनेक रंग और उपकरणों का उपयोग किया था जबकि  कवि ने कोई रंग  या अन्य सामग्री ली ही नहीं थी पर वे सभी रंग उसकी भी दीवारों पर थे जो रवि ने प्रयोग में लिये  थे।
  हुआ यह था कि कवि ने दीवारों को इतना घिसा की वे दर्पण की तरह चमकने लगीं और सामने आने वाली वस्तु का प्रतिविम्ब दिखलाने लगीं। राजा ने कवि की कला को सर्वोत्कृष्ट घोषित कर दिया , सब कह उठे  ‘‘जहाँ न पहुंचे  रवि  वहां पहुंचे कवि‘‘
    स्वामी रामतीर्थ प्रायः यह कहानी सुनाकर कहा करते थे कि वह परमसत्ता हमारे भीतर बाहर चारों ओर है , पर हमारे मन पर संस्कारों की  इतनी गंदगी चिपकी हुई है कि उससे ईश्वरीय  तरंगें परावर्तित ही नहीं हो पाती इसलिए वह दिखाई  नहीं देता।  यदि कवि की तरह मन की दीवार की गंदगी को साफ कर चमका लिया जाय तो तत्काल उसे देखा जा  सकता है। 

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