Thursday 1 January 2015

5.5 कर्मविज्ञान (Theory of action)
                       इस सिद्धांत को समझने के लिए कुछ दार्शनिक शब्दों को पहले समझ लेने से सुबिधा रहेगी      अतः इन्हें नीचे पारभाषित किया गया है।
शम्भूलिंग:-  संसार के निर्माता की अलौकिक इच्छा से यह संसार चल रहा है। दर्शनशास्त्र  में
           परमपुरुष  की इच्छा को शम्भूलिंग कहा गया है।
प्रत्ययमूलक कर्म:- स्वतंत्रता पूर्वक किया गया कार्य, अर्थात् मूल कार्य या(original action).
संस्कारमूलक कर्म:- परिस्थितियों के दबाव में आभारी होकर किया गया कार्य, अर्थात् मूल कार्य
         की प्रतिक्रिया, (reaction to the original action)व्यक्ति की परोक्ष इच्छा उसे,
         ब्रह्माॅड में मूल क्रिया के कारण उत्पन्न असंतुलन को संतुलित करने के लिये, साधन बन
         जाती है।
अभिलाषा:- अविद्या माया के प्रभाव से जब मन पर सांसारिकता की तरंगें प्रभावी होती हैं तो वह
         अपनी जड़ता में सीमित रहता है, इस स्थिति को अभिलाषा कहते हैं।
संकल्प:- जब अभिलाषा की जड़ें  गहरी हो जातीं हैं और मानसिक तरंगें द्रढ़तापूर्वक कार्य रूप में
         बदलना चाहतीं हैं, उसे संकल्प कहते हैं।
कृति:- जब मन प्राणेन्द्रिय और कर्मेंद्रिय के साथ जुड़कर कार्य करने लगता है तो उसे कृति कहते हैं।
अवधान:- जब मन प्राणेंद्रिय और ज्ञानेंद्रिय के साथ मिलकर विस्तारित होने लगता है तो उसे अवधान
        या एडवर्टेंस कहते हैं।
        अभिलाषा, संकल्प, कृति, और अवधान सभी क्रियायें ही हैं।
अवधान को तीन भागों में बाॅंटा गया है। अनवधान (inadvertence)] चैत्तिकप्रत्यक्ष (perception)]
और प्रत्यय (conception)। जब भूतकालीन प्रत्यय स्मरणशक्ति के आधार पर पुनः मन में आ जाता है उसे तत्व ज्ञान कहते हैं। तत्वज्ञान कई प्रकार के हो सकते हैं। जब साधना करते हुए जड़ मन सूक्ष्म और सूक्ष्म मन कारण मन में मिलकर अपना अस्तित्व समाप्त कर देता है तो इससे उत्पन्न नयापन वस्तुओं को पूर्णतः भिन्न प्रकार से अनुभव करने लगता है, इस नये प्रकार से अनुभव किये गये चैत्तिक  प्रत्यक्ष को तत्वज्ञान या सिद्धज्ञान कहते हैं।
सुख और दुख की अनुभूति केवल मानसिक क्षेत्र में ही होती है क्योंकि वहीं पर मानसिक अनुभवों के कंपन संचित होते हैं। इस सुख और दुख की अनुभूति से ही संस्कार (reactive momenta) उत्पन्न होते हैं। इसी से वासना या इच्छाएं भी जन्म लेती हैं और इन्हीं इच्छाओं के कारण कर्म करना पड़ता है। क्रिया और इच्छा को पृथक नहीं किया जा सकता। यदि मिट्टी का घड़ा, इच्छा को प्रकट करे तो  उसमें भरा पानी, प्रत्ययमूलक कर्म को प्रकट करेगा। पानी घड़े का ही रूप ले लेता है। पानी रूपी कर्म को इच्छा रूपी घड़े से बाहर निकालने की पद्धति साधना कहलाती है, वह क्रिया जिसमें इच्छारूपी घड़े का आकार बनता है कर्माशय (bundle of reactive momenta)    कहलाता है। मनुष्य का जीवन कैसा होगा यह उसके संस्कारों के बंडल की प्रकृति पर निर्भर करता है।
आध्यात्मिक क्रियाएं या प्रतिक्रियायें जैसे समाधि और साधना, सुख और दुख से ऊपर होती हैं अतः उनसे कर्मबंधन नहीं होता। जब कर्मकम्पन इच्छा के क्षेत्र में घुस जाते हैं तो इसे संस्कार अर्थात् रीएक्शन  इन पोटेशियलिटी कहते हैं। संस्कारों का क्षय, मूल क्रियाओं के कंपनों के समान शक्तिशाली और  विपरीत कम्पन उत्पन्न किये जाने  पर ही हो सकता हैं। एक जन्म के संस्कार अगले जन्म के संस्कारमूलक कर्म के द्वारा क्षय होते हैं क्योंकि किसी के संस्कार उसके जीवनकाल में परिपक्व तब तक नहीं होते जब तक इंद्रियाॅं प्राण और मन अलग नहीं हो जाते। यही कारण है कि किसी के संस्कारों का भोग उसी जीवन में नहीं होता।
क्रिया प्रवाह की समाप्ति पर ही प्रतिक्रिया प्रारंभ होती है और क्रिया की समाप्ति वासनाभाॅंड अर्थात् (pot of desires) के संपर्क में आने और प्रतिक्रिया प्रारंभ होने के क्षण होती है, यही कारण है कि वर्तमान जीवन में संस्कार भोगते समय हम यह नहीं पहचान पाते कि यह पिछले किस कार्य का परिणाम हैं।
अद्रष्टवेदनीय कर्म:- जब पूर्व जन्म के कर्मों की प्रकृति जाने बिना प्रतिक्रिया अनुभव होती है उसे अद्रष्टवेदनीय कर्म या भाग्य कहते हैं। जैसे कोई सद्गुणी व्यक्ति प्रचंड दुख भोगने लगे या कोई दुष्ट व्यक्ति अत्यंत सुखी जीवन जीने लगे।
द्रष्टवेदनीय कर्म:- जब किसी गंभीर बीमारी, छल, या किसी महापुरुष के संपर्क से कुंडलनी के जागृत होने, आदि से मन अस्थिर रूप से ज्ञानेन्द्रियों कर्मेंन्द्रियों और प्राणेन्द्रिय से अलग हो जाता है तो संस्कारों का बंडल पक जाता है और व्यक्ति इसी जन्म में अपने किये का परिणाम भोगने लगता है इसे द्रष्टवेदनीय कर्म कहते हैं। परंतु यह विरला ही होता है, सामान्यतः हम अपने पूर्व जन्म के संस्कार ही इस जन्म में भोगते हैं।
यदि किसी के पिछले जन्म के और वर्तमान जन्म के संस्कार समान हैं तो वह पिछले और इस जन्म के संस्कार साथ साथ भोगने लगता है पर यदि पिछले जन्म से इस जन्म के संस्कार भिन्न होते हैं तो पहले पिछले जन्म के फिर इस जन्म के संस्कार भोगना पड़ते हैं। मूल कर्माें की प्रकृति के अनुसार ही प्रतिक्रिया होती है, यदि कोई व्यक्ति किसी बीमार, ईमानदार , किसी के आश्रित या सन्त को कष्ट देता है तो वह उसी तीव्रता की प्रतिक्रिया तत्काल भोगेगा क्योंकि बीमार, सन्त, आश्रित आदि, गलत कर्म करने वाले के मूलकार्यों को कभी भी विरोध नहीं करते। चाहे अच्छे हों या बुरे जबतक सभी संस्कारों का क्षय नहीं हो जाता मुक्ति मिलना संभव नहीं है।
जबतक शरीर है तब तक कर्म रहेगा अतः आध्यात्मिक साधक को सावधान रहकर नये संस्कारों को वासनाभांड में प्रवेश  नहीं होने देना चाहिए। उचित और लगातार ब्रह्म चिंतन और साधना से वासनाभाॅंड को विशुद्ध चेतना से भरे रहने पर नये संस्कारों को प्रवेश  करने से रोका जा सकता है। लगातार ईशचिंतन करते रहने से नये संस्कारों का जन्म नहीं होगा और पुराने जल्दी ही क्षय हो जावेंगे। सच्चा साधक सुख और दुख दोनों से अप्रभावित रहता है।
अष्टाॅंगयोग की साधना से अपनी सभी इंद्रियों और इच्छाओं को परमचेतना की ओर प्रेषित करते रहने पर कर्माशय में चेतना का प्राधान्य हो जाता है और आसन, प्राणायाम आदि करने से मन और प्राणों पर उचित नियंत्रण हो जाता है, इस तरह मन शुद्ध हो जाता है। इसे अनुभव कहते हैं। मन के शुद्ध हो जाने पर वह धीरे धीरे अनुभव करने लगता है कि वह शरीर नहीं है, इस सजगता के लिये प्रज्ञा कहा जाता है, प्रज्ञा को सात्विक बनाये हुए जब वासनाभांड में चेतना लबालब भर जाती है तो साधक के पुनः जन्म लेने की संभावना कम हो जाती है वह दग्ध बीजवत हो जाता है। कर्माशय के चेतना से भरे होने पर वासनाभाॅड फिर भी रह जाता है जिसे परम पुरुष के चरणों में पूर्णतः समर्पित होकर उन्हें ही सौंपना पड़ता है जो लगातार उन्हीं के चिंतन करते रहने से संभव होता है। उनका इस प्रकार से लगातार चिंतन करते रहना पुरुषख्याति कहलाता है। इसप्रकार जब वासनाभाॅंड सहित सबकुछ परम पुरुष को सौप दिया जाता है तो साधक पूर्णरूप से परम पुरुष में ही मिल जाता है। इसे ही मुक्ति, मोक्ष कहते हैं।

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