Friday, 27 October 2017

161 छठपूजा

161  छठपूजा 
पूर्वकाल में मगध में बहुत घने जंगल थे इसलिये वहाॅं प्रचुर वर्षा भी होती थी तथा वहाॅं कभी सिंचाई की आवश्यकता ही नहीं होती थी। आर्यों के भारत में आने के पहले मगध के निवासियों का यह विश्वास था कि वहाॅं होने वाली वर्षा सूर्य देवता की कृपा से होती है। इसप्रकार वे अपने प्राचीन रीति रिवाजों के अनुसार सूर्य की पूजा करने लगे। यह पूजा साल में दो बार की जाने लगी एक बार शरद ऋ़तु में धान की फसल आने पर और दूसरी बार बसन्त ऋतु में गेहॅूं की फसल आने पर। 

यही पूजा आजकल वहाॅं छठपूजा के  नाम से जानी जाती है। यह पूजा आर्यों के नियमानुकूल नहीं होती थी। यह तो पूर्णतः स्थानीय मगध के निवासियों के द्वारा बनाई गई थी। मगध के लोगों ने आर्यों के सामने कभी अपना सिर नहीं झुकाया न ही उनके द्वारा निर्धारित की गई पूजा की विधियों को अपनाया। यही कारण है कि आर्यों ने इस धरती को ‘मगध‘ नाम दिया जिसका अर्थ है वेद विरोधी विचारधारा का पालन और प्रसार करने वालों की भूमि।

वे लोग मगध से डरते थे इसलिये उसे आदर की दृष्टि से देखते थे परन्तु अपनी इस कमी को मन से दूर रखने के लिये उन्होंने  इसे अपवित्र भूमि घोषित कर दिया था। उन्होंने इतना तक प्रचार कर रखा था कि यदि कोई मगध की भूमि में मरता है तो उसे स्वर्ग नहीं मिलता है। उन्होंने  अपनी भाषा, सभ्यता और संस्कृति को बल पूर्वक वहाॅं थोपने का प्रयास किया। यह इतिहासज्ञों और सामाजिक विज्ञानियों का काम है कि वे खोज करें कि आर्य लोग अपने इस लक्ष्य को प्राप्त करने में यहाॅं पर कितने सफल हो सके।

मगध ने आर्य सभ्यता को नहीं अपनाया। प्राचीन काल में मगध में जाति और वर्ग भेद नहीं था। बहुत बाद में आर्यो के प्रभाव से यह यहाॅं आया। इस जाति पृथा के आ जाने के बाद भी क्रोंचद्वीपी और मगध के श्रोत्रिय ब्राह्मणों ने इसे नहीं माना यही कारण है कि उत्तर भारतीय ब्राह्मणों ने इन्हें मान्यता नहीं दी।

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