Friday, 3 July 2015

5 आत्म संयम

5 आत्म संयम 
एक संपन्न सेठ की अचानक मृत्यु हो जाने पर ब्यापार का पूरा काम उसके इकलौते लड़के के ऊपर आ गया।  वह भी अपने पिता के अनुसार बनाई गई ब्यवस्था का पालन करते हुए सफलता पाने लगा, उसकी योग्यता के कारण एक अत्यंत सम्पन्न घराने की सुंदर कन्या से उसका विवाह हो गया। एक बार लड़के को ब्यापार के सिलसिले में 10-15 दिन के लिए शहर से दूर जाना पड़ा, दोनों यौवनावस्था के उस दौर में थे कि एक दूसरे से एक दिन भी दूर नहीं रह सकते थे फिर इतने दिन की दूरी तो साक्षात् मौत ही थी। लड़के की पत्नी बोली आप इतने दिन के लिये हमसे  दूर जा रहे हो, मैं अकेली कैसे रह पाऊंगी? वह बोला घर में सबकुछ है, नौकर चाकर हैं, कोई  कठिनाई नहीं आयेगी, काम पूरा होते ही आ जाऊंगा। उसकी पत्नी  कामुक प्रकृति की थी और  उसपर नई नई शादी , फिर इतना लंबा बिछोह कैसे सहेगी, उसकी यही समस्या थी। 
वह बोली, जिस आवश्यकता की पूर्ति केवल आप ही कर सकते हों वह इन नौकरों और सब साधनों से क्या संभव हो सकेगी? यदि किसी दिन कामुकता ने प्राणघातक हमला कर दिया तो मैं क्या करूंगी? लड़का बोला चिन्ता की बात नहीं, उस दिन तुम छत पर जाकर सूर्योदय से पहले दक्षिण दिशा  में देखना जो व्यक्ति सबसे पहले उस इमली के पेड़ के पास दिखे उसे बुलाकर अपनी इच्छा की पूर्ति कर लेना , यह मेरी सहमति है। यह कहकर सेठ पुत्र यात्रा पर चला गया। इधर तीन चार दिन ही मुश्किल से बीते होंगे कि उसकी पत्नी  कामाग्नि से पीडि़त हुई। बहुत प्रयत्न करने पर भी  जब रहा न गया तो उसने सूर्योदय से पहले ही छत पर पहुँचकर दक्षिण दिशा  में दृष्टि दौड़ाई, उसे एक अत्यंत बृद्ध आदमी केबल लंगोटी पहने, हाथ में  एक मिट्टी का करवा (लोटा) लिए तेजी से जाता दिखाई दिया। उसने फौरन दो नौकरों के लिये उस ओर दौड़ाया और कहा कि उन सज्जन को आदर पूर्वक यहां आने के लिये मेरा निवेदन पहुंचा दो। तत्काल दोनों नौकर उस आदमी के पास पहुंचे और सेठ जी की बहु  का संदेश  पहुंचाया, वह भी तत्काल नौकरों के साथ आ गये, बहु  ने उन्हें नमस्कार करते हुए ऊपर चलने के लिये सीढि़यों की ओर इशारा किया, वह बिना झिझक ऊपर चढ़ने लगे, चार पांच सीढि़यां चढ़ ही पाये थे कि उनके हाथ का करवा (मिट्टीका छोटाघड़ा) जमीन  पर गिर कर चूर चूर हो गया। 
 वे तत्काल मुड़े और वापस लौटने लगे, बहु  बोली, महोदय क्या हुआ, वह तो मिट्टी का था इसलिए टूट गया, मैं आपको सोने ,चांदी जिसका कहें बढि़या लोटा दे दूंगी पर बापस न लौटिए, मेरे साथ चलिये। सज्जन बोले, उस मिट्टी के करवे ने ही मुझे सांगोपांग देखा था, अब दूसरा कोई देखे इससे पहले ही मैं अपना अस्तित्व करवे की भांति छिन्न भिन्न कर देने में ही भलाई समझता हूं। 
इतना कहकर वह चले गए पर सेठ की बहु  का मस्तिष्क सक्रिय कर गये, वह सोचने लगी कि जब यह आदमी एक निर्जीव वस्तु के साथ अपनी एकनिष्ठता नहीं तोड़ सकता तो मैं अपने प्राणप्रिय के साथ यह क्या करने जा रही थी? उसने अपने को धिक्कारा और ईश्वर  को धन्यवाद दिया कि उसने इस आदमी के माध्यम से सद्ज्ञान देकर मेरा  पतन होने से बचा लिया।   

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