It is my pleasure; this blog is being liked and enthusiatically read by the readers of India, USA, Australia ,France, UAE, Germany, Poland and Spain.
The postings in 4-1, 4-2 , 5-2, 5-3, 5-4 sections have been much appreciated during last week.
Though I have explained about Diksha, Mantra, and Yagya etc in 3-2 to 3-4, yet many friends have queried about these philosophical terms. I am therefore illustrating them scientifically in the following post . Hope this will satisfy them and that they will not forget to share their feelings and comments.
दीक्षा क्या है?
दीपज्ञानम यतो दद्यात् कुर्यात् पापक्षयम, तस्मात्दीक्षेति सा प्रोक्ता सर्वतंत्रस्य सम्मता। अर्थात् अनेक जन्मों के संस्कारों को क्षय कर जो विधि ईश्वरत्व की ओर बढ़ने की व्यावहारिक क्रिया सिखाती है उसे दीक्षा कहते हैं। सामान्यतः दो प्रकार की दीक्षायें प्रचलित हैं वैदिक और तान्त्रिक। वैदिक विधि की दीक्षा साधक को सही धर्म को चुनने और परम ब्रह्म की ओर जाने का रास्ता बताती है, इसमें अनेक वैदिक श्लोक प्रयुक्त होते हैं। तान्त्रिकी विधि में सही रास्ते पर चलने की व्यावहारिक विधि योग्यताधारक गुरु सिखाता है जो जड़ता से मुक्त कर इष्ट से मिलने का रास्ता स्वयं समझाता है। वैदिक दीक्षा को शुद्धीकरण की विधि कह सकते हैं दीक्षा नहीं, सही अर्थों में तांत्रिक दीक्षा ही सही होती है क्योंकि उसमें आवश्यक दीक्षा के घटकों जैसे दीपनी, मंत्र, मंत्रचैतन्य और अभिषेक आदि का समावेश होता है। इस प्रकार यदि सही गुरु से दीक्षा लेकर साधक ईमानदारी, नियमितता और समर्पण से साधना करता है तो वह माया के विरुद्ध अपने संग्राम में सफल हो जाता है और आत्मसाक्षात्कार करता है।
वैदिक युग में सात प्रकार के छंदों में वार्ता और आराधना करने की प्रथा थी; वे गायत्री, उष्निक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, जगति, ब्रहति और पंक्ति के नाम से जाने जाते हैं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दसवें सूक्त में परमपुरुष के लिये लिखित सावित्र ऋक गायत्रीछंद में लिखा गया है। लोग गलती से उसे गायत्री मंत्र कहते हैं। वास्तव में यह बुद्धि को शुद्ध करने की एक प्रार्थना है। मन्त्र तो एक या दो अक्षरों का होता है जिसके मनन से मुक्ति मिले उसे ही मंत्र कहते हैं। "मननात तारयेत् यस्तु सः मन्त्रः परिकीर्तितः। "
इस छंद का अर्थ और भावार्थ भी विद्वानों ने अपने अपने ढंग से किया है। शाब्दिक
व्युत्पत्तियों के अनुसार इसका भावार्थ यह है, " उत्पत्ति, पालन और संहार की तरंगों में ओतप्रोत; निर्मित , निर्माणोन्मुख और निर्माण योजनान्तर्गत सभी लोकों को लपेटे उस परम दिव्यसत्ता के सूर्य जैसे तेजस्वी स्वरुप का हम ध्यान वरण करते हैं, जिससे सभी प्रकाशित होते , आनंदित होते ,आते हैं और वहीँ वापस चले जाते हैं ,वह हमारी बुद्धि को शुद्ध करें । "
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियोयोनः प्रचोदयात।
संक्षेप में इसे इस प्रकार समझाया गया है:-
(१) अ, उ और म का संयुक्ताक्षर 'ऊँ ' है और अपने आप में 50 प्रकार की आवृत्तियों की ध्वनियों को समेटे हुए है जो कि वर्णमाला के सभी स्वरों और व्यंजनों का मिश्रण है , अतः इसे किसी भी प्रकार से मनुष्य अपने गले से उच्चारित नहीं कर सकता है। इसे ओंकार ध्वनि कहते हैं , ऊँ ,ऊँ चिल्लाने से कुछ नहीं होता इसे तो मन, बुद्धि और हृदय से अनुभव करना होता है क्योंकि यह cosmic sound of creation है। इसे थोड़े से अभ्यास करने से अनुभव किया जा सकता है। यही अ उत्पत्ति , उ पालन और म संहार का द्योतक और ब्रह्मा, विष्णु, महेश का क्रमशः प्रतिनिधि है। यह सब एक ही सत्ता के तीन प्रकार के कार्यों के अनुसार नाम विशेष हैं ये अलग अलग सत्ताएं नहीं हैं।
(२) माना गया है कि ब्रह्माण्ड के सात लोकों में कुछ निर्मित हो चुके हैं , कुछ निर्माणाधीन हैं और कुछ की निर्माण योजना है यही क्रमश 'भूः ' 'भुवः ' और ' स्वः ' हैं। आधुनिक वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि ब्रह्माण्ड में तारे और गेलेक्सियां उत्पन्न होते , जीवित रहते और नष्ट होते रहते हैं।
(३) " तत्सवितुर्वरेण्यं'' का अर्थ है 'उस सूर्य जैसे तेजस्वी स्वरुप का ध्यान '
(४) "भर्गः "= 'भ' = भेति भास्यते लोकान अर्थात जो सभी लोकों को प्रकाशित करता है,
'र' = रेति रञ्जयति प्रजा अर्थात जिससे प्रजा आनंद प्राप्त करती है, और
'ग ' = गच्छति यास्मिन आगच्छति यस्मात् अर्थात जिससे आते हैं वहीँ
चले जाते हैं ,
(५) "देवस्य धीमहि" अर्थात परमदिव्य सत्ता ,
(६) "धियोयोनः" अर्थात हमारी बुद्धि को,
(७) "प्रचोदयात" अर्थात शुद्ध करें।
यह वैदिकी दीक्षा का सबसे अच्छा छंद है जो परमपुरुष से बुद्धि को शुद्ध करने की प्रार्थना करता है इसके परिपक्व होने पर 'उनकी' कृपा स्वरुप तांत्रिकी दीक्षा का अवसर मिलता है चाहे इसी जन्म में या आगे के। उस समय 'सद्गुरु /महाकौलगुरु' स्वयं बीज मंत्र देकर साधना की विधि को अपने सामने अभ्यास कराकर सिखाते हैं जो परम कल्याण का साधन है और सभी को करने योग्य है।
तांत्रिकी दीक्षा में महाकौल गुरु या उनके द्वारा अधिकृत कौलगुरु सम्बंधित की मूल आवृति अर्थात (fundamental frequency / existential rhythm) को पहिचान कर उसे नियंत्रित करने वाला बीजमंत्र देकर अभ्यास कराते हैं। श्वास के साथ बीजमन्त्र का समन्जयस्य हो जाने पर incantative rhythm बनता है जो existential rhythm के साथ अनुनाद (resonance) कराने पर मन को स्थिर कर देता है। इसके बाद गुरु द्वारा बताई गई बिधि से इस स्थिर मन के rhythm का resonance कराना होता है cosmic rhythm अर्थात औंकार ध्वनि से। इसके लगातार अभ्यास और औंकार ध्वनि से अनुनाद करने पर आत्मसाक्षात्कार (self realization) होता है जिसे विविन्न समाधियों के रूप में अनुभव किया जाता है परन्तु यह अनिवार्य नहीं है कि आत्मसाक्षात्कार के पहले समाधि का अनुभव हो ही। जिनके संस्कार क्षय हो चुकते हैं वे आत्मसाक्षात्कार करने के बाद इस मानव शरीर में रहना ही नहीं चाहते , पर जिनके संस्कार भोगने के लिए बाकी रहते हैं और आत्मसाक्षात्कार हो जाता है तो वे समाज के भले के लिए मानव शरीर को बनाये रखते हैं और अपने अनुभवों और ब्रह्म विद्या को सब को सिखा कर अपने संस्कार क्षय करके मुक्त हो जाते हैं जो कि मनुष्य जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। इसलिए सच्चे जिज्ञासुअों को उचित अवसर अवश्य मिलता है , ईमानदारी से सत्य जानने का प्रयत्न करते रहना चाहिए।
पूर्व में मैंने अपने ब्लॉग में इसका विस्तार से उल्लेख किया है।
यज्ञ क्या है?
इसका अर्थ है कृतज्ञता पूर्वक किया गया कर्म। यह चार प्रकार से किया जाता है, भूतयज्ञ,
नृयज्ञ, पितृयज्ञ और आध्यात्म यज्ञ। भूत का अर्थ है इस संसार में जो भी जिस भी रूप में आया है वह अर्थात् (all created beings) अतः उन सबके लिये निर्पेक्ष भाव से की गयी सेवायें भूतयज्ञ के अंतर्गत आती हैं, जैसे पौधों को पानी देना, पशुओं का पालन करना, वैज्ञानिक शोध कार्य करना और समाज कल्याण के लिये, सबकी भलाई के लिये उनका उपयोग करना। नृयज्ञ वह कार्य है जो मनुष्यों की भलाई के लिये किया जाता है, यर्थातः यह भूतयज्ञ का ही भाग है क्यों कि मनुष्य भी (created beings) ही हैं। पितृयज्ञ का अर्थ है अपने पूर्वजों और ऋषियों को याद करना और कृतज्ञता ज्ञापित करना। जब तक कोई व्यक्ति भौतिक शरीर में रहता है वह अपने पूर्वजों का ऋणी रहता है। ऋषि वे हैं जो समाज की भलाई के लिये नये अनुसंधान कर अनेेक प्रकार से मदद कर रहे हैं या की है तथा वे जो संयमपूर्वक प्राप्त ज्ञान से अपनी मुक्ति स्वयं करने का कार्य कर रहे हैं और समाज को भी लाभान्वित कर रहे हैं ऐंसे ऋषियों का ऋण भी समाज के ऊपर रहता है। परंतु जिन्होंने विध्वंसात्मक शस्त्रों का अनुसंधान किया है उससे समाज को किसी प्रकार का कल्याण नहीं होता अतः वे ऋषि नहीं कहला सकते। इसी लिये पितृयज्ञ करते समय श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित यह भावना रखना चाहिये कि
‘‘ पितृ पुरुषेभ्योनमः , ऋषिदेवेभ्योनमः,
ब्रह्मार्पणमं ब्रह्म हर्विब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ,
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं , ब्रह्मकर्मसमाधिना‘‘।
अर्थात् जिन्होंने अपना प्रत्येक कार्य ब्राह्मिक भाव से करते हुए अपने को ब्रह्म स्वरूप ही बना लिया और अंततः ब्रह्म में ही समाधिस्थ हो गये उन पितृपुरुष ऋषिगणों को प्रणाम।
आध्यात्म यज्ञ का सूत्रपात आत्मा से होता है और कर्म होता है मन के द्वारा। मन साधना करता है और कर्म भी, जो कि आत्मा के क्षेत्र में समाप्त हो जाते हैं। आध्यात्म यज्ञ निवृत्ति दिलाता है जब कि भूत ,नृ और पितृ यज्ञ निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों में उलझाते हैं। नृयज्ञ चार प्रकार का होता है, शूद्रोचित, वैश्योचित , क्षत्रियोचित और विप्रोचित। शूद्रोचित सेवा में अपने सुखों का त्याग कर दूसरों को प्रसन्न करना या उनके कष्टों को दूर कर देना जैसे मरीजों की सेवा आदि, आते हैं। वैश्योचित सेवा में किसी को रुपया पैसा देकर सेवा करना, और अपने जीवन को खतरे में डालकर दूसरों का रक्षण करना क्षत्रियोचित सेवा कहलाता है। विप्रोचित सेवा में अपने द्वारा प्राप्त किये गये आध्यात्म के ज्ञान को दूसरों को सिखाना और सद्गुणों को सिखा कर सच्चाई के मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करना आदि आते हैं। शूद्रोचित सेवा समाज की रीढ़ की हड्डी है इसे किसी प्रकार हेय नहीं समझना चाहिये। जो शूद्रोचित सेवा नहीं कर सकता वह वैश्योचित , क्षत्रियोेचित और विप्रोचित सेवा भी नहीं कर सकता। इसलिये जिनमें यह चारों प्रकार के गुण हैं वही विप्र कहला सकते हैं। हमें अहंकार रहित सेवा करना चाहिये यह मान कर कि हम नारायण की सेवा कर रहे हैं। भूत, नृ और पितृ यज्ञ करते समय नारायण की सेवा करने का भाव रखने पर मैंपन की भावना को जागने का अवसर नहीं मिल पायेगा और कर्मबंधन से भी दूरी बनी रहेगी। कर्मबंधन से मुक्त होने और अहंकार को नष्ट करने के लिये ही यज्ञ किया जाता है , इस लिये उपरोक्त चारों यज्ञ कोई भी सम्पन्न कर सकता है। इससे यह स्पष्ट है कि अग्नि में घी, यव , तिल या अन्य वस्तुओं को जलाना यज्ञ नहीं है और न ही इस प्रकार खाद्यान्न को जलाने से समाज का कोई लाभ होता हैं जो यह कहते हैं कि इससे वातावरण शुद्ध होता है और वर्षा होती है वह किसी भी प्रकार वैज्ञानिक सत्य नहीं है। पृथ्वी पर जो भी जीव जगत है वह कर्बन का ही वहुरूप है (carbonic pebula) अतः इनमें से किसी के भी जलाने पर कार्बनडाई आक्साइड उत्पन्न होती है और कार्बन ही बचता है। स्वस्थ जीवन के लिये हमे आक्सीजन की आवश्यकता होती है और पौधों को कार्बनडाई आक्साइड की , जो हम स्वाभाविक रूप से एक दूसरे को आदान प्रदान करते रहते हैं अतः पृथक से कार्बनडाई आक्साइड उत्पन्न करने का कोई औचित्य नहीं वह भी धार्मिक भावनाओं की कीमत पर। श्रीमद्भगवद्गीता के जिस श्लोक का उदाहरण देकर यह यज्ञकार्य किया जाता है वह भी उसका मनमाना अर्थ किये जाने के कारण है। वह श्लोक कहता है कि
‘‘ अन्नाद भवति भूतानि, पर्जन्यादन्न संभवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञःकर्मसमुद्भवः।‘‘
जिसका सीधा अर्थ यह है कि अन्न से सभी जीवधारी उत्पन्न होते और जीवित रहते हैं, वर्षा से अन्न होता है, यज्ञ करने से वर्षा होती है और यज्ञ, कर्म करने से संभव होता है। अतः ऊपर वर्णित चारों प्रकार के यज्ञकर्म सबको नारायण समझकर करने पर ही प्रकृति संतुलन में रहेगी अर्थात् वर्षा होगी, अन्न उत्पन्न होगा और जीवन बना रहेगा तभी सब लोग अपने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे।
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