50 कथा
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‘‘ पंडित जी महाराज! आपकी कथा में लगभग रोज ही इस बात की चर्चा होती है कि वह परमसत्ता परमेश्वर अनन्त है, असीम है अमाप्य है, अद्वितीय है, परंतु कृपा कर यह बतायें कि उसे इन मनुष्यों के द्वारा मंदिरों में कैद कर सीमित स्थान में कैसे बाॅंध दिया जाता है?‘‘
‘‘ यह तो बिलकुल सही है, ‘वह‘ अनन्त है। और, उसे पूरी तरह कोई भी आज तक जान ही नहीं पाया, शास्त्र कहते हैं कि केवल ‘वही‘ अपने आप को पूरी तरह जानते हैं।‘‘
‘‘ वही तो मैं पूछ रहा हॅूं कि अनन्त सत्ता का मंदिर तो उनकी सीमाओं से बड़ा ही होना चाहिये , अन्यथा वे उसके भीतर कैसे बैठ सकेंगे?‘‘
‘‘इस बहस में अपना समय और बुद्धि खर्च न करो! हमलोग, ‘उनके‘ लिये क्या मंदिर बनायेंगे जिन्होंने हमें ही नहीं इस समग्र ब्रह्माॅंड को अपनी कल्पना से ही बना रखा है। यह सभी कुछ ‘उनके‘ ही भीतर है। यथार्थतः मंदिर तो उन स्थानों को कहा जाता है जहाॅं पर कुछ देर के लिये सामूहिक रूपसे शान्तिपूर्वक बैठ कर हम परमार्थ पर चिंतन कर सकें , परस्पर इस विषय पर चर्चा कर सकें कि क्या केवल जन्म से मृत्यु तक ही जीवन सीमित है, या इसके अलावा भी कुछ है?‘‘
‘‘ तो फिर यह नियम कानून , निषेध, प्रतिरोध, भेदभाव , संघर्ष और तनाव किस कारण से उत्पन्न हुए हैं?‘‘
‘‘ यह सब, सच्चाई से दूर रहने वाले स्वार्थी तत्वों द्वारा अच्छी तरह बनाया गया व्यवसाय है जो अपनी अलग अलग आभासी दुनिया के निर्माण में दिन रात लगे हैं।‘‘
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