Monday 19 January 2015

5.82: सुख दुख , ब्रह्म और जगत (पिछले खंड के सूत्र २५ से आगे)……

5.82:  सुख दुख , ब्रह्म और जगत   (पिछले खंड के सूत्र २५  से आगे)……
26 अनुकूलवेदनीयमं सुखम्। संस्कारों के कारण जिस की मानसिक तरंगें किसी जड़ वस्तु या मानसिक सत्ता से मेल करतीं हैं तो उन्हें वह अनुकूल लगतीं हैं, इन अनुकूल अनुभव होने वाली तरंगों से सुख की अनुभूति होती है।’
27 सुखानुरक्तिः परमा जैवीवृत्तिः। प्रत्येक जीव अपने आप का रक्षण करता है और जीवित रहना चाहता है। सुख के अभाव में उसका सत्ताबोध घटने लगता है अतः वह सुख को कम नहीं होने देना चाहता और सुख को ही परम आश्रय के रूपमें चाहता है।
28 सुखमनन्तमानन्दम। कोई भी जीव थोड़े में संतुष्ट नहीं होता फिर मनुष्य का क्या कहना वह तो अनन्त सुख चाहता है। यह अनन्त सुख वास्तव में सुख और दुख से बाहर की अवस्था है यह इंद्रियों की सीमा से परे है, इस अनन्त सुख का नाम ही आनन्द है।
29 आनन्दं ब्रह्म इत्याहुः। अनन्त वस्तु अनेक नहीं हैं वह एक ही हैं। अनन्तत्व में अनेकत्व नहीं
रह सकता। उस एक आनन्दघनसत्ता का नाम ही परमब्रह्म है जो शिवशक्त्यात्मक है।
30 तस्मिन्नुपलब्धे परमा तृष्णानिवृत्तिः।  अनन्त सत्ता एकमात्र ब्रह्म ही हैं इसलिये उनके भाव में प्रतिष्ठत होने पर जीव की सभी तृष्णायें निवृत हो जाती हैं।
31 बृहदेषणा प्रणिधानम् च धर्मः। जानकर या अनजाने में मनुष्य अनन्तत्व की ओर चलने लगता है। जब जानकर इस ब्रहत् को पाने की चेष्टा की जाती है तो इस हेतु किये जानेवाले ईश्वरप्रणिधान के भाव का ही नाम धर्म है और इसे पाने का प्रयास करना साधना कहलाता है।
32 तस्माद्धर्मः सदाकार्यः। जब सभी सुख ही चाहते हैं और अनन्तत्व को पाये बिना केवल भोगों की कामना करने से तृप्ति होती ही नहीं तो अवश्य  ही सब को धर्म साधना करना ही चाहिये। अन्य जीवों में उन्नत मस्तिष्क न होने से यदि वे धर्मसाधना न करपाये तो कोई बात नहीं पर मनुष्य का मस्तिष्क तो उन्नत है अतः उसे अवश्य  ही धर्म साधना करना चाहिये।
33 विषये पुरुषावभासः जीवात्मा। पारमार्थिक विचार से आत्मा एक ही है । व्यक्त अथवा अव्यक्त जिस किसी भी अवस्था में मन क्यों न हो उसके ऊपर आत्मा का ही प्रतिफलन होता रहता है। मन के ऊपर आत्मा के प्रतिफलन को जीवात्मा कहते हैं और उसके प्रतिफलक को परमात्मा या प्रत्यगातमा। इस प्रतिफलित आत्मा या जीवात्मा  को अणुचैतन्य भी कहते हैं और परमात्मा को भूमाचैतन्य। अणु की समष्टि को भूमा कहते हैं। परमात्मा भूमा मानस की ज्ञातृसत्ता हैं अतः परमात्मा भूमाचैतन्य हैं।
34 आत्मनि सत्तासंस्थितिः। जड़ की सत्ता चित्त के आधार में है चित्त का आधार कर्तृत्वाभिमान में है या स्वामित्वाभिमान में है अर्थात् अहंतत्व में है। कर्तृत्व या स्वामित्व के अभिमान का आधार अस्तित्वबोध में है, ‘‘ मैं हूँ ‘‘ अर्थात् महतत्व में है। यह सत्ता ज्ञान कि ‘‘मैं जानता हॅूं कि मैं हॅूं‘‘ नहीं रहने पर अस्तित्वबोध कम हो जाता है।  अतः सबके मूल में ‘‘मैं जानता हॅूं‘‘ यह रहता है। उसके बाद द्वितीय सत्ता के रूपमें ‘‘मैं हॅूं‘‘  यह रहता है। इस ‘‘मैं जानता हॅूं‘‘ का जो ‘‘मैं‘‘ है वह ही आत्मा है। अतः सारा सत्ता बोध आत्मा पर ही निर्भर है।
35 ओतः प्रोतः योगाभ्यां संयुक्तः पुरुषोत्तमः। विश्व  के प्राण केन्द्र पुरुषोत्तम प्रत्यक्ष भाव से प्रत्येक सत्ता के साक्षी और उसके साथ ही संयुक्त रहते हैं, इसी संयुक्त भाव को ओतयोग कहते हैं। यही पुरुषोत्तम विश्व  की समष्टि सत्ता और समष्टि मानस के भी साक्षी हैं इसे प्रोतयोग कहते हैं। इसलिये जो ओत और प्रोत योग द्वारा अपने विषयों से संयुक्त हैं वही पुरुषोत्तम हैं।
36 मानसातीते अनवस्थायां जगद्बीजम्। सृष्ट वस्तुयें कार्य कारण प्रभाव (cause and effect) के अनुसार चलती हैं। प्रतिसंचर में कार्यों को ढूंडते ढूंडते हम पंच भूत की ओर पहुंच जाते हैं। ठीक इसी प्रकार संचर घारा में कार्यों को खोजते हुए हम ‘महत‘ में पहुंच जाते हैं। महत के ऊपर मन का अधिकार नहीं है अतः उसके लिये वह मनसातीत अवस्था है। इस अवस्था में मन के द्वारा कार्यकारण तत्व का निरूपण कर पाना संभव नहीं है। इसका अर्थ है कि जिस अवस्था में मन का अस्तित्व समाप्त हो जाता है उस में मन है यह मानना दोषपूर्ण है, इसलिये सृष्टि कब उत्पन्न हुई थी , क्यों उत्पन्न हुई थी यह प्रश्न  ही निरर्थक है।
37 सगुणात् सृष्टिरुत्पत्तिः। सृष्ट जगत जब गुणाधिगत रहता है तो यह कहना ठीक ही है कि जगत् की उत्पत्ति सग्रुण ब्रह्म से ही हुई है निर्गुण से नहीं।
38 पुरुषदेहे जगदाभासः। जगत में  व्यक्त या अव्यक्त जो भी है वह ब्राह्मी देह में ही आभास देता है। ब्रह्म के बाहर कुछ भी नहीं है। ब्रह्म से बाहर नाम की कोई चीज है ही नहीं।
39 ब्रह्म सत्यम् जगदपिसत्यमापेक्षिकम्। ब्रह्म सत्य अर्थात् अपरिणामी है परंतु आपात् द्रष्टि से ब्रह्म देह में  जो परिणाम देखा जाता है वह प्रकृति के प्रभाव से देश  काल पात्र तीनों में ही देखा जाता है। इसे हम गलत नहीं कह सकते और शाश्वत  सत्य भी नहीं कह सकते। अतः जगत भी आपेक्षिक सत्य है क्योकि यह देश (space) काल (time) और पात्र(person) पर निर्भर करता है। व्यक्ति सत्ता भी इन तीनों गुणों पर निर्भर है अतः वह भी सापेक्षिक सत्य है। एक सापेक्षिक सत्ता दूसरी सापेक्षिक सत्ता को पारमार्थिक सत्य रूपमें प्रतीत होती
है। इसलिये परिणामयुक्त जीव के लिये परिणामयुक्त जगत भी सत्य रूपमें आभास देता है।
40 पुरुषः अकर्ता फलसाक्षीभूतः भावकेन्द्रस्थितः गुणयन्त्रकश्च । व्यष्टि और समष्टि सभी सत्ताओं के प्राण केन्द्र में पुरुष तत्व की उपस्थिति होती है। समष्टि केन्द्र में स्थित पुरुष ही पुरुषेत्तम हैं। पुरुष अकर्ता हैं क्योंकि गुण प्रवाह के कारण वस्तु देह में जब क्रिया शक्ति उत्पन्न होती है तो उस क्रिया शक्ति को नियंत्रण करने वाले को ही कर्ता कहा जाता है। पुरुष उस गुण समूह का नियंत्रण करते हैं जिनसे क्रिया शक्ति  उत्पन्न होती है अतः वे गुणाधीश  हैं गुणाधीन नहीं।
41 अकत्र्री विषयसंयुक्ता बुद्धिः महद्वा। बुद्धि तत्व या महत्तत्व कुछ कार्य नहीं करता वरन् वह विषय के साथ जुड़ा रहता है।
42 अहं कर्ता प्रत्यक्षफलभोक्ता। अहं तत्व ही प्रकृत रूप में कर्म का कर्ता है और फल का भोग भी वही करता है।
43 कर्मफलम् चित्तम्। जीव का चित्त ही कर्म का फलरूप ग्रहण करता है।
44 विकृतचित्तस्य पूर्वावस्था प्राप्तिर्फलभोगः। कर्म का अर्थ है चित्त की अवस्था में परिवर्तन। यदि इसे विकृति कहा जाये तो इसके बाद चित्त के पूर्वावस्था में लौटने की जो प्रक्रिया है उसे फलभोग कहना होगा।
45 न स्वर्गो न रसातलः। स्वर्ग और नरक नाम की कोई वस्तु नहीं है। मनुष्य जब सत् कर्म करता है या सत् कर्म के फल का भोग करता है तो वह परिवेश  उसके लिये स्वर्ग नाम से जाना जा सकता है और जब कुकर्म करता है या उसका फलभोग करता है तो उसके लिये जो परिवेश  मिलता है उसे नर्क कहा जाता है।
46 भूमाचित्ते संवरधारायां जड़ाभासः। ब्राह्मी चित्त के ऊपर तमोगुणी प्रकृति के अधिक प्रभाव से आकाश  तत्व और आकाश  तत्व के ऊपर तमोगुणी प्रभाव से वायु तत्व और इसी क्रम से अग्नि, जल और भूमि का स्रजन होता है, ये सभी पंच महाभूत कहलाते हैं इन्हीं से अन्य सब जगत की वस्तुयें उत्पन्न होती हैं।
47 भूतलक्षणात्मकं भूतवाहितं भूतसंघर्ष स्पन्दनम् तन्मा़त्रम्। भूतदेह में बाहरी और भीतरी आघातों से जो अलोड़न उत्पन्न होता है , वह तरंग के आकार में सूक्ष्म होकर भूत देह से जीव देह में इंद्रियों के द्वार से प्रवेश  करता है। इंद्रियों के द्वार से अन्य अनेक नाडि़यों की सहायता से या उनके भीतर प्रवाहित रस के माध्यम से मस्तिष्क के उस विंदु में ग्रहण किया जाता है जहाॅं से इन भावों की पहचान होती है। ये भावग्राही तरंगें शब्द ,स्पर्श , रूप, रस और गंध के साथ चित्त को संयुक्त कराती हैं, इस प्रकार की तरंग समूह को
तन्मात्रायें कहते हैं।
48 भूतं तन्मात्रेण परिचीयते। तन्मात्राओं के द्वारा कौन सी वस्तु किस भूत से संबंधित है यह पता किया जा सकता है , आकाश  में केवल शब्द, वायु में शब्द और स्पर्श , तेजस में शब्द स्पर्श  और रूप, जल में शब्द, स्पर्श , रूप और रस तथा पृथ्वी तत्व में शब्द स्पर्श , रूप, रस और गंध इन पाॅंचों तन्मात्राओं को वहन करने का सामर्थ्य  है। आॅंख कान नाक जीभ और त्वचा इन पाॅंच ज्ञानेद्रिंयों का काम है बाहरी भूत समूह से तन्मात्रायें ग्रहण करना। वाक्, पाणि , पाद, पायु, और उपस्थ इन पाॅंच कर्म इंद्रियों के द्वारा आन्तरिक तन्मात्र को बाहर करना और प्राणेन्द्रिय का काम है वस्तु भाव के साथ चित्त भाव को संयुक्त करना तथा छोटा, बड़ा गर्म , ठंडा
आदि का भाव चित्त में निर्मित करना।
49 द्वारः नाडि़रसः पीठात्मकानि इंद्रियानि। जीवदेह के जिस द्वार से तन्मात्र सबसे पहले वस्तु भाव को ले जाता है, वह नाड़ी जो तन्मात्र की तरंग से तरंगायित होती है, तथा नाडि़रस जो तन्मात्रिक स्पंदन को संवाहित करता है और स्नायुकोष के जिस विंदु में तन्मात्र तरंग चित्त से संयुक्त होती है, इन का सामूहिक नाम इंद्रिय है। लौकिक विचार से हम जिसे आॅंख कहते हैं उसके पीछे चक्षु नाड़ी (optic nerve) और चाक्षुस पित्त (optical fluid) है, चाक्षुस रस और स्नायु कोष का चक्षु विंदु या पीठ है, इन सब का संयुक्त नाम नेत्र इंद्रिय है।

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