159, बाबा की क्लास ( ध्यान किसका ? )
राजू- जब परमसत्ता एक ही है तो आप उन्हें कभी परमपुरुष, कभी पुरुषोत्तम, कभी तारकब्रह्म और कभी महासम्भूति कहते हैं, क्या इनमें कुछ अन्तर है या केवल शाब्दिक श्रंगार?
बाबा- यह बात तो बिलकुल सत्य है कि परमसत्ता एक ही है इसीलिए उन्हें ‘एकमेव अद्वितीयम’ कहा जाता है। यह तो दार्शनिकों का विश्लेषण है जो उन्हें अनेक नाम दे डालता है।
रवि- लेकिन इससे तो जनसामान्य के मन में बड़ा भ्रम पैदा हो जाता है, वे अलग अलग नामों को लेकर ही उलझते देखे गए हैं?
बाबा- बात यह है कि दार्शनिक तथ्यों को सभी लोग वैसा ही नहीं समझ पाते जैसा दार्शनिक सिद्धान्त यथार्थ में होता है। इसलिए, विद्वान उसके सरल भाव को अपने अपने ढंग से समझाने का प्रयास करते हैं । इस प्रयास में शब्दजाल इतना उलझ जाता है कि वे न तो पूरी तरह समझा पाते हैं और न ही समझने वाले पूरी तरह समझ पाते हैं। इसलिए याद रखना ‘‘एको सत् विप्राः बहुधा वदन्ति’’ अर्थात् सत्य केवल एक ही है विद्वान लोग उसकी अनेक प्रकार से व्याख्या करते रहते हैं ।
इन्दु- तो यह मान लिया जाय कि राजू ने जो विभिन्न नाम कहे हैं उनमें कोई अन्तर नहीं है?
बाबा- मौलिक रूप में अन्तर नहीं है परन्तु, दार्शनिक आधार पर उनमें बड़ा ही सूक्ष्म अन्तर है। वह एकमेव, अपनी निर्गुणावस्था में प्रकृति को अपने आधीन कर परमानन्दित रहते हैं तब उन्हें ‘‘परमब्रह्म’’ कहा जाता है। जब प्रकृति उन्हें अपने प्रभाव में लेने लगती है तो उनके मन के कुछ भाग में एक से अनेक होने का विचार आता है इस विचाराधीन अवस्था में वे ‘‘परमपुरुष’’ (दार्शनिक नाम) कहलाते हैं। जब उनके विचार को कार्य रूप देने के लिए उनकी प्रकृति यह सृष्टिचक्र रचती है तब उसके साक्षी और नियंत्रणकर्ता रूप में उनका दार्शनिक नाम ‘‘पुरुषोत्तम’’ कहलाता है। सृष्टिचक्र के निर्माण होने पर उनके मन की विचार तरंगें आकार पाने लगती हैं जो संचर और प्रतिसंचर गतियों में निर्माण, पालन और संहार को साथ लेकर चलती रहती हैं इसे ही उनका 'सगुण रूप' कहते हैं । प्रतिसंचर की गति में जब मनुष्य स्तर पर आकर वे प्रकृति के प्रपंच में भ्रमित होने लगते हैं और अग्रगति में मंदन या अवरोध उत्पन्न होने लगता है तब वही उचित मार्गदर्शन देने के लिए मनुष्य रूप में आकर गुरुत्व सम्हालते हैं और ‘‘महासम्भूति ’’ (दार्शनिक नाम) कहलाते हैं। महासम्भूति अपने निर्धारित कार्यक्रम को सम्पन्न करते समय और उसके बाद भी जीवों और पुरुषोत्तम के बीच पुल का काम करते हैं जिससे मुमुक्षुगण अपने मूल स्वरूप को पा सकें । इस अवस्था में वे "तारकब्रह्म" (दार्शनिक नाम) कहलाते हैं।
चन्दू- तो ‘ ब्रह्मा ’, ‘ विष्णु ’ और ‘ महेश ’ का स्तर क्या है ?
बाबा- ये सभी सृष्टिचक्र की विभिन्न तरंगों को विधिवत चलाए रखने के लिए उन्हीं की क्रमागत अवस्थाओं के दार्शनिक नाम हैं। तुम लोग जानते हो कि निर्माण का बीजमंत्र है ‘अ’ इसलिए ब्रह्म जब प्रकृति के माध्यम से निर्माण कार्य करते हैं तब ‘ब्रह्म’ + ‘अ’ = ‘‘ब्रह्मा’’ कहलाते हैं । अब निर्मित वस्तु को बनाए रखने अर्थात् पालन करने का कार्य आता है जो सृष्ट जगत के प्रत्येक अणु से जुड़ा होता है इसलिए जगत का पालन करने के समय वही ‘विष्णु’ कहलाते हैं जो प्रत्येक अणु में व्याप्त होकर यह कार्य करते हैं। जगत का अर्थ है जो गतिशील है अतः जब वही परमसत्ता प्रत्येक निर्माण को अपने मूल स्थान तक पहुचाने का कार्य करते हैं तब ‘महेश’ कहलाते हैं। इसी निर्माण, पालन और संहार के द्वारा ‘‘सगुण ब्रह्म’’ अपने आप में रूपान्तरण करते रहते हैं और सृष्टिचक्र चलता रहता है।
रवि- इन नामों की झंझट तो दूर हुई, पर आपने अनेक बार कहा है कि हमें ‘परमपुरुष’ का ध्यान करना चाहिए क्योंकि वही एकमात्र ध्येय हैं। अभी आपने बताया कि परमपुरुष तो निर्गुण अर्थात् आकारहीन हैं तो उनका ध्यान कैसे कर सकते हैं, यह तो संभव ही नहीं है?
बाबा- तुम्हारा कहना सही है, निराकार का ध्यान करना संभव नहीं है इसलिए ध्यान तो हम ‘सगुण ब्रह्म’ का ही करते हैं जो कि ‘‘सद् गुरु ’’ के रूप में हमारे ही समान आकार प्रकार के होते हैं और ‘महासम्भूति’ कहलाते हैं। हम उन्हें ही पहचान सकते हैं अन्य किसी को नहीं। मानव सभ्यता के इतिहास में अब तक भगवान सदाशिव और भगवान श्रीकृष्ण ही ‘‘जगद् गुरु , महासम्भूति और तारकब्रह्म’’ का स्तर पा सके हैं क्योंकि वे ‘महाकौल’ हैं अर्थात् वे दूसरों को कौलगुरु बनाने की योग्यता रखते हैं।
राजू- जब सद् गुरु ही महासम्भूति और तारकब्रह्म होते हैं तो उनका ही ध्यान करना उचित लगता है परन्तु हम कैसे पहचानेंगे कि ये सद् गुरु हैं या नहीं, क्योंकि गुरुओं की तो भरमार है?
बाबा- जब किसी के मन में उनके पाने की चाह तीब्र हो उठती है तो आध्यात्मिक खिचाव से वे स्वयं पास आते हैं । वे ‘पुरश्चरण की क्रिया’ में प्रवीण होते हैं अर्थात् वे प्रत्येक के भीतर स्थित मूल ऋणात्मिका (फंडामेंटल नेगेटिविटी) को पहचान कर उसे अपनी इच्छा से जागृत कर सकते हैं और मूल धनात्मिका (फंडामेंटल पाजीटिविटी) अर्थात् परमशिव से संयुक्त कराकर आत्मसाक्षात्कार कराने की योग्यता रखते हैं। वे अपने सभी संस्कार तो क्षय कर ही चुके होते हैं दूसरों के संस्कार क्षय करने के लिए उन्हें उनका बीजमंत्र देने की क्षमता भी रखते हैं। वे निर्पेक्ष होते हैं परन्तु बीजमंत्र देने के बाद खोजखबर भी रखते हैं कि संबंधित व्यक्ति बताई गई विधियों से सही रास्ते पर चल रहा है या नहीं । गलत होने पर फिर से सुधार कराते हैं, डांटते फटकारते भी हैं परन्तु , इससे भी अधिक प्रेम भी करते हैं । इस प्रकार के गुरु ‘कौलगुरु’ कहलाते हैं, वे स्वयं तो महान होते ही हैं और साधक के प्रसुप्त देवत्व को जगाकर उसे भी महान बना देते हैं। वे अपनी महानता का प्रचार प्रसार नहीं करते और न ही किसी से कोई चाह रखते हैं । वे साधारण दिखाई देते हैं और समग्र ब्रह्मांड के मालिक होते हुए भी सामाजिक नियमों का स्वयं पालन करते हैं और अन्यों को भी उनका पालन कराते हैं। वे शुद्ध और निष्कलंक होते हैं, उनका प्रत्येक कार्य और व्यवहार अनुकरणीय होता है। जो एक बार उनके संपर्क में आ जाता है उनसे दूर नहीं जाना चाहता। इसलिए जब वे उससे दूर होते हैं तो वह सदा ही उन्हीं का स्मरण और चिन्तन करता है जो कि ध्यान का ही रूप है।
इन्दु- आपने एक बार कहा कहा था कि गुरु ही ‘परमब्रह्म’ हैं, तो क्या इसी प्रकार के गुरु के बारे में कहा था?
बाबा- हाॅं, कौलगुरु ही सद् गुरु होते हैं और निश्चय ही वे परमब्रह्म से साक्षात्कार कर चुके होते हैं, उनका अपना कोई संस्कार भोगने के लिए शेष नहीं रहता। वे केवल, उत्कट जिज्ञासुओं पर कृपा करने के लिए ही अपना शरीर धारण किए रहते हैं अपना संकल्प पूरा होते ही वे अपनी भौतिक देह का त्याग कर देते हैं परन्तु जैसा अभी बताया गया है वे तारक ब्रह्म के रूप में सदैव ही रहते हैं और आवश्यक होने पर अपने भक्तों को मार्गदर्शन देने के लिए उसी रूप में या अन्य प्रकार से आने की कृपा करते रहते हैं। उनकी कृपा की कोई सीमा नहीं होती।
चन्दु- इसका अर्थ है कि कौलगुरु का आकार अर्थात् सगुण रूप देखे बिना उनका ध्यान किया ही नहीं जा सकता?
बाबा- निश्चित रूप से यही बात सही है, इसलिए उन्हें पाने की तीब्र इच्छा मन में होना चाहिए ताकि उनसे उपयुक्त बीजमंत्र प्राप्त किया जा सके । फिर, यह उनका कर्तव्य हो जाता है कि जब तक अपने भक्त को अपने जैसा न बना लें तब तक उन्हें देखरेख करना ही होगी अतः कभी भी आध्यात्मिक समस्या के आने पर उन्हें हल करने के लिए पास में आना ही पड़ेगा चाहे उसका प्रकार कोई भी हो। इसलिए उनके केवल आकार को देखते हुए उन पर सोचने को ध्यान नहीं कहते वरन् ध्यान वह है जिसमें हम प्रत्येक क्षण उनकी उपस्थिति का अनुभव करते हुए यह सोचते हैं कि वह हमारी प्रत्येक गतिविधि को लगातार देख रहे हैं। हमें उनकी कृपा प्राप्त करने की ही चाह रखना चाहिए अन्य कुछ नहीं, क्योंकि "सद् गुरु कृपा ही केवलम " ।
नन्दू- जब उनकी कृपा से ही सब कुछ होना है तो हमारे किसी भी प्रयास के करने का क्या महत्व है?
बाबा- हमारा प्रत्येक कार्य उनकी कृपा पाने की योग्यता प्राप्त करने के लिए ही होना चाहिए।
राजू- जब परमसत्ता एक ही है तो आप उन्हें कभी परमपुरुष, कभी पुरुषोत्तम, कभी तारकब्रह्म और कभी महासम्भूति कहते हैं, क्या इनमें कुछ अन्तर है या केवल शाब्दिक श्रंगार?
बाबा- यह बात तो बिलकुल सत्य है कि परमसत्ता एक ही है इसीलिए उन्हें ‘एकमेव अद्वितीयम’ कहा जाता है। यह तो दार्शनिकों का विश्लेषण है जो उन्हें अनेक नाम दे डालता है।
रवि- लेकिन इससे तो जनसामान्य के मन में बड़ा भ्रम पैदा हो जाता है, वे अलग अलग नामों को लेकर ही उलझते देखे गए हैं?
बाबा- बात यह है कि दार्शनिक तथ्यों को सभी लोग वैसा ही नहीं समझ पाते जैसा दार्शनिक सिद्धान्त यथार्थ में होता है। इसलिए, विद्वान उसके सरल भाव को अपने अपने ढंग से समझाने का प्रयास करते हैं । इस प्रयास में शब्दजाल इतना उलझ जाता है कि वे न तो पूरी तरह समझा पाते हैं और न ही समझने वाले पूरी तरह समझ पाते हैं। इसलिए याद रखना ‘‘एको सत् विप्राः बहुधा वदन्ति’’ अर्थात् सत्य केवल एक ही है विद्वान लोग उसकी अनेक प्रकार से व्याख्या करते रहते हैं ।
इन्दु- तो यह मान लिया जाय कि राजू ने जो विभिन्न नाम कहे हैं उनमें कोई अन्तर नहीं है?
बाबा- मौलिक रूप में अन्तर नहीं है परन्तु, दार्शनिक आधार पर उनमें बड़ा ही सूक्ष्म अन्तर है। वह एकमेव, अपनी निर्गुणावस्था में प्रकृति को अपने आधीन कर परमानन्दित रहते हैं तब उन्हें ‘‘परमब्रह्म’’ कहा जाता है। जब प्रकृति उन्हें अपने प्रभाव में लेने लगती है तो उनके मन के कुछ भाग में एक से अनेक होने का विचार आता है इस विचाराधीन अवस्था में वे ‘‘परमपुरुष’’ (दार्शनिक नाम) कहलाते हैं। जब उनके विचार को कार्य रूप देने के लिए उनकी प्रकृति यह सृष्टिचक्र रचती है तब उसके साक्षी और नियंत्रणकर्ता रूप में उनका दार्शनिक नाम ‘‘पुरुषोत्तम’’ कहलाता है। सृष्टिचक्र के निर्माण होने पर उनके मन की विचार तरंगें आकार पाने लगती हैं जो संचर और प्रतिसंचर गतियों में निर्माण, पालन और संहार को साथ लेकर चलती रहती हैं इसे ही उनका 'सगुण रूप' कहते हैं । प्रतिसंचर की गति में जब मनुष्य स्तर पर आकर वे प्रकृति के प्रपंच में भ्रमित होने लगते हैं और अग्रगति में मंदन या अवरोध उत्पन्न होने लगता है तब वही उचित मार्गदर्शन देने के लिए मनुष्य रूप में आकर गुरुत्व सम्हालते हैं और ‘‘महासम्भूति ’’ (दार्शनिक नाम) कहलाते हैं। महासम्भूति अपने निर्धारित कार्यक्रम को सम्पन्न करते समय और उसके बाद भी जीवों और पुरुषोत्तम के बीच पुल का काम करते हैं जिससे मुमुक्षुगण अपने मूल स्वरूप को पा सकें । इस अवस्था में वे "तारकब्रह्म" (दार्शनिक नाम) कहलाते हैं।
चन्दू- तो ‘ ब्रह्मा ’, ‘ विष्णु ’ और ‘ महेश ’ का स्तर क्या है ?
बाबा- ये सभी सृष्टिचक्र की विभिन्न तरंगों को विधिवत चलाए रखने के लिए उन्हीं की क्रमागत अवस्थाओं के दार्शनिक नाम हैं। तुम लोग जानते हो कि निर्माण का बीजमंत्र है ‘अ’ इसलिए ब्रह्म जब प्रकृति के माध्यम से निर्माण कार्य करते हैं तब ‘ब्रह्म’ + ‘अ’ = ‘‘ब्रह्मा’’ कहलाते हैं । अब निर्मित वस्तु को बनाए रखने अर्थात् पालन करने का कार्य आता है जो सृष्ट जगत के प्रत्येक अणु से जुड़ा होता है इसलिए जगत का पालन करने के समय वही ‘विष्णु’ कहलाते हैं जो प्रत्येक अणु में व्याप्त होकर यह कार्य करते हैं। जगत का अर्थ है जो गतिशील है अतः जब वही परमसत्ता प्रत्येक निर्माण को अपने मूल स्थान तक पहुचाने का कार्य करते हैं तब ‘महेश’ कहलाते हैं। इसी निर्माण, पालन और संहार के द्वारा ‘‘सगुण ब्रह्म’’ अपने आप में रूपान्तरण करते रहते हैं और सृष्टिचक्र चलता रहता है।
रवि- इन नामों की झंझट तो दूर हुई, पर आपने अनेक बार कहा है कि हमें ‘परमपुरुष’ का ध्यान करना चाहिए क्योंकि वही एकमात्र ध्येय हैं। अभी आपने बताया कि परमपुरुष तो निर्गुण अर्थात् आकारहीन हैं तो उनका ध्यान कैसे कर सकते हैं, यह तो संभव ही नहीं है?
बाबा- तुम्हारा कहना सही है, निराकार का ध्यान करना संभव नहीं है इसलिए ध्यान तो हम ‘सगुण ब्रह्म’ का ही करते हैं जो कि ‘‘सद् गुरु ’’ के रूप में हमारे ही समान आकार प्रकार के होते हैं और ‘महासम्भूति’ कहलाते हैं। हम उन्हें ही पहचान सकते हैं अन्य किसी को नहीं। मानव सभ्यता के इतिहास में अब तक भगवान सदाशिव और भगवान श्रीकृष्ण ही ‘‘जगद् गुरु , महासम्भूति और तारकब्रह्म’’ का स्तर पा सके हैं क्योंकि वे ‘महाकौल’ हैं अर्थात् वे दूसरों को कौलगुरु बनाने की योग्यता रखते हैं।
राजू- जब सद् गुरु ही महासम्भूति और तारकब्रह्म होते हैं तो उनका ही ध्यान करना उचित लगता है परन्तु हम कैसे पहचानेंगे कि ये सद् गुरु हैं या नहीं, क्योंकि गुरुओं की तो भरमार है?
बाबा- जब किसी के मन में उनके पाने की चाह तीब्र हो उठती है तो आध्यात्मिक खिचाव से वे स्वयं पास आते हैं । वे ‘पुरश्चरण की क्रिया’ में प्रवीण होते हैं अर्थात् वे प्रत्येक के भीतर स्थित मूल ऋणात्मिका (फंडामेंटल नेगेटिविटी) को पहचान कर उसे अपनी इच्छा से जागृत कर सकते हैं और मूल धनात्मिका (फंडामेंटल पाजीटिविटी) अर्थात् परमशिव से संयुक्त कराकर आत्मसाक्षात्कार कराने की योग्यता रखते हैं। वे अपने सभी संस्कार तो क्षय कर ही चुके होते हैं दूसरों के संस्कार क्षय करने के लिए उन्हें उनका बीजमंत्र देने की क्षमता भी रखते हैं। वे निर्पेक्ष होते हैं परन्तु बीजमंत्र देने के बाद खोजखबर भी रखते हैं कि संबंधित व्यक्ति बताई गई विधियों से सही रास्ते पर चल रहा है या नहीं । गलत होने पर फिर से सुधार कराते हैं, डांटते फटकारते भी हैं परन्तु , इससे भी अधिक प्रेम भी करते हैं । इस प्रकार के गुरु ‘कौलगुरु’ कहलाते हैं, वे स्वयं तो महान होते ही हैं और साधक के प्रसुप्त देवत्व को जगाकर उसे भी महान बना देते हैं। वे अपनी महानता का प्रचार प्रसार नहीं करते और न ही किसी से कोई चाह रखते हैं । वे साधारण दिखाई देते हैं और समग्र ब्रह्मांड के मालिक होते हुए भी सामाजिक नियमों का स्वयं पालन करते हैं और अन्यों को भी उनका पालन कराते हैं। वे शुद्ध और निष्कलंक होते हैं, उनका प्रत्येक कार्य और व्यवहार अनुकरणीय होता है। जो एक बार उनके संपर्क में आ जाता है उनसे दूर नहीं जाना चाहता। इसलिए जब वे उससे दूर होते हैं तो वह सदा ही उन्हीं का स्मरण और चिन्तन करता है जो कि ध्यान का ही रूप है।
इन्दु- आपने एक बार कहा कहा था कि गुरु ही ‘परमब्रह्म’ हैं, तो क्या इसी प्रकार के गुरु के बारे में कहा था?
बाबा- हाॅं, कौलगुरु ही सद् गुरु होते हैं और निश्चय ही वे परमब्रह्म से साक्षात्कार कर चुके होते हैं, उनका अपना कोई संस्कार भोगने के लिए शेष नहीं रहता। वे केवल, उत्कट जिज्ञासुओं पर कृपा करने के लिए ही अपना शरीर धारण किए रहते हैं अपना संकल्प पूरा होते ही वे अपनी भौतिक देह का त्याग कर देते हैं परन्तु जैसा अभी बताया गया है वे तारक ब्रह्म के रूप में सदैव ही रहते हैं और आवश्यक होने पर अपने भक्तों को मार्गदर्शन देने के लिए उसी रूप में या अन्य प्रकार से आने की कृपा करते रहते हैं। उनकी कृपा की कोई सीमा नहीं होती।
चन्दु- इसका अर्थ है कि कौलगुरु का आकार अर्थात् सगुण रूप देखे बिना उनका ध्यान किया ही नहीं जा सकता?
बाबा- निश्चित रूप से यही बात सही है, इसलिए उन्हें पाने की तीब्र इच्छा मन में होना चाहिए ताकि उनसे उपयुक्त बीजमंत्र प्राप्त किया जा सके । फिर, यह उनका कर्तव्य हो जाता है कि जब तक अपने भक्त को अपने जैसा न बना लें तब तक उन्हें देखरेख करना ही होगी अतः कभी भी आध्यात्मिक समस्या के आने पर उन्हें हल करने के लिए पास में आना ही पड़ेगा चाहे उसका प्रकार कोई भी हो। इसलिए उनके केवल आकार को देखते हुए उन पर सोचने को ध्यान नहीं कहते वरन् ध्यान वह है जिसमें हम प्रत्येक क्षण उनकी उपस्थिति का अनुभव करते हुए यह सोचते हैं कि वह हमारी प्रत्येक गतिविधि को लगातार देख रहे हैं। हमें उनकी कृपा प्राप्त करने की ही चाह रखना चाहिए अन्य कुछ नहीं, क्योंकि "सद् गुरु कृपा ही केवलम " ।
नन्दू- जब उनकी कृपा से ही सब कुछ होना है तो हमारे किसी भी प्रयास के करने का क्या महत्व है?
बाबा- हमारा प्रत्येक कार्य उनकी कृपा पाने की योग्यता प्राप्त करने के लिए ही होना चाहिए।
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