49 बाबा की क्लास (साधना पद्धतियाॅं)
रवि- समस्या यह है कि परमपुरुष को पाने की अनेक मानसिक क्रियाएं और पद्धतियाॅं हैं अतः ऐंसा करना याहिये, वैसा करना चाहिये, यह कहना तो सरल है पर किया कैसे जाय? वह विधि कौनसी है जिसका पालन करने पर ब्रहम् के साथ एकीकरण हो जाता है?
बाबा- आध्यात्मविज्ञान के पुरोधा ऋषियों ने अपने अनुभवों के आधार पर अष्टाॅंगयोग की विधि को प्रतिपादित कर मनुष्यों को नयी दिशा दी थी पर कालक्रम में अनेक विद्वानों ने अपने अपने मत और संप्रदायों की अहंकार भरी भावनाओं से उस विधि में अनेक विकृतियाॅं कर डाली और सरलता लाने के प्रयास में खंड खंड में विभाजित कर उसे अप्रभावी कर डाला। कुछ विद्वानों ने वामाचार और कुछ ने दक्षिणाचार को अपनाया।
नन्दू- यह वामाचार और दक्षिणाचार क्या हैं बाबा?
बाबा- लक्ष्य हो या नहीं अंधकार के विरुद्ध संघर्ष करता जाऊंगा और अंत में माया नष्ट कर सिद्धि लाभ करूंगा इस भावना को वामाचार कहते हैं, इसमें साधक को विपत्ति में पड़ने और अधोगति में जाने की संभवना होती है क्योंकि वामाचारी साधक अपनी अर्जित शक्तियों का दुरुपयोग करने लगता है और पशुत्व की ओर गति कर बैठता हैं। दक्षिणाचार में साधक प्रकृति से अनुनय विनय कर प्रकृति को वश में करना चाहते हैं। वे कहते हें कि हे प्रकृति! तुम अपना अंधकार समेट लो और मेरे लिये मार्ग बना दो। इस प्रकार क्या किसी की खुशामद से मुक्ति पाई जा सकती है? खुशामद भीरु का लक्षण है। शक्तिशाली व्यक्ति, भीरु की खुशामद से प्रसन्न हो कुछ सुविधा दे सकता है पर पूरी स्वाधीनता नहीं दे सकता ।
राजू- तो इन से श्रेष्ठ क्या कुछ नहीं है?
बाबा- इन विधियों के दोषों को दूर करने के लिये आया मध्यमाचार। इस के अनुसार विद्या की सहायता से संघर्ष करते हुए अविद्या को हरा कर, विद्या और अविद्या दोनों को त्याग कर ब्रह्म की चरमावस्था में स्थित होना पड़ता है।
इंदु- बाबा! इस मध्यमाचार में बहुत कठिन विधियों का प्रयोग किया जाता है या सरल? वे कौन सी हैं?
बाबा- मध्यमाचार की अवधारणाओं के आधार पर मुख्यतः यह पद्धतियाॅं प्रचलित हैंः-
(1) शैवाचार (2) शाक्ताचार (3) वैष्णवाचार (4) गणपत्याचार (5) सौराचार।
शैवाचार का लक्ष्य शिवसमाधि अर्थात् आत्मसाक्षात्कार है, इसमें बाहरी वृत्तियों को आन्तरिक करते हुए अंत में परमात्मा में मिलाने का अभ्यास किया जाता है। ‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि‘‘। अर्थात् मन को बाहरी सभी अकर्षणों से भीतर खींचकर अहं तत्व में फिर अहं तत्व को महत तत्व में और महत तत्व को आत्म तत्व में मिला देना चाहिये। इसका अभ्यास विभिन्न स्तरों पर गुरु अपनी देखरेख में कराते हैं।
शाक्ताचार के अनुसार तामसिक शक्ति को भवानी या कालिका शक्ति में मिलना चाहिए जिसका बीजमंत्र ‘‘सम्‘‘ है, इसमें से राजसिक शक्ति को निकालकर भैरवीशक्ति में मिलानाचाहिये जिसका बीज मंत्र है ‘‘शम्‘‘। ( भैरवीशक्ति का अर्थ है ऊर्जा की क्रियाशील अवस्था। ऊर्जा का बीजमंत्र है ‘‘रम्‘‘। सभी लोग भौतिक जगत की उपलब्धियों के साथ ऊर्जा को भी सक्रिय रखना चाहते हैं अतः नाम और यश के प्रेरक (श़ + र = श्र ) और स्त्रींलिंग में यह हुआ श्री, इसे आधार मानकर ही भारत में नाम के आगे श्री लगाने का प्रचलन हुआ। आजकल इस अर्थ में श्री किसी के पास नहीं है फिर भी सभी के नाम के पूर्व में श्री लगाते हैं।) इससे सात्विक शक्ति को खींचकर कौषिकीशक्ति में मिला देना चाहिये। पौराणिक शाक्ताचार के ये क्रमागत पद हैं जिन पर चलकर साधक लाभ पाता है। यहां कालिकाशक्ति का आशय दार्शनिक है, शिव की पत्नी काली अथवा बौद्ध और शिवोत्तर तंत्र की कालिकाशक्ति से इसका कोई संबंध नहीं।
वैष्णवाचार में विश्व की सभी वस्तुओं में विष्णु को व्याप्त मानकर उपासना की जाती है, ‘विस्तारः सर्वभूतस्य विष्णोर्विश्वमिदम जगत्, द्रष्टव्यमआत्मवत् तस्माद्भेदेन विचक्षनैः। अर्थात् यह विस्त्रित द्रश्य और अद्रश्य प्रपंच सभी कुछ विष्णु ही है अतः स्वयं सहित सभी में उनको अनुभव करने का अभ्यास करना चाहिये।
गणपत्याचार में प्राचीनकाल के समूह नेतृत्व वाले गणपति को चुनकर समूह के स्थान पर विश्व के नेता का भाव दिया गया और इन्हें ही परमपुरुष के रूपमें उपासना हेतु कहा गया है। परंतु आजकल इन्हें काल्पनिक आकार प्रकार देकर आडम्बर फैलाया जाता है।
सौराचार मूलतः सूर्य की उपासना से संबंधित है जो दक्षिण रूस के सेक्डोनिया से आये ब्राह्मणों की उपासना पद्धति है। सेक्डोनियन ब्राह्मण वेद या अन्य कोई पद्धति नहीं मानते थे वे केवल ज्योतिष और आयुर्वेद को ही मान्यता देते थे । उनके सूर्य ही उपास्य देवता थे क्योंकि वे मानते थे कि सूर्य से ही पृथ्वी, चंद्र और अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है अतः विश्व के नियन्ता सूर्य ही हैं। यह मत सीमित क्षेत्रों में ही माना गया।
इस प्रकार पौराणिक मान्यताओं को व्यापक प्रसार नहीं मिल पाया क्योंकि इसके कुछ भागों को दार्शनिक मान्यता थी और कुछ को नहीं। यह विवरण प्रकट करता है कि विद्यातन्त्र और उपनिषदों में वर्णित अद्वितीय, निष्कल, सच्चिदानन्दघनसत्ता, परमपुरुष को पाने के उपायों को तथ्यों सहित कोई भी पद्धति , पूर्णतः सम्मिलित नहीं कर पाती वरन् एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयासों में आडम्बर और परस्पर वैमनस्यता को ही बढ़ावा देती है।
रवि- समस्या यह है कि परमपुरुष को पाने की अनेक मानसिक क्रियाएं और पद्धतियाॅं हैं अतः ऐंसा करना याहिये, वैसा करना चाहिये, यह कहना तो सरल है पर किया कैसे जाय? वह विधि कौनसी है जिसका पालन करने पर ब्रहम् के साथ एकीकरण हो जाता है?
बाबा- आध्यात्मविज्ञान के पुरोधा ऋषियों ने अपने अनुभवों के आधार पर अष्टाॅंगयोग की विधि को प्रतिपादित कर मनुष्यों को नयी दिशा दी थी पर कालक्रम में अनेक विद्वानों ने अपने अपने मत और संप्रदायों की अहंकार भरी भावनाओं से उस विधि में अनेक विकृतियाॅं कर डाली और सरलता लाने के प्रयास में खंड खंड में विभाजित कर उसे अप्रभावी कर डाला। कुछ विद्वानों ने वामाचार और कुछ ने दक्षिणाचार को अपनाया।
नन्दू- यह वामाचार और दक्षिणाचार क्या हैं बाबा?
बाबा- लक्ष्य हो या नहीं अंधकार के विरुद्ध संघर्ष करता जाऊंगा और अंत में माया नष्ट कर सिद्धि लाभ करूंगा इस भावना को वामाचार कहते हैं, इसमें साधक को विपत्ति में पड़ने और अधोगति में जाने की संभवना होती है क्योंकि वामाचारी साधक अपनी अर्जित शक्तियों का दुरुपयोग करने लगता है और पशुत्व की ओर गति कर बैठता हैं। दक्षिणाचार में साधक प्रकृति से अनुनय विनय कर प्रकृति को वश में करना चाहते हैं। वे कहते हें कि हे प्रकृति! तुम अपना अंधकार समेट लो और मेरे लिये मार्ग बना दो। इस प्रकार क्या किसी की खुशामद से मुक्ति पाई जा सकती है? खुशामद भीरु का लक्षण है। शक्तिशाली व्यक्ति, भीरु की खुशामद से प्रसन्न हो कुछ सुविधा दे सकता है पर पूरी स्वाधीनता नहीं दे सकता ।
राजू- तो इन से श्रेष्ठ क्या कुछ नहीं है?
बाबा- इन विधियों के दोषों को दूर करने के लिये आया मध्यमाचार। इस के अनुसार विद्या की सहायता से संघर्ष करते हुए अविद्या को हरा कर, विद्या और अविद्या दोनों को त्याग कर ब्रह्म की चरमावस्था में स्थित होना पड़ता है।
इंदु- बाबा! इस मध्यमाचार में बहुत कठिन विधियों का प्रयोग किया जाता है या सरल? वे कौन सी हैं?
बाबा- मध्यमाचार की अवधारणाओं के आधार पर मुख्यतः यह पद्धतियाॅं प्रचलित हैंः-
(1) शैवाचार (2) शाक्ताचार (3) वैष्णवाचार (4) गणपत्याचार (5) सौराचार।
शैवाचार का लक्ष्य शिवसमाधि अर्थात् आत्मसाक्षात्कार है, इसमें बाहरी वृत्तियों को आन्तरिक करते हुए अंत में परमात्मा में मिलाने का अभ्यास किया जाता है। ‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि, ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि‘‘। अर्थात् मन को बाहरी सभी अकर्षणों से भीतर खींचकर अहं तत्व में फिर अहं तत्व को महत तत्व में और महत तत्व को आत्म तत्व में मिला देना चाहिये। इसका अभ्यास विभिन्न स्तरों पर गुरु अपनी देखरेख में कराते हैं।
शाक्ताचार के अनुसार तामसिक शक्ति को भवानी या कालिका शक्ति में मिलना चाहिए जिसका बीजमंत्र ‘‘सम्‘‘ है, इसमें से राजसिक शक्ति को निकालकर भैरवीशक्ति में मिलानाचाहिये जिसका बीज मंत्र है ‘‘शम्‘‘। ( भैरवीशक्ति का अर्थ है ऊर्जा की क्रियाशील अवस्था। ऊर्जा का बीजमंत्र है ‘‘रम्‘‘। सभी लोग भौतिक जगत की उपलब्धियों के साथ ऊर्जा को भी सक्रिय रखना चाहते हैं अतः नाम और यश के प्रेरक (श़ + र = श्र ) और स्त्रींलिंग में यह हुआ श्री, इसे आधार मानकर ही भारत में नाम के आगे श्री लगाने का प्रचलन हुआ। आजकल इस अर्थ में श्री किसी के पास नहीं है फिर भी सभी के नाम के पूर्व में श्री लगाते हैं।) इससे सात्विक शक्ति को खींचकर कौषिकीशक्ति में मिला देना चाहिये। पौराणिक शाक्ताचार के ये क्रमागत पद हैं जिन पर चलकर साधक लाभ पाता है। यहां कालिकाशक्ति का आशय दार्शनिक है, शिव की पत्नी काली अथवा बौद्ध और शिवोत्तर तंत्र की कालिकाशक्ति से इसका कोई संबंध नहीं।
वैष्णवाचार में विश्व की सभी वस्तुओं में विष्णु को व्याप्त मानकर उपासना की जाती है, ‘विस्तारः सर्वभूतस्य विष्णोर्विश्वमिदम जगत्, द्रष्टव्यमआत्मवत् तस्माद्भेदेन विचक्षनैः। अर्थात् यह विस्त्रित द्रश्य और अद्रश्य प्रपंच सभी कुछ विष्णु ही है अतः स्वयं सहित सभी में उनको अनुभव करने का अभ्यास करना चाहिये।
गणपत्याचार में प्राचीनकाल के समूह नेतृत्व वाले गणपति को चुनकर समूह के स्थान पर विश्व के नेता का भाव दिया गया और इन्हें ही परमपुरुष के रूपमें उपासना हेतु कहा गया है। परंतु आजकल इन्हें काल्पनिक आकार प्रकार देकर आडम्बर फैलाया जाता है।
सौराचार मूलतः सूर्य की उपासना से संबंधित है जो दक्षिण रूस के सेक्डोनिया से आये ब्राह्मणों की उपासना पद्धति है। सेक्डोनियन ब्राह्मण वेद या अन्य कोई पद्धति नहीं मानते थे वे केवल ज्योतिष और आयुर्वेद को ही मान्यता देते थे । उनके सूर्य ही उपास्य देवता थे क्योंकि वे मानते थे कि सूर्य से ही पृथ्वी, चंद्र और अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है अतः विश्व के नियन्ता सूर्य ही हैं। यह मत सीमित क्षेत्रों में ही माना गया।
इस प्रकार पौराणिक मान्यताओं को व्यापक प्रसार नहीं मिल पाया क्योंकि इसके कुछ भागों को दार्शनिक मान्यता थी और कुछ को नहीं। यह विवरण प्रकट करता है कि विद्यातन्त्र और उपनिषदों में वर्णित अद्वितीय, निष्कल, सच्चिदानन्दघनसत्ता, परमपुरुष को पाने के उपायों को तथ्यों सहित कोई भी पद्धति , पूर्णतः सम्मिलित नहीं कर पाती वरन् एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयासों में आडम्बर और परस्पर वैमनस्यता को ही बढ़ावा देती है।
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