Sunday 15 October 2017

157, बाबा की क्लास ( ईश्वर को देखना )

157, बाबा की क्लास ( ईश्वर को देखना )

रवि- जब हम समाज में ईश्वर की चर्चा करते हैं, तो अनेक लोगों को यह कहते सुना जाता है कि क्या किसी ने ईश्वर को देखा है? उन्हें क्या कहें?
बाबा- यह प्रश्न तभी उठता है जब हम यह मान लेते हैं कि ईश्वर से हम अलग हैं। उपनिषदें  कहती हैं कि यह सब दृश्य जगत एक ही परमसत्ता अर्थात् ईश्वर का सगुण रूप है। इसमें वह सब कुछ जो हमें दिखाई देता है और नहीं भी दिखाई देता, सम्मिलित हैं अर्थात् इसी में हम सब भी आ जाते हैं। इस प्रकार यह सब कुछ उनके मन की रचना ही है और उनके मन के भीतर ही स्थित है। उनके मन के बाहर कुछ भी नहीं है। इससे यही सिद्ध होता है कि वह हमारे कर्ता और हम उनके कर्म हैं और वे हमें लगातार देख रहे हैं। हमसे और सबसे वह ओत और प्रोत योग से जुड़े हैं। इस तरह एक कर्म अपने कर्ता को भौतिक स्तर पर कैसे देख सकता है।

राजू- यह शब्दावली कुछ कठिन सी लग रही है, किसी अन्य प्रकार से समझाइए न ?
बाबा- वैज्ञानिक भाषा में यह सभी दृश्य और अदृश्य संसार उस परम सत्ता के परम मन की विचार तरंगे है जिनमें से एक अत्यंत क्षुद्रतरंग, हम लोग हैं।  इसलिए कोई एक तरंग, अपने ‘उद्गम श्रोत’ से जुड़े होने का अनुभव तो कर सकती है परन्तु भौतिक रूप से देख नहीं सकती क्यों कि वह भौतिक जगत का विषय नहीं है । उसे मानसिक रूप से  ही व्यक्तिगत स्तर पर मानसिक तरंगे भेज कर उनके परम मन के साथ अनुनादित किया जा सकता है। जिसने उनसे अनुनाद कर लिया वह उन्हें अपने भौतिक जगत की किसी भी भाषा में व्यक्त नहीं कर पाता ।

इन्दु- ऐसा क्यों है कि उसे भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता?
बाबा-  हमारे मन की प्रकृति यह है कि वह भौतिक जगत की वस्तुओं जैसे धन, पद, प्रतिष्ठा या नाते रिश्तेदारों को ही चाहता है उन्हें ही प्रेम करता है । परमपुरुष ने अपनी विचार तरंगों में एक दूसरे के प्रति आकर्षण का गुण भर दिया है जिससे सब भौतिक जगत की ओर आकर्षित होकर उसी को चाहते हैं। स्पष्ट है कि जो मानसिक जगत का सृष्टा हो उसे मानसिक स्तर पर ही चाहा जा सकता है उससे मानसिक स्तर पर ही आकर्षित हुआ जा सकता है और मानसिक स्तर पर ही प्रेम किया जा सकता है जो हम नहीं करते, इसलिए हम उसे देख भी नहीं पाते और उसके विषय में कुछ कह भी नहीं पाते। जो उन्हें पाना चाहते हैं उन्हें उनसे मानसिक स्तर पर ही जुड़ना होगा। यह मानसिक रूप से जुड़ने की क्रिया ही साधना कहलाती है और अष्टाॅंग योग की साधना सर्वोत्तम है।

चन्दू- कुछ विद्वान कहते हैं कि वह परमसत्ता केवल श्रद्धा से ही समझ में आ सकती है?
बाबा- विश्वास  और समर्पण के संयुक्त भाव को श्रद्धा कहते हैं, अंग्रेजी में इसका कोई शब्द नहीं है। जीवन का जो कुछ भी मूलाधार है वह सत कहलाता है और जब सभी ज्ञान और भावनायें इसी को प्राप्त करने के लिये चेष्टा करने लगती हैं तो यह ‘श्रत‘ कहलाता है, और इससे जुड़ी भावना को श्रद्धा कहते हैं। ‘‘श्रत् सत्यम तस्मिन धीयते या सा श्रद्धा’’। इसलिए श्रद्धावान अवश्य ही यथार्थ ज्ञान को प्राप्त कर लेता है।

राजू- एक बार आपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कुछ सूत्र बताए थे उन्हें हम भूल चुके हैं, वे क्या हैं फिर से बताइए?
बाबा- सबसे पहला सूत्र है कि, ‘‘ यह विश्वास होना कि मैं अपने लक्ष्य की प्राप्ति करूंगा ही ’’ दूसरा सूत्र है, ‘‘श्रद्धायुक्त होना‘‘ तीसरा सूत्र है, ‘‘ गुरुपूजनम’’ अर्थात् गुरु के निर्देशों का पालन करना। चौथा  सूत्र है,  ‘‘ समता भाव होना’’ पाॅंचवां सूत्र है, ‘‘प्रमिताहार’’ अर्थात् संतुलित सात्विक भोजन करना, छठवां सूत्र है, इंद्रियों पर नियंत्रण रखना, बस यही छः  सूत्र है इनके अलावा कुछ नहीं है।

इन्दु- कुछ लोग कहते हैं कि अपने धर्म का पालन करते रहो बस, इसके अलावा कुछ नहीं ?
बाबा- हाॅं, हर स्थति में धर्म का पालन करना चाहिये। परन्तु पहले यह समझ लेना  चाहिए कि आखिर हमारा धर्म है क्या ? ‘मानव धर्म’ के चार अंग हैं विस्तार, रस, ,सेवा और तद्स्थिति अर्थात् परमात्मा में लय। प्रथम तीन के संयुक्त प्रभाव से ही चौथा  स्तर प्राप्त हो सकता है। धर्म की गति अत्यंत सूक्ष्म होती है अतः जगत के कल्याण के लिये कार्य करते हुए अपने आपको मुक्ति के रास्ते पर चलाने की अभ्यास करने का नाम साधना करना  है जो प्रत्येक मानव का धर्म है क्योंकि इसी से परमात्मा प्राप्त होते हैं।

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