Sunday 4 June 2017

130 बाबा की क्लास ( साधना, साधनाॅंग और सहायक )

130 बाबा की क्लास ( साधना, साधनाॅंग और सहायक ) 

नन्दू- आपने साधना की अनेक पद्धतियों के बारे में बताया है परन्तु अष्टाॅंग योग की पद्धति को उत्तम कहा है । जब यह पद्धति एक ही है तब इसके आठ भाग क्यों बनाए गए हैं?
बाबा- तुम लोग यह जानते हो कि हम सभी जानते हुए या अन्जाने में उस एक ही परमसत्ता के चारों ओर विभिन्न कक्षाओं में चक्कर लगा रहे हैं और उसके पास जाने का प्रयास कर रहे हैं।  इन चक्राकार गतियों में मन कभी आगे कभी पीछे और कभी विपथगामी होता रहता है अतः इसे उचित दिशा और रास्ते पर चलाए रखने का प्रयास करना ही साधना है। इसके लिए ऋषियों का कहना है कि हमें अपने पिछले जन्मों के सभी संस्कारों का क्षय करना और नए संस्कारों को उत्पन्न न होने देने का प्रयास करना ही प्रमुख होता है। इष्ट मंत्र के नियमित जाप से पिछले और प्रत्येक कार्य के प्रारंभ में ब्राह्मिक भाव को बनाए रखने से यह दोनों कार्य सम्पन्न हो जाते हैं परन्तु यह कर पाना बहुत ही कठिन होता है इसलिए इसकी सहायता के लिए ही अन्य अंग बनाए गए हैं ।

राजू- तो इस पद्धति के शेष भागों को क्या साधना करने के अन्तर्गत नहीं माना जाता?
बाबा- यह सभी मुख्य साधना के अंग कहलाते हैं जो मूल लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता करते हैं। जैसे, यम और नियम के पालन करने से मन में लक्ष्य के प्रति जागरूकता और संकल्प शक्ति को दृढ़ बनाये रखने में , आसन करने से शरीर को निरोग और स्वस्थ रखने में, प्राणायाम से मन पर नियंत्रण करने में , प्रत्याहार से मन को लक्ष्य पर केन्द्रित करने में , धारणा से मन को विपथन से बचाने में और ध्यान से लक्ष्य के साथ अपना निकट संबंध बनाने में सहायता मिलती है। यही कारण है कि यह सभी साधनाॅंग कहलाते हैं यह अपने आप में पूर्ण साधना नहीं हैं।

रवि- परन्तु अनेक विद्वान तो बौद्धिक स्तर पर की गई प्रगति को ही सब कुछ मानते हैं ?
बाबा- वे , जो आध्यात्मिक साधना किए बिना केवल बौद्धिक उन्नति में ही रुचि लेते हैं वे प्रकृति के प्रभाव में आकर न तो भौतिक जगत में और न ही आध्यात्मिक जगत में प्रगति कर पाते हैं। जो लोग भौतिक जगत की उन्नति को ही सब कुछ मानते हैं वह अपने आप को धोखा देने का कार्य ही करते हैं। इस प्रकार के लोगों से कभी पूछना कि क्या वे इस भौतिक प्रगति से आनन्द पाते हैं? वे कहेंगे नहीं । किसी अच्छे व्यापारी से पूछना कि क्या उसे बहुत लाभ हो रहा है? भले आप इनकम टेक्स विभाग के व्यक्ति न हों परन्तु उसका उत्तर यही होगा कि, नहीं मैं तो बहुत ही नुकसान में हॅूं। इसलिए भौतिकता के क्षेत्र में हो या बौद्धिकता के क्षेत्र में की जाने वाली प्रगति को वास्तविक प्रगति नहीं कहा जा सकता वरन् वह तो समय को व्यर्थ ही व्यय करने के बराबर ही है।

इन्दु- पर हम यह कैसे जान सकते हैं कि आध्यात्मिक प्रगति ही असली प्रगति है?
बाबा- जब तुम उस परमसत्ता की निकटता का अनुभव करोगी तब लगेगा कि भक्तिभाव की सम्पदा जिस के पास है उससे बड़ी संसार की कोई दौलत नहीं है। उस सत्ता के निकट संपर्क में जाने के लिए केवल भक्ति ही काम आती है जो कि मानव जीवन का मुख्य लक्ष्य है। यही असली प्रगति है । हम सभी अनेक जन्मों से इस प्रकार के जीवनों में उलझे रहे हैं और जानकर या अन्जाने ही इनसे आगे जाने के प्रयास करते रहे हैं। उस सत्ता के आकर्षण में सभी बंधे हुए हैं उसका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता । जब तक इस बात का अनुभव नहीं कर लिया जाता है जीवन में सिद्धि अर्थात् लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती।

चन्दू- परन्तु कुछ विद्वान तो साधना करने का कार्य बुढ़ापे के लिए स्थगित करते जाते हैं क्योंकि उनके अनुसार उस अवस्था में ही फुर्सत का अधिक समय रहता है?
बाबा- यह तो ध्रुव सत्य है कि जिसका जन्म हुआ है वह अवश्य ही मरेगा, इतना ही नहीं वह प्रत्येक क्षण मृत्यु की ओर ही बढ़ता जा रहा है, अन्तर केवल यही है  कि  वह नहीं जानता कि वह क्षण कब आएगा। इसलिए यह भी निश्चित नहीं है कि कोई बुढ़ापा आने तक जीवित रहेगा भी या नही। इसलिए बुढ़ापे में जब शरीर दुर्बल हो जाता है और मन मोह माया में फंसता जाता है तब उस समय जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम ‘‘आध्यात्मिक साधना करना ‘‘ वह कैसे कर सकेगा? सोचो! जब मन कमजोरी और बीमारियों के कारण अपने कर्मों और संस्कारों के चिंन्तन में ही उलझा रहेगा, बार बार पुरानी घटनाओं और स्मृतियों में डूबकर मौत से घबरा रहा होगा तब मन को ईश्वर की ओर केन्द्रित करना संभव ही नहीं होगा।

रवि- तो शीघ्र आध्यात्मिक प्रगति पाने के लिए साधनाॅंगों के स्थान पर सीधे ही शीर्ष चक्र पर ही ध्यान लगाना उचित नहीं होगा?
बाबा- नहीं। यह बार बार ध्यान रखना चाहिए कि निम्न उर्जा केन्द अर्थात् चक्र शीर्ष चक्र पर ध्यान केन्द्रित करने में बाधा पहुंचाते हैं इस लिए साधनाॅंगों की सहायता से पहले इन्हें ही स्वच्छ बनाकर नियंत्रित किया जाता है। इसलिए कोई यदि सीधे ही सहस्त्रार पर ध्यान करने लगता है तो उसे अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है और प्रगति कुछ नहीं होती। इसलिए क्रमशः आगे बढ़ना ही उचित होता है।

नन्दू- कुछ विद्वानों को भजन और कीर्तन को महत्व देते देखा जाता है उसका क्या अर्थ है?
बाबा- भजन और कीर्तन भी दोनो ही आध्यात्मिक साधना करने में सहायक होते हैं क्योंकि यह उस परम सत्ता का ही यशोगान करने का साधन हैं। भजन जहाॅं व्यक्तिगत होता है वहीं कीर्तन सामूहिक । अपने इष्ट से सीधे ही जुड़ने का प्रयास भजन द्वारा किया जाता है इसमें भक्ति भाव से उत्पन्न मानसिक तरंगों द्वारा उस परम सत्ता की निकटता की अनुभूति करने का प्रयास किया जाता है। यह धीमे स्वर में ही किया जाता है। कीर्तन में ईश्वर की निकटता का अनुभव करने का प्रयास सामूहिक मानसिक तरंगों द्वारा किया जाता है। इसे जोर से उच्चारण करके किया जाता है ताकि अन्य लोग भी इसे सुनकर लाभ पा सकें। परन्तु दोनों की उपायों में उस परम सत्ता के नाम के गान के अलावा अन्य कुछ नहीं होना चाहिए।

इन्दु- क्या इस आधार पर भक्ति भी अनेक प्रकार की हो जाती है या नहीं?
बाबा- भक्ति तो एक ही प्रकार की होती है परन्तु भक्त की भावना के अनुसार उसके तीन स्तर होते हैं । पहले स्तर पर अहंकेन्द्रित लोग होते हैं जो यह मानते हैं कि ‘‘ मैं हॅूं और मेरे भगवान भी हैं।‘‘ इसमें मुख्य बिन्दु अपने को प्राथमिकता देना है और भगवान को दूसरा। दूसरे स्तर पर भक्त का मन समाज सेवा और साधना के प्रभाव से ईश्वर के अधिक पास आ जाता है और वह उनकी कृपा से उनके ही बारे में अधिक सोचता है और अपने बारे में कम। यह तभी होता है जब वह ईश्वर से प्रेम करने लगता है ठीक उसी प्रकार जैसे माॅं अपने शिशु के बारे में अपने से अधिक सोचने लगती है। वह अनुभव करने लगता है कि , मेरे प्रभु हैं और मैं भी हॅूं। जब साधना करते करते ध्यान में स्थिरता आ जाती है तब भक्त अपने अस्तित्व को भूल जाता है और अनुभव करता है कि केवल परमपुरुष का ही अस्तित्व है। यही भक्ति का अंतिम तीसरा स्तर है। तीनों ही स्थितियों में परमपुरुष का होना अनिवार्य होता है। जहाॅं पहले स्तर पर अहंभाव को प्रथमिकता दी गई होती है वहीं दूसरे स्तर पर अनुभव होता है कि परमपुरुष ही मुख्य हैं और चरम स्तर पर परमात्मा के प्रति असीम प्रेम स्थापित हो जाने के कारण भक्त अपने अस्तित्व को भूल जाता है और परमपुरुष के साथ एक हो जाता है।

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