Wednesday 8 July 2015

7 --- जी ----

  7 ---  जी ----
मेरे पड़ोस में रहने वाले राजपूत जी की माँ और अन्य बुजुर्ग इसी सप्ताह तीर्थ यात्रा से लौटे हैं। छठवीं में पढ़ने वाली मेरी बेटी ने उन से मिलकर पूंछा कि माताजी ! आप कहाँ कहाँ घूम आयीं ? वे बोलीं , अजुद्याजी , काशीजी ,मथुराजी, द्वारकाजी।  अब , जगन्नाथपुरी जी के दर्शन और करना हैं।  थोड़ी देर में वह वापस आकर मुझ से पूछने लगी , पापा! ये अयोध्या , काशी, मथुरा , जगन्नाथपुरी आदि स्थानों के नाम हैं या आदमियों के? मैंने कहा , ये सब  स्थानों के नाम हैं और कहीं कहीं  आदमियों के भी , क्यों? क्या बात है ?
वह बोली मैं भी भूगोल में इन्हें पढ़ती हूँ कि ये तो स्थान हैं ,पर यह समझ में नहीं आता कि माताजी इन स्थानों के नाम के साथ "जी " क्यों लगातीं हैं , कोई व्यक्ति हो तो फिर भी आदर के लिए जी कहना ठीक है जैसे, मेरी सहेली दिविंदर कौर हर बात में हाँ जी , हाँ जी करती है। परन्तु  कल मेरी सहेली असीमा जैन कक्षा में लेट आई , मेडम ने इसका कारण पूछा तो कहती है "मंदिरजी "में रुकना पड़ा, इसलिए देर हुई।  कितनी अजीब बात है ? है न ? 

मैंने कहा ये स्थान पवित्र होते हैं  इसलिए आदर से जी लगाते हैं।  वह बोली आदमियों तक तो ठीक है पर स्थानों , पत्त्थरों, भवनों को "जी" कहना अटपटा लगता है , पता नहीं यह कहाँ से प्रचलन शुरु हुआ। 
उससे नहीं रहा गया और वह अपने बाबा से यही पश्न करने लगी।  वह, अधिक नहीं बोलते पर उसकी जिज्ञासा को शांत करते हुए बोले, वैदक युग में किसी पढेलिखे वरिष्ठ व्यक्ति को आदर देने केलिए "आर्य" कहा जाता था , फिर यजुर्वेदीय काल में  उच्चारण में "आर्ज " कहने लगे { क्योंकि इसमें य को ज उच्चारित किया जाता है जैसे यज्ञ को जग्य, योग को जोग} फिर अरबी फ़ारसी का जमाना आया तो आर्ज बदलकर  "अजी " हो गया  , अब और अपभ्रंश होकर केवल "जी " बचा है , पर यह हमेशा व्यक्तियों के लिए ही आदरसूचक शब्द रहा है।  मंदिरों , पत्थरों , किताबों  या स्थानों के लिए इस प्रकार सम्बोधित करना अव्यावहारिक है। 
पास ही बैठा मैं , इस व्याख्या को सुनकर आश्चर्य मिश्रित हर्ष में डूब गया और घंटों यह सोचता रहा कि क्या  सच में किसी  शब्द विशेष के प्रचलन के पीछे लम्बा इतिहास और लघु कथा  छिपी  होती है।?

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