Tuesday 6 January 2015

5.6 अविद्या और विद्या माया

5.6  अविद्या और विद्या माया
        ब्रह्म, प्रकृति और पुरुष का सम्मिलित रूप हैं। प्रकृति है कर्मशक्ति और पुरुष हैं ज्ञानशक्ति। ब्रह्म का अणु चिकास है जीव, वह भी प्रकृति पुरुषात्मक है। मनुष्य के प्रत्येक कार्य के पीछे कर्तापन का बोध अर्थात् ‘‘मैं हूँ ‘‘ का बोध प्रकृति  स्रष्ट है और इसमें ‘‘मैं हूँ ‘‘ के बोध के पीछे  ‘‘मैं जानता हूँ  कि मैं हूँ ‘‘ यह चरम ज्ञान रूपमें जो ‘मैं‘ है वही मनुष्य की ज्ञानशक्ति है अविकृत पुरुष सत्ता। यर्थाथतः प्रत्येक सत्ता, प्रकृति पुरुषात्मक है, जड़ या चेतन केवल आपेक्षिक भाव हैं। जड़ वह है जहाॅं पुरुष अप्रकट हैं या प्रकृति का प्रभाव अधिक होने के कारण पुरुष प्रकट नहीं हो पाया है वह निद्रित अवस्था में हैं। सूर्य में प्रकृति प्रकट भाव में है और पुरुष अप्रकट। इसी लिये सौर जगत के अधिवासी मनुष्य सहित सभी जीव और वनस्पति अपने को ‘मैं‘ इस रूप में जानते हैं। सौर जगत का प्राणकेन्द्र होने पर भी सूर्य नहीं जानता कि वह सूर्य है। सूर्य में भी चैतन्य सत्ता का प्रकृति के प्रभाव से स्थूल विकास मात्र है परंतु वह चैतन्य अपने ज्ञातत्व का प्रकाश  नहीं कर पाता। प्रकृति विभिन्न प्रकार स्रजन करने वाली शक्ति है, प्रकृति के प्रभाव से ही मनुष्य में जड़ता का भाव आ जाता है। अखंड ब्रह्म देह में विभिन्न प्रकारों को प्रकट करने के लिये प्रकृति उन्हें सीमा वद्ध कर देती है। प्रकृति में तीन गुण सत, रज और तम होते हैं। प्रकृति और माया दोनों एक ही हैं परंतु व्यवहार में थोड़ी भिन्नता है। जहाॅं सत रज और तम में साम्यता होती है वहाॅं प्रकृति कहलाती है पर जहाॅं यह साम्य भाव नहीं है वहाॅं माया कहलाती है।
          इसतरह जब सत्व गुणकी प्रधानता होती है उसे विद्यामाया और जहाॅं तमोगुण की प्रधानता होती है उसे अविद्यामाया कहते है। सभी गुणों की साम्यावस्था में प्रकृति अव्यक्त रहती है वह पुरुष में ही समाहित रहती है परंतु असाम्यावस्था में वह गतिशील हो जाती है और व्यक्त होकर अनेक रूप धारण करती है। माया ही जीव
और समस्त स्रष्टि की जननी है। माया के अभाव में जीव भाव की संम्भावना शिवत्व में ही सुप्त रहती है। इस प्रपंचात्मक जगत का कारण माया ही है। ‘‘ सर्वरूपमयी देवी सर्वदेवीमयं जगत, ततोहं विश्वरूपां तां नमामि परमेश्वरीम्‘‘ । अर्थात् माया ही सर्व रूपमयी है और समस्त जगत का सबकुछ माया ही है। उस विश्व  रूपधारणी माया को मैं प्रणाम करता हॅूं। ब्रह्म भाव और जीव भाव के बीच माया का घना अंधेरा रहने के कारण उसकी आॅंखें यथार्थ नहीं देख पातीं। यथार्थ वस्तु ज्ञान और सत् के दर्शन  के लिये माया के इस अंधकार को हटाना पड़ता है। अतः ‘‘ दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया, मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।‘‘ जिनके जीवन के लक्ष्य हैं ब्रह्म केवल वही इस माया के पार जा सकता है। इसलिये साधना का अर्थ है माया के विरुद्ध संग्राम और सिद्धि का अर्थ है माया को पराजित करना। जीव जब साधना के द्वारा मायाधीश  हो जाता है तब उसकी आत्म ज्योति ब्रह्म ज्योति में मिलकर एकाकार हो जाती है। इसलिये जीवन में लक्ष्य निर्धारित करने पर समय और परिश्रम का अपव्यय नहीं होता और समूह क्षति की संभावना भी नहीं रहती।
        सुषुप्तावस्था ही जड़ता की चरम अवस्था है और इस अवस्था में अणुचैतन्य अभिमानी होते हैं तो उन्हें प्राज्ञ कहा जाता है अतः प्राज्ञ भाव को ही जड़ता के विरुद्ध लड़ना होता है। प्राज्ञ का अर्थ है जीवात्मा पारमार्थिक द्रष्टि से सोया हुआ है, वह भेदात्मक सत्ताओं को जानने , समझने की पूरी योग्यता रखने के बाद भी अविद्या के अंधकार में वह जान नहीं पाता और भेद ज्ञान लिये बैठा रहता है अतः अपनी प्रज्ञा को तमोगुण के हाथों से बचाने के लिये प्राज्ञ को ही अविद्या के विरुद्ध संग्राम करना होगा। लड़ाई अपनी कुप्रवृत्तियों के विरुद्ध भीतर ही भीतर करना होगी। दिखावटी लड़ाई में माला चंदन तिलक में ही सारी कसरत समाप्त हो जाती है इसमें जीत माया की होगी अतः इसके चक्कर में न पड़कर भीतरी लड़ाई से जब विजय माला गले में पड़ेगी तब लगेगा कि उसमें और परमात्मा में कोई अंतर ही नहीं है। वास्तव में तमोगुणी अवस्था में जीवभाव में ज्ञान तो रहता है पर वह निर्विषयक होता है। जैसे अंधेरे में वैठा व्यक्ति आॅंखें होते हुए ,देखने की शक्ति होते हुए भी बाहर का कुछ नहीं देख पाता क्योंकि सभी बाहरी वस्तुएं अंधकार में मिलकर एकाकार हो गईं हैं अतः उसका ज्ञान निर्विषयक है। अविद्या के कारण वह सही सही रूप समझ नहीं पाता और मनमाना मन्तव्य बनाकर भटकता रहता है। अविद्यामाया, ‘‘विक्षेप और आवरणी शक्ति‘‘ से अपना जाल फैलाती है, विक्षेपशक्ति  के प्रभाव से जीव ब्रह्मज्ञान से दूर हटता जाता है और आवरणी शक्ति के प्रभाव से ब्रह्म से निकटता रहने के बाद भी अज्ञान के कारण उससे मेल नही हो पाता, बुद्धि पर आवरण या परदा पड़ा रहता है।
        विद्यामाया में जिन दो अविद्या विरोधी शक्तियों का समावेश  रहता है वे ‘‘संवित शक्ति और ह्लादनी शक्ति‘‘ कहलाती है। संवित शक्ति के द्वारा साधक में अचानक होश  आता है कि उसे अविद्या की आवरणी और विक्षेप शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष करना है, और जब संघर्ष कर वह जिस शक्ति से आगे बढ़कर आनन्दित होने लगता है वह ह्लादिनी शक्ति कहलाती है। जब विद्या और अविद्या का संतुलन होता है तो जीव की तटस्था अवस्था कहलाती है इस स्थिति में थोडा सा भी असंतुलन होता है तो या तो अविद्या या विद्या के प्रभाव में आ जाता है, जैसे नदी के किनारे एक कदम आगे बढाने पर पानी और पीछे हटाने पर जमीन होती है इसी लिये इसे तट कहते हैं और जो इस पर होता है उसे तटस्थ। इसीलिये विद्या की सहायता से संघर्ष करते हुए अविद्या को हरा कर, विद्या और अविद्या दोनों को त्याग कर ब्रह्म की चरमावस्था में स्थित होना होगा। इसे कहते हैं मध्यमाचार। एक विधि यह भी है कि लक्ष्य हो या नहीं अंधकार के विरुद्ध संघर्ष करता जाऊंगा और अंत में माया नष्ट कर सिद्धि लाभ करूंगा। इसे वामाचार कहते हैं, इसमें साधक को विपत्ति में पड़ने और अधोगति में जाने की संभवना होती है क्योंकि वामाचारी साधक अपनी अर्जित शक्तियों का दुरुपयोग करने लगता है और पशुत्व  की ओर गति कर बैठता हैं। अन्य विधि दक्षिणाचार कहलाती है जिसमें साधक प्रकृति से अनुनय विनय कर प्रकृति को वश  में करना चाहते हैं। वे कहते हें कि हे प्रकृति! तुम अपना अंधकार समेट लो और मेरे लिये मार्ग बना दो। इस प्रकार क्या किसी की खुशामद से मुक्ति पाई जा सकती है? खुशामद भीरु का लक्षण है। शक्तिशाली व्यक्ति, भीरु की खुशामद से प्रसन्न हो कुछ सुविधा दे सकता है पर पूरी स्वाधीनता नहीं दे सकता ।
        स्पष्ट है कि माया स्रष्ट यह जगत आपेक्षिक सत्य है जिसमें लगातार परिवर्तन हो रहा है , इसकी कोई भी वस्तु स्थायी नहीं । इसका एक रूप अवलुप्त होता है तब दूसरा स्रष्ट होता है। माया के प्रभाव से ही पुरुष का प्रकाशमान रूप दिखाई देता है, जैसे अग्नि और घृत। अग्नि सगुण पुरुष है और घृत प्रकृति। अग्नि के ज्योतिष्मान स्वरूप को देखने के लिये उसमें घृत का संयोग करना होता हैं इसी प्रकार पुरुष को रूपगत भाव में प्रकट करने के लिये मायिक क्रियाशील शक्ति का होना अपरिहार्य है। यह माया संबंधित पुरुष ही सगुण पुरुष है अन्यथा घृतविहीन अग्नि की तरह वह शान्त हो जाता है। यहाॅं ध्यान देने की बात यह है कि अग्नि को प्रज्जवलित रखने के लिये घृत को स्वयं जलना होता है। ठीक इसी प्रकार जगत की स्रष्टिलीला है सगुण ब्रह्म के स्रष्टिभाव को बचाये रख्ने के लिये प्रकृति की क्रियाशीलता का प्रतिक्षण नाश  होता रहता है। धीरे धीरे वह पुरुष में समाहित होती जाती हैं और सगुण ब्रह्म धीरे धीरे मोक्ष पद की ओर अग्रसर होते चलते हैं, इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कर्मयोग के माध्यम से संस्कार क्षय कैसे होते जाते हैं।
       प्रकृति के नित्यनिवृत्त रूप को जो नहीं मानना चाहते वे अपने को धोखा देते हैं और जो इसको समझ गये हैं वे प्रकृति के आधीन नहीं रहते, जब तक पुरुष भाव का जागरण नहीं होता तब तक साधक के लिये प्रकृति को जान पाना संभव नहीं है। इसी लिये पुरुष भाव को जगाने के लिये ही साधना की आवश्यकता  होती है। जीव भाव अविद्या को लेकर ही बचा रहता है, अविद्या के द्वारा ही वह स्रष्ट होता है और अविद्या के दूर हट जाने पर भेदात्मक जगत भी दूर हो जाता है। जीव भाव और ब्रह्म भाव में अंतर यह है कि जीव प्रकृति के आधीन है और ब्रह्म भाव प्रकृति का आधीश । अविद्या को हराकर जब जीव, ब्रह्म भाव में प्रतिष्ठत होता है तो वह अनुभव करता है कि माया ही एक से अनेक रूप बनाती है जैसे व्यवस्थित दर्पणों के बीच रखा एक फूॅल अनेक फूलों में बदल जाता है। माया रूपी दर्पण में प्रतिबिंवन शक्ति समाप्त होने पर अकेला फूल ही रह जाता है उसी प्रकार माया नहीं रहने पर अप्रकाश  ब्रह्म ही रह जाते हैं उनका कोई सगुण विकास नहीं होता। जीवभाव माया दर्पण में प्रतिफलित ब्रह्म का ही आभास है। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये उसे दर्पण की प्रधानता माननी ही होगी। परंतु पुरुष रूपी नित्य सत्ता कभी प्रकृति के आधीन रहने को वाध्य नहीं है, प्रकृति को ही उसके आधीन रहना पड़ता है क्योंकि पुरुष के अभाव में प्रकृति की क्रिया नहीं हो सकती। जिस प्रकार छोटा सा बटबीज अपने में विशाल बट बृक्ष की संभावना लिये रहता है जिसके फलस्वरूप अनेक बट बृक्ष उत्पन्न हो सकते हैं उसी प्रकार माया अपनी अनन्त प्रतिविम्बन शक्ति से एक ही पुरुष में अनेक जीव स्रष्ट कर पाती है। इसलिये प्रकृति है लगातार बदलते रहने वाली और अपने रूपों में द्रढ़ता रखने वाली । इसीलिये लोग उसकी ओर आकर्षित होते है, मोहग्रस्त होते हैं।
       यह परिवर्तनशीला प्रकृति बड़ी विचित्र है, भोगों के बीच रहकर भोगों को नहीं छोड़ा जा सकता, पर भोंगों का भाव लिये बिना उन्हें भोगा जा सकता है। बुद्धितत्व को मलिनता से मुक्त करने की चेष्टा करना ही साधना है। पुरुष को जानना होगा, मूल पुरुष को जानने के लिये साधना को छोड़कर दूसरी गति नहीं। यह भी याद रखना चाहिये कि छाया को लेकर मत्त रहने से काम नहीं चलेगा क्योंकि शुद्ध दर्पण में छाया को स्पष्ट रूप से
देख सकते हैं पर उससे मूल वस्तु को पा नहीं सकते। स्पष्ट है कि छायामय इस संसार की किसी भी छायावस्तु को सैकड़ों कोशिशों  के बाद भी अपने अधिकार में नहीं लाया जा सकता। छाया को देखकर आनन्द पाते हो क्योंकि वह आनन्द स्वरूप ब्रह्म का ही अवभास है। इसीलिये कहा गया है कि ‘‘ न वा अरे पतुः कामाय पतिः प्रियो भवति, आत्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति। न वा अरे पुत्रस्य कामाय पुत्रः प्रियो भवति आत्मनस्तु कामाय पुत्रः प्रियो भवति। न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवति आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।‘‘  पति के लिये पति प्रिय नहीं होता, पति को पाकर अपने में आनन्द होता है इसलिये पति प्रिय होता है। पुत्र के लिये पुत्र प्रिय नहीं होता पुत्र को पाकर अपने में आनन्दका स्फुरण होता है इसलिये पुत्र प्रिय होता है। दुराचारी पुत्र को पाकर प्रसन्नता नहीं होती अतः माता पिता उसे त्यागने में नहीं हिचकिचाते। प्रकृति के सत्व, रज और तमोगुण के क्रमषः प्रधान प्रभाव से संसार की उत्पत्ति, पालन और संहार होते रहते हैं और इन अवस्थाओं में इनके अभिमानी पुरुष क्रमशः  ब्रह्मा विष्णु और महेश  कहलाते हैं। स्पष्ट है कि जब तक प्रकृति क्रियाशीला रहती है तभी तक ब्रह्मा विष्णु और महेश  का भी अस्तित्व है ये प्रकृति की अव्यक्त अवस्था में ईश्वरग्रास या निर्गुण ब्रह्म में लीन हो जाते हैं। सगुण ब्रह्म, ब्रह्मा विष्णु और महेश  इन तीन अवस्थागत नामों से अपना अपना काम कर रहे हैं इसलिये यह जगत हरि हरात्मक है, प्रत्येक वस्तु में हरि और हर की लीला चल रही है। भार साम्य अवस्था में किसी की रचना नहीं होती यह साम्य नष्ट हो जाने पर ही अभिव्यक्त होती है। हम लोगों का जीवन भी इसी प्रकार का है, जीवन एक अस्थिर साम्य को पुनः प्राप्त करने के लिये नियत प्रयास ही है।
       हमारे जीवन में ‘हरि‘ और ‘हर‘ का संग्राम चल रहा है जब तक ‘हरि‘ की जीत हो रही है तब तक ही प्राणों की उच्छलता है ज्योंही ‘हर‘ की जीत शुरु होती है जीवन का छन्द भी मन्द हो जाता है। ‘हर‘ की प्रतिष्ठा के
साथ ही सारी चपलता, विद्या , बुद्धि नाम यश  कुल गोत्र सारा अहंकार और छटपटाहट खत्म हो मृत्यु के दारुण हिम में जड़ीभूत हो जाती है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश  तीनों पृथक पृथक सत्तायें नहीं है। बल्कि अवस्था भेद से उस एक परमपुरुष का ही विविध प्रकाश  मात्र है। अब यदि यह कहा जाये कि जब जीवभाव ब्रह्मभाव की ही छाया है और उसी तरह चैतन्य है तो फिर उसे पूर्ण ब्रह्म के रूप में क्यों नहीं पाते? ‘‘ सर्वं सर्वमयं सर्वे जीवाः सर्वमयाः सर्वावस्थासु तथाप्यल्पाः स वा एष भूतानीद्रियाणि विराजं देवताः कोशां च सृष्ट्वा प्रविश्यामूढ़ो मूढ़ इव व्यवहरन्नास्ते माययैव।‘‘ यथार्थतः जीव भाव भी सदा ‘स्वभाव‘ में ही स्थित है तथा स्वभावगत रूप से वह मुक्त ही है परंतु जीव के बुद्धितत्व में ब्रह्त की पूर्ण छाया नहीं पड़ती, इसका कारण है ‘क्षुद्र मैं‘ के बुद्धि पट का। जैसे छोटे दर्पण में पूरे हाथी का प्रतिफलन न दिखकर वह खंभे जैसा दिखे तो हाथी का दोष होगा कि दर्पण की छुद्रता का? इसलिये साधक को अपना बुद्धि पट बढ़ाना होगा ताकि वह उसमें समग्र ब्रह्माॅंड का प्रतिफलन कर पाये। मनोमय कोश  की परिधि बढ़ाना होगी जिससे पूर्ण ब्रह्म भाव को आत्मस्थ किया जा सके। इसलिये किसी सीमित वस्तु को बुद्धि के विषय से हटाना होगा। स्पष्ट है कि जीव भाव भी चैतन्यस्वारूप्य के अवभास हेतु सब अवस्थाओं में सर्वत्र, सर्वगत और सर्वज्ञ है परंतु मायारूपी दर्पण में सीमित बुद्धि के कारण पूर्णता का अनुभव नहीं कर पाता। निर्विकल्प समाधि में अविद्या माया के स्तंभित हो जाने से कार्य कारण भाव का वहन करने वाला मन भी नहीं रहता इसलिये किसी बोध शक्ति के द्वारा बोध ग्रहण की संभावना भी नहीं रहती।


सामाधि भंग होने पर बोध भाव के जागने पर लगता है कि एक अपरिचित देश  के अज्ञात आनन्द श्रोत ने  उसकी सर्व सत्ता को आलुप्त कर दिया  है और उसे किसी अतीन्द्रिय चेतना स्पंदित सुरलोक में लिये जा रहा है। इसलिये कहा जाता है कि निर्विकल्प समाधि में साधक नहीं जान पाता कि वह निर्विकल्प समाधि में था। अविद्या के नागपाश  तोड़ कर जो जितनी अपने पौरुष की प्रतिष्ठा कर पाता है वह उतना ही आनन्दस्वरूप को अपना बना कर पकड़ सका है, आनन्दस्वरूप हो सका है।

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