Friday 16 June 2017

131 बाबा की क्लास ( भक्त, प्रेमी, ज्ञानी और योगी )

131 बाबा की क्लास ( भक्त, प्रेमी, ज्ञानी और योगी )

नन्दू- बाबा! कुछ विद्वान कहते हैं कि भक्त वही हो सकता है जो प्रेम करना जानता है, अन्यथा नहीं ?
बाबा- वे सही कहते हैं।

रवि- तो प्रेमी और भक्त एक समान ही हुए ?
बाबा- नहीं, बहुत अन्तर है।

इन्दु- क्या अन्तर है?
बाबा- प्रेम व्यापक शब्द है इसलिए वे सभी प्रेमी कहलाते हैं जो भौतिक वस्तुओं को, भौतिक संबंधियों को, पालतू जानवरों को, स्थानों को या अपनी आदतों को प्रेम करते हैं। भक्त भी प्रेम करता है परन्तु केवल अपने भगवान अर्थात् इष्ट से।

चन्दू- तो भक्त को इस भौतिक जगत से अर्थात् संसार की किसी वस्तु, व्यक्ति , स्थान से कोई प्रेम नहीं होता?
बाबा- अवश्य होता है परन्तु वह सभी में अपने इष्ट का विग्रह ही देखता है, उससे पृथक कुछ नहीं देखता। जहाॅं सामान्य प्रेमी भौतिक जगत की वस्तुओं , सम्पदाओं, व्यक्तियों को प्रेम करने के मामले में पृथक पृथक मानता है वहीं भक्त इन सभी में अपने इष्ट के अलावा कुछ नहीं देखता अतः प्रेम न करने का प्रश्न ही नहीं है।

रवि- तो ज्ञानी को आप क्या कहेंगे?
बाबा- ज्ञानी यदि केवल पाण्डित्य का प्रदर्शन मात्र करता है तो वह मूर्ख से भी निम्न स्तर का माना जाता है परन्तु यदि वह ज्ञानपूर्वक कर्म करता है तो अवश्य ही उसे भक्ति मार्ग का यात्री कहा जा सकता है।

राजू- आपके अनुसार ज्ञान क्या है?
बाबा- आत्मज्ञान ही सर्वोपरि है, अन्य ज्ञान यथार्थ ज्ञान नहीं केवल ज्ञान का अवभास अर्थात् छाया ही हैं। ज्ञान की छाया देखकर कोई वास्तविक सार तत्व को नहीं जान सकता।

इन्दु- तो फिर भक्ति को ज्ञान से निम्न स्थान प्राप्त हुआ?
बाबा- अभी मैंने कहा है कि ज्ञानपूर्वक कर्म करने से ही भक्ति प्राप्त होती है इसलिए भक्ति को जिसने पा लिया उसे फिर किसी को पाने की आवश्यकता नहीं होती । मोक्ष पाने के जितने भी साधन हैं उनमें भक्ति सर्वश्रेष्ठ है। एक बार भक्ति प्राप्त हो गई तो फिर ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती।

चन्दू- ठीक है, पर ज्ञान और भक्ति में कुछ सम्बंध है या नहीं?
बाबा- अच्छा , इसे इस प्रकार समझने का प्रयास करो। ज्ञान है बड़ा भाई और भक्ति है उसकी छोटी बहिन। बड़ा भाई ज्ञान आपनी छोटी बहिन भक्ति की अंगुली पकड़ कर रास्ते में चल रहा है, आने जाने वाले राही ज्ञान से पूछते हैं कि क्या यह तुम्हारी बहिन है? वे ज्ञान से आश्वस्त हो जाने पर फिर ज्ञान से नहीं उसी बहिन से बात करने लगते हैं , वाह! कितनी सुन्दर है, कहाॅं जा रही हो, पढ़ती हो, किस क्लास में पढ़ती हो, आदि आदि । ज्ञान, भक्ति को पाने का साधन है, एक बार वांछित लक्ष्य पा लेने के बाद ज्ञान का फिर कोई उपयोग नहीं रहता।

नन्दू- क्या यह व्याख्या विचित्र नहीं लगती?
बाबा- अरे! कागज की प्लेट में खाने की सामग्री रखकर खाने के समय क्या उद्देश्य रहता है? यही न कि भोजन स्वाद पूर्वक कर लिया जाय। ज्ञान है कागज की प्लेट और भोजन खाकर तृप्त होना है भक्ति । जब भोजन प्राप्त कर लिया तब उस प्लेट का क्या करते हो? वह फेक देने के अलावा किस काम की रहती है?

राजू- कुछ विद्वान कहते हैं कि जीवन का लक्ष्य "मुक्त होना" है, जबकि कुछ कहते हैं  कि "मोक्ष "? क्या दोनों  बाते समान हैं?
बाबा- नहीं, एक समान नहीं हैं। मानव जीवन का लक्ष्य है मोक्ष पाना।

रवि- तो मुक्ति और मोक्ष में क्या अन्तर है?
बाबा- मुक्ति का अर्थ है सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त होना। बंधन मुक्त हो जाने के बाद मनोभावों के अनुसार पुनः शरीर में बंध जाने की सम्भावना रहती है । मोक्ष का अर्थ है अपने उद्गम के बिन्दु परमपुरुष से मिलकर एक हो जाना । इसके बाद फिर से शरीरों में आने जाने का क्रम सदा के लिए समाप्त हो जाता है।

इन्दु- परमपुरुष से मिलकर एक हो जाने का कार्य जब ‘भक्ति‘ करती है तो ‘योग‘ क्या करता है?
बाबा- योग, भक्ति प्राप्त करने के  लिए ज्ञान की तरह साधन ही है इसलिए कहा गया है ‘‘ संयोगो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मनः‘‘ अर्थात् जीवात्मा का परमात्मा के साथ शक्कर और पानी की तरह मिलकर एक हो जाना ही योग कहलाता है।

चन्दू- परन्तु कुछ विद्वान कहते हैं ‘‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः‘‘ और अन्य ‘‘योगः कर्मसु कौशलम‘‘ ?
बाबा- सही है, यह दोनों कथन भी पूर्वोक्त परिभाषा की सहायक ही हैं। चित्त की वृत्तियों को किस प्रकार निरोध किया जाना चाहिए ? ज्ञान पूर्वक न? इसी प्रकार कर्म करने की कुशलता किस प्रकार आएगी ? ज्ञानपूर्वक कर्म करने से ही न ? तो अभी बताया गया कि ज्ञानपूर्वक कर्म करने से भक्ति प्राप्त होती है और भक्ति से मोक्ष जो कि इकाई चेतना का परमचेतना अर्थात परमपुरुष  के साथ योग करा देता है।

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