Friday, 12 December 2014

5.0: विशुद्ध ज्ञान

मध्य (भाग चार) दर्शन

सभी प्रकार के बलों ( अर्थात् विद्युतीय , चुंबकीय, नाभिकीय और गुरुत्वीय ) के मूल श्रोत का पता लगाने के लिये एलवर्ट आइंस्टीन ने यूनीफाइड फील्ड थ्योरी को विकसित करने का प्रयास किया पर सफलता नहीं मिली और वे यह मानने को विवश  हुए कि ‘कास्मिक माइंड‘ ही इनका श्रोत हो सकता है । अनेक वैज्ञानिकों के इस विषय पर मतभेद हैं और वे जुटे हुए हैं कि बिग बेंग के समय का वातावरण पृथ्वी पर बनाकर ही हम इस संबंध में कुछ कह सकेंगे और LHC नामक प्रयोग करने के बाद प्राप्त आॅंकड़ों के विश्लेषण में लगे हैं। उनके परिणाम जब आयेंगे तब उन्हें समझेंगे पर इस संबंध में हमारी उपनिषदों में क्या कहा गया है इस लेख में स्पष्ट किया गया है।
5.0: विशुद्ध ज्ञान
5.1  ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति की तान्त्रिक व्याख्या और आत्मसाक्षात्कार का सिद्धान्त

1.  केवल एक ही परमब्रह्म या परमसत्ता का अस्तित्व है। जो कुछ दिखाई देता है या नहीं दिखाई देता है वह सब सापेक्षिक  है और वे सब एक ही परमसत्ता ¼cosmic entity½ की काल्पनिक विचार तरंगें हैं।  यह परम सत्ता या परम ब्रह्म निर्पेक्ष रूप में अपनी त्रिगुणात्मक प्रकृति को स्थैतिक रूपमें(अर्थात् potential energy के
रूप में) रखते हैं जब वे अपने मन (cosmic mind ) में एक से अधिक होने की इच्छा करते हैं तो प्रकृति के तीनों गुणों में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है और यह विश्व  ब्रह्माण्ड, परमपुरुष या परमशिव ¼cosmic entity½
 का रास मंच बन जाता है।

2. प्राथमिक स्तर पर जब प्रकृति अपने तीनों गुणों में साम्यावस्था में होती है तब परमपुरुष अपनी तन्मय अवस्था¼aabsolute srate½ में रहते हैं। तीनों गुण sentient, mutative, static forces अर्थात् सत, रज और तम, क्रमशः  संतुलन में रहते हैं, परंतु परमपुरुष की , अनेक रूपों में परिवर्तित होने की इच्छा ¼cosmic will½ से प्रकृति द्वारा कोषों का निर्माण कार्य हो चुकता है अतः प्रकृति की इस अवस्था को शिव की शिवानी शक्ति ¼potential form of energy½ कहते हैं। इसका अन्य नाम कौषिकी  भी है।
 यह ब्रह्म ¼cosmic entity½  की अव्यक्तावस्था कहलाती है।


3  द्वितीय अवस्था में इन तीनों बलों में जब अधिक असंतुलन उत्पन्न होने लगता  है तो इससे नाद (cosmic sound of creation) उत्पन्न होता है, इसे शिव की भैरवी शक्ति (  kinetic form of energy) कहते हैं। यह सरलरेखा में गति करने लगती है।

4. तृतीय अवस्था में नाद, कला (curvature) में रूपान्तरित होता है तथा भैरवी, भवानी ( अर्थात् kinetic energy in action गतिज ऊर्जा का क्रियात्मक रूप) में। यहीं से आकाश, वायु, अग्नि जल, भूमि आदि पंच तत्वों का निर्माण क्रमशः  होता है। इसे ब्रह्म की व्यक्तावस्था कहते हैं।

5. वायु ,प्रकाश , प्राणशक्ति आदि विभिन्न सत्ताओं में यह भवानी ही क्रियाशीला होती है। भवानी ही इंद्रियग्राह्य होकर स्थूल के साथ सूक्ष्म का संयोग संभव करती है। इसी से एक कोषीय जीव और क्रमषः बहुकोषीय जीव मनुष्य आदि उत्पन्न होते हैं और यह प्रपंच भवसागर कहलाता है। इनकी क्रमशः  अग्रगति , भवानी से भैरवी और भैरवी से कौषिकी के साथ मिलकर अपने उद्गम के साथ एकाकार होने तक का कार्य , स्रष्टि चक्र कहलाता है जिसका प्रथम अर्ध चक्र संचर और अगला अर्ध चक्र प्रतिसंचर कहलाता है।

6. स्रष्टि चक्र में आगे प्रगति न करने पर प्रकृति  सब को अपने अपने कर्मफल के अनुसार इसी ब्रह्माॅंड में भटकाती रहती है अतः आगे बढ़ते जाने के लिये अपनी भवानी शक्ति को भैरवी में और भैरवी को शिवानी में
मिलाते रहने का अभ्यास करते रहना चाहिये इसे ही भजन करना या साधना करना कहते हैं। भजन किसका करना है? अवश्य  ही पुरुषोत्तम का। पुरुषोत्तम को भजने का दिशा  संकेत है-भवानी से भैरवी और भैरवी से
कौशिकी की ओर बढ़ चलना। स्थूल जगत को मन का ध्येय बनाने से पुरुषोत्तम तक पहुचना संभव नहीं। जड़ यदि तुम्हारा ध्येय होगा तो उस दशा  में तुम भवानी के जड़त्व की ओर बढ़ चलोगे। अपने मूल स्वरूप में एक्य स्थापित करने के लिये स्थूल तरंगों को सूक्ष्म तरंगों में रूपान्तरित करना होता है।

7. भवानी को भैरवी में रूपान्तरित करने के लिये श्रद्धा शक्ति के संप्रयोग की आवश्यकता  होती है जो साधना के अलावा अन्य तरह प्राप्त नहीं हो सकती, आलस्यवश  पिण्डवत बैठे रहने से साधना नहीं हो सकती अतः भक्त
को सतत कर्म करते रहना होगा। भक्त का प्रत्येक कार्य भजन का ही अंग होता है।

8. वास्तव में व्यक्तिगत भैरवी शक्ति, चिति शक्ति की सहायता से भवानी को प्रतिहत कर भैरवी में , उसके बाद उसके भी ऊर्ध्व  में स्थित कौषिकी में प्रतिष्ठित होती है। अतः इस संग्राम में चिति शक्ति का ही प्राधान्य है, तुम्हारी साधना, विकास इच्छा सभी उनकी चेष्टा में ही विधृत है। यथार्थ में वे ही तुम्हारा वास्तविक ‘‘मैं’’ हैं, उनकी सहायता से ही उनको पाने की साधना तुम्हें करते जाना होगा।

9. जेा भोगवादी और अहंकारी  हैं उनकी भैरवी क्रमशः  भवानी में रूपान्तरित होती जाती है।

10. भक्त चाहता है चिति शक्ति अर्थात् परमपुरुष में महामिलन। इसलिये भैरवी के विकास के साथ उसके उचित संप्रयोग से सफलता न मिले तो वह कहेगा‘‘प्रभो मुझमें तुम्हारा विकास अधिक हो, मुझे अपना बना लो ’’ परंतु जबतक शक्ति है तब तक कुछ नहीं मांगेगा। इस समय वह यह प्रार्थना करेगा ‘‘मैं तुम्हारी शक्ति लेकर कार्य कर रहा हूं, इसे अपनी समझने की भूल न करू, मैं तुम्हें भूलूं नहीं।’’

11. भवानी का प्रभाव जिसमें अधिक है उसमें भेद ज्ञान उतना ही अधिक होता है। भैरवी का प्रभाव अधिक होने पर जगत में एकात्मिका द्रष्टि उतनी ही अधिक होती है।

12.  भवानी को भैरवी में परिवर्तित  करने के लिये प्रत्येक वस्तु को ब्रह्म का विकास समझकर देखने की चेष्टा करना चाहिये। इसके निरंतर अभ्यास से भवानी , भैरवी में रूपान्तरित होकर सभी वस्तुयें ब्रह्म के विकास रूप
में उपलब्ध होती रहती है। पुस्तक ज्ञान केवल वोध मात्र है।

13. सबकुछ ब्रह्म मय द्रष्ट होने पर तृतीय स्तर में द्रष्टा, दृश्य  का भेद समाप्त हो जाता है। कर्ता कर्म तथा द्रष्टा भाव एक निर्विरोध सत्ता में समाप्त हो जाता है। जीव के मानस स्तर में जो ब्राह्मी शक्ति क्रियारत है वह भैरवी है उसका उद्भव विन्दु से होता है उस कारण उसे विन्दु में ही बैठाना पड़ता है। आसन शुद्धि में भैरवी को मूल विन्दु
में बैठाने पर वह धीरे धीरे कौषिकी में रूपान्तरित हो जायेगी।

14. भक्त को शक्तिवादी होना पड़ेगा क्योंकि उसे भवानी और भैरवी शक्तियों की सहायता लेना आवश्यक  होता है, भीरु बनने से काम नहीं चलेगा। यदि उसकी भावधारा भवानी की ही ओर रहे तो उसकी भैरवी भी धीरेधीरे जड़ता को प्राप्त होती जायेगी। जड़ात्मक शक्ति के विरुद्ध संग्राम करते हुए पुरुष भाव लेकर भैरवी को कौषिकी में रूपान्तरित करना होगा। जगत की स्थूल बस्तुओं का व्यवहार करते समय भी भवानी द्वारा निर्मित स्थूल वस्तुओं के रूप रंग के पश्चात्  जो पुरुष सत्ता रह जाती है, उसकी ही भावना से वह निवृत हो जाती है इस प्रकार की भावना को ब्रह्मचर्य कहते हैं।

15. ब्रह्म प्राप्ति में ही साधक के भाववाद (ideology)  की जय है, प्रथम भैरवी की जय फिर शिवानी की जय। इसके बाद प्रथम भवानी की पराजय फिर भैरवी और शिवानी की भी पराजय में पुरुष की प्रतिष्ठा होती है। इस पर्यायक्रम में शक्ति नियंत्रण के फलस्वरूप बाहरी जगत में भी साधक पाप का दमन और धर्म की रक्षा करने में समर्थ होता है। जो शक्ति नियंत्रण तथा चितिशक्ति की व्यापकता  अर्जन की साधना नहीं करता उससे दुष्टों का दमन और शिष्ट का पालन नहीं हो सकता। शक्ति नियंत्रण की इस साधना को साधना समर कहते हैं। लक्ष्य यदि ठीक रहे तो किसी भी व्यक्ति की ब्राह्मी स्थिती होगी ही, और जिनकी  यह स्थिती हुई है उन विजयी साधकों की द्रष्टि में उच्च, नीच, मूर्ख, पंडित , स्पृश्य  अस्पृश्य  का भेद ही नहीं रह सकता। ‘श्मशाने  वा ग्रहे, हिरण्ये वा तृणे, तनुजे वा रिपो हुताशे  वा जले , स्वकीये वा परे  समत्वेन बुद्धया विराजे अवधूतो द्वितीयो महेशः ।‘‘

16. इस प्रकार उस परम सत्ता से साक्षात्कार करने के लिये या तो अपने इकाई मन को संश्लेषित करते हुए परम सत्ता के बृहद् मन अर्थात् कास्मिक माइंड के केन्द्र बिंदु के संपर्क में लाया जाय क्योंकि सब कुछ उसी के भीतर है, या फिर विश्लेषित करते हुए इतना विस्तारित कर लिया जाये कि इकाई मन और कास्मिक माइंड में कोई अंतर ही न रहे । जिन्होंने इन प्रणालियों से इकाई मन को संश्लेषित या विश्लेषित किया है उन्होंने अपने अनुभवों के विभिन्न स्तरों को जिस प्रकार बताया है, उन्हें अगले खंड में दर्शाया  गया है।

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