Wednesday, 27 June 2018

199 मामेकम् शरणम् ब्रज



199
मामेकम् शरणम् ब्रज

संस्कृत में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने अर्थात् ‘चलने’ के अर्थ में प्रयुक्त किये जाने वाले अनेक शब्द हैं जैसे,
गच्छ- गच्छति, सामान्यतः चलना या जाना। चल्- चलति, सामान्य रूप में चलना। चर्-चरति, खाते हुए चलना। अट्- अटति, पर्यटति, ज्ञान पाने के लिए चलना। ब्रज्- ब्रजति, आनन्द पूर्वक चलना।

संसार के सभी दार्शनिक विचार उस परमसत्ता की ओर जाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जिसने इस समग्र सृष्टि को रचा है। कुछ कहते हैं वह स्वर्ग में रहता है और हम सबसे श्रेष्ठ है, हमें उसे प्रसन्न रखना चाहिए अन्यथा वह हमें दंडित कर नर्क की यातनाएं देगा । कुछ कहते हैं कि वह मंदिरों या तीर्थों में रहता है वहाॅं जाकर हमें अपनी सुख समृद्धि की प्रार्थना करना चाहिए। कुछ कहते हैं कि वह तो सर्वव्यापी हैं उन्हें कहीं ढूॅंड़ने की जरूरत नहीं है। कुछ के अनुसार वह हमारे भीतर ही हैं अतः उन्हें अपने मन की गहराई में ही खोजना चाहिए। कुछ कहते हैं कि यह समग्र ब्रह्माॅंड उन परमपुरुष की विचार तरंगे है अतः हम सभी उनकी ही विचार तरंगों के छोटे से भाग हैं इसलिए उनसे पृथक नहीं हैं उन्हीं के भीतर हैं। जब सब कुछ उन्हीं के भीतर है बाहर कुछ नहीं तो वह तो हमारे परमपिता हुए अतः, हमें अपना पृथक अस्तित्व भूलकर उनकी ओर प्रेमपूर्वक प्रसन्नता से चलने का प्रयास करना चाहिए । मनुष्य जीवन का एकमात्र यही लक्ष्य है।

सच है, अपने पिता से डरने का क्या कारण? आनन्दपूर्वक उनका चिन्तन, मनन और निदिद्यासन (अर्थात् उनकी समीपता का अनुभव करना और ध्यान करना) करते हुए उनकी ओर जाने का कार्य ही कीर्तन, भजन, पूजन, साधन, उपासन और आराधन कहलाता है, अन्य सब व्यर्थ है। इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि ‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् ब्रज’’ अर्थात्, पृथकता, चिन्ता, भय और रोना (द्वितीयक धर्म यानी सभी उपधर्म) छोड़कर, केवल मेरी ओर अर्थात  परमसत्ता की ओर (प्राथमिक धर्म यानी प्रधान धर्म की ओर ) आनन्दपूर्वक चले आओ । यदि चलते हुए गिरने से चोट लग जाए तो तुम्हारा पिता गुणकारी मरहम लगा कर ठीक कर देगा, धूल को पोंछ कर स्वच्छ कर देगा, चिन्ता की कोई बात नहीं । यही समझाने के लिए उन्होंने पूर्वोक्त लगभग समानार्थी शब्दों में से  ‘‘ब्रज्’’, ब्रजति अर्थात् ‘‘आनन्द पूर्वक चलना’’ को ही अपने कथन में प्रयुक्त किया है।

परन्तु, देखो तो! वह लगातार बुला रहे हैं और हम, डरकर उनसे दूर भागते जा रहे हैं प्रकृति के हर क्षण बदलते मायावी स्वरूपों से आकर्षित होकर । इस विचित्र दुनिया के सतत रूपान्तरित होते वर्णक्रम को हमने सबकुछ मान लिया है! ! !


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