Friday 22 May 2015

8.9: जन्म मृत्यु और संस्कार

8.9: जन्म मृत्यु और संस्कार
पिछले खंडों में स्रष्टि चक्र को संचर और प्रतिसंचर दो धाराओं में सक्रिय होना बताया गया है जिसमें संचर सेन्ट्रीफ्युगल (centrifugal )  अर्थात् ब्राह्मिक मन में बाहर की ओर और प्रतिसंचर सेन्ट्रीपीटल (centripetal) अर्थात् भीतर की ओर गतिशील रहती हैं। इस ब्रह्म चक्र को सगुण ब्रह्म के द्वारा अपने विचार प्रक्षेप (Thought projection)  से नियंत्रित किया जाता है। संचर से प्रतिसंचर की ओर गति होने के साथ ही जीवों का अस्तित्व उनके इकाई मन और इकाई चेतना के साथ प्रारंभ होता है। इकाई मन अपनी पाॅंच ज्ञानेद्रियों और पाॅंच कर्मेद्रियों की सहायता से अन्य पदार्थों की जानकारी ग्रहण करता है। मन, जो कि बुद्धितत्व या महततत्व (existential feeling)   अहंतत्व (doer I feeling),   और चित्त तत्व (done I feeling) , का संयुक्त रूप होता है, इंद्रियों का ज्ञाता होता है इसी लिये उसे इंद्रियों का स्वामी कहा जाता है, पर क्या मन सचमुच इंद्रियों का ज्ञाता होता है? वास्तव में अस्तित्ववोध, कर्तावोध और कृतावोध सभी क्रियात्मक रूप हैं। इन क्रियात्मक रूपों को साक्ष्य कौन देता है? इस साक्षी सत्ता को जीवात्मा या इकाई चेतना कहा जाता है जो मन का भी ज्ञाता होता है। पाॅंच कर्मेंद्रियाॅं मन से निकलने वाले संस्कारों के अनुसार तन्मात्राओं को कार्यरूप में बदलती हैं पर वास्तव में यह कार्यरूप में तब तक नहीं बदल पातीं जब तक जीवात्मा की उपस्थिति न हो। इसलिये मन के प्रत्येक कार्य का होना जीवात्मा की उपस्थिति में ही संभव हो पाता है जबकि जीवात्मा क्रिया में भाग नहीं लेता वह केवल साक्ष्य देता है। यहाॅं यह स्पष्ट होता है कि मन तो सत , रज और तम के संयुक्त प्रभाव तथा लगातार होते रहने वाले परिवर्तन से उत्पन्न होता है जो कि समय , स्थान और पात्र से बंधा होता है अतः उसका साक्ष्य देने के लिये कोई निर्पेक्ष सत्ता जो देश  काल और पात्र से ऊपर हो , होना चाहिये, इसी सत्ता को जीवात्मा कहते हैं। इस प्रकार आत्मा ब्रह्मचक्र के सभी स्तरों पर विद्यमान रहता है।
ब्राह्मिक मन की साक्षी सत्ता को पुरुषोत्तम कहते हैं। संचर क्रिया में यही पुरुषोत्तम ओत योग से सभी इकाई मनों से जुड़े रहकर अपने आप को परावर्तित करते हैं और यही परावर्तन जीवधारियों में जीवात्मा कहलाता हैं । चूंकि मन एक लगातार परिवर्तनशील क्रियात्मक अवयव है इसलिये उसमें इसके पूर्व की स्थितियों के सभी परिवर्तनों के परिणाम संचित रहते हैं क्योंकि प्रत्येक स्थिति अपने पूर्व की स्थितियों का परिणाम होती है। इन्हें ही संस्कार कहते हैं जो इकाई मन को संवेग प्रदान कर आगे सक्रिय रखते हैं। चूॅंकि सभी प्रकार के पूर्व परिणामों, अर्थात् संचर और प्रतिसंचर , के लिये ब्राह्मिक मन ही कारण होता है अतः इकाई मन को उसी का आकर्षण और अधिक त्वरित करता जाता है। चूंकि प्रकृति के सक्रिय होने के प्रथम विंदु से संचर क्रिया के अंतिम अर्थात् जड़ पदार्थों के निर्माण होने तक यह संवेग ब्रह्म मन के द्वारा ही दिया गया है। जिस प्रथम अवस्था में इकाई मन में  अहम तत्व और महत्तत्व नहीं था अतः कोई संस्कार भी नहीं था और वह ब्रह्म चक्र के केन्द्र की ओर बढ़ता जा रहा था। पर  आगे की स्थितियों में जीव इकाई मन, पौधों और प्राणियों के रूपमें अपने इकाई मन में क्रमशः  अहं को विकसित करता गया जो उसकी मानसिक क्रियाओं को नियंत्रित करता रहा और इस प्रकार उसके संस्कार बनने लगे। इसी के उन्नत क्रम में मनुष्य आया जो प्रतिसंचर में बढ़ते हुए अपने दिव्य लक्ष्य परमपुरुष की ओर जाने के साथ साथ वापस विपरीत प्रतिसंचर और संचर मार्ग को भी अपना सकता है और मनुष्य से नीचे के प्राणी या निर्जीव के संस्कारों को भी अपने मन में ग्रहण कर संचित रख सकता है। इस प्रकार सामान्य जीव जहाॅं प्रकृति के सहारे प्रतिसंचर में आगे ही बढ़ता है क्योंकि उसका अहं बहुत कम होता है, पर मनुष्य का अहं अधिक होने के कारण वह आगे पीछे कहीं भी जा सकता है। प्रतिसंचर गति में इकाई संरचना को किसी वस्तु के साथ अपना साम्य स्थापित करने के लिये मानसिक और भौतिक तरंगों में संतुलन के साथ साथ प्राणों में संतुलन स्थापित होना अनिवार्य होता है इस संतुलन के अभाव में इनमें इकाई संरचना का स्थायित्व नहीं रह सकेगा। अतः इन मानसिक और भौतिक तरंगों के साम्य अथवा असाम्य होने पर संचर क्रिया में आगे उन्नति या पीछे की ओर अवनति होती है। जैसे किसी कुत्ते का मनुष्यों का सामीप्य पाने पर उसकी मानसिक तरंग दैर्घ्य  में बृद्धि होते  जाने पर एक स्तर पर वह अपने कुत्ते वाले शरीर के साथ संतुलन नहीं बिठा पायेगा और उसे उस शरीर को छोड़कर अन्य उपयुक्त और उन्नत तरंगदैर्घ्य  वाले शरीर को पाने की तलाश  करना होगी। इस प्रकार कुत्ता को उसके मन में उन्नत तरंग के स्थायी हो जाने पर मरना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि किसी मनुष्य की मानसिक तरंगे उसकी भौतिक देह के साथ संतुलन नहीं बना पाती तो उसका मानसिक शरीर भौतिक शरीर को त्याग कर उस शरीर को खोजने लगेगा जिसके साथ उसकी मानसिक तरंगों का संतुलन हो सके अतः वह अपनी मानसिक तरंगों के अनुसार आगे उन्नत मानव या नीचे अवनत पशु  या पेड़ के शरीर को पा सकता है। अहिल्या की साॅंकेतिक कहानी यही प्रकट करती है। कहने का अर्थ यह है कि उन्नत तरंग दैर्घ्य  का अनुसरण, निम्न स्तर के जीव को उच्च स्तर पर और निम्न तरंगदैर्घ्य  के अनुसरण से उच्च स्तर का मनुष्य निम्न स्तर के प्राणी की देह में चला जाता है। इस तरह एक डाक्टर यदि इस विज्ञान को जान कर किसी व्यक्ति को दवाओें के आधार पर उसकी भौतिक तरंगदैर्घ्यों  को संतुलन में लाकर बढ़ा दे तो उसका जीवन काल बढ़ा सकता है पर यदि उसने व्यक्ति की मानसिक शरीर की तरंगदैर्घ्य   में बृद्धि कर दी तो फिर वह उस मनुष्य को किसी और मनुष्य में बदल डालेगा। मिस्टर एक्स मिस्टर वाय हो जावेंगे। इसलिये शरीर के उचित संचालन के लिये मानसिक शरीर , भौतिक शरीर और प्राण इन तीनों में सुसंतुलन होना अनिवार्य है।

 प्राण पाॅंच आन्तरिक और पाॅंच वाह्य वायुओं का संयुक्त नाम है। आन्तरिक वायु हैं प्राण , अपान, उदान, व्यान और समान, तथा वाह्य वायु हैं नाग, कूर्म, क्रिकर, देवदत्त और धनन्जय। प्राण वायु, नाभि से कंठ तक श्वाश लेने  और छोड़ने का कार्य करती है। अपान वायु , गुदा से नाभि तक कार्य करती है और मल मूत्र के सिर्जन में सहायता करती है। समान वायु , नाभि के चारों ओर रहती है और प्राण और अपान के बीच संतुलन बनाये रखती है। उदान वायु , गले में रहकर बोलने में सहायता करती है। व्यान वायु , खून को शुद्ध  करने और अफेरेन्ट और इफेरेन्ट नर्व्ज को नियंत्रण करती हैं। नाग वायु , उछलने कूदने और किसी वस्तु को फेकने में , कूर्मवायु , शरीर को संकोचन करने में, क्रिकर वायु , जंभांई लेने में, देवदत्त वायु ,  भूख और प्यास में तथा धनंजय वायु , निद्रा और तंद्रा के लिये सहायक होती हैं। शरीर के किसी भाग में दोष उत्पन्न होने से यदि प्राण और अपान में संतुलन बिगड़ता है तो उससे समान में भी असंतुलन पैदा होेता है , इस के बाद यह तीनों उदान में भी असंतुलन पैदा कर व्यान पर आघात करती है और फिर पाॅंचों मिलकर शरीर के हर कमजोर भाग पर अपना संयुक्त दाब डालकर वाहर निकल जाती है। इस प्रकार धनंजय को छोड़कर सभी वायुएं भौतिक शरीर से बाहर निकल जाती हैं। धनंजय तब तक शरीर में रहती है जब तक उसे जला नहीं दिया जाता । स्पष्ट है कि मानसिक और भौतिक तरंगों में संतुलन का समाप्त होना मृत्यु कहलाता है। भौतिक शरीर से नौ वायुओं के निकल जाने पर मानसिक शरीर भी अब भौतिक शरीर से सामंजस्य नहीं रख पाता अतः अपने संस्कारों के साथ प्रकृति के नियमानुसार अन्य भौतिक शरीर तलाशने में जुट जाता है जहाॅं वह अपने संचित संस्कार भोग सके। कास्मिक रजोगुण का यह दायित्व होता है कि वह इस मानसिक शरीर को एंसी  सूक्ष्म संरचना उप्लब्ध कराये जहाॅं वह अपने संचित संस्कारों को भोग सके।  इस प्रकार विच्छेदित मानसिक शरीर में जीवात्मा साक्षी स्वरूप होता है जो अब कर्माशय या कर्म प्रतिक्रिया के रूपमें सुप्तावस्था में रहता है।


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