Friday 19 December 2014

5.2 समाधियाॅं

5.2  समाधियाॅं 
जब आप किसी वस्तु पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं चाहे वह भौतिक हो काल्पनिक या आध्यात्मिक ,और जब आपका मन उस वस्तु के साथ पूर्णतः एकीकृत/समीकृत हो जाता है तो कहा जाता है कि आप उस वस्तु के साथ समाधि में आ गये हैं। इस प्रकार समाधियों को मोटे तौर पर निम्नाॅंकित भागों में बाॅंटा गया हैः-
1  जड़ समाधिः- जब मन की वृत्तियों को बलपूर्वक निलम्बित कर दिया जाता है तो उसे जड़ समाधि कहते हैं जैसे, पातंजली की परिभाषानुसार चित्तवृत्तियों का निरोध करने पर जड़ समाधि होगी क्यों  कि वे वृत्तियाॅं भीतर ही तो रहेंगी कुछ देर के लिये उनका निलंबन हुआ है अतः जड़ समाधि कहलायेगी। इसी प्रकार भौतिक जगत की वस्तुओं पर चिंतन करने पर यदि मन उनके साथ अपना समीकरण स्थापित कर ले तो जड़ समाधि होगी, लकड़ी पत्थर और अन्य पदार्थों पर किया गया चिंतन इसी प्रकार जड़ता में ले जाता है। यह दो प्रकार से हो सकती है, एक तो बाहरी आव्जेक्ट को देखने से और दूसरी इंद्रियों को बाहरी ओर से बंद कर लेने पर।
2 भावात्मक समाधिः- तन्त्र के अनुसार जीवात्मा और परमात्मा का पारस्परिक एकीकरण होने को योग कहा जाता हैं। अतः इंद्रियों के निलंबन करने के बाद भी समाधि हो भी सकती है और नहीं भी। जब मन किसी भावात्मक विचार में चिंतन करते हुये उस भाव के साथ समीकृत हो जाता है तो भावात्मक समाधि होती है। यह दो प्रकार की होती है। पहली पूर्णतः मानसिक होती है जैसे, आप फुटवाल के बारे में सोचते हुए उसके साथ एकीकृत होते हैं तो मन का एक भाग  फुटवाल का रूप लेता है और दूसरा उस रूप को देखता है। यहाॅं द्रश्य  और
द्रष्टा दोनों ही मानसिक हैं सब्जेक्टिव और आव्जेक्टिव मन। यदि सब्जेक्टिव मन पूर्णतः आव्जेक्टिव मन  के साथ समीकृत हो जाता है तो इसे पूर्णतः मानसिक समाधि कहेंगे। यह भी दो प्रकार से हो सकती है एक तो मानसिक वस्तु का निर्माण करने से और दूसरी उन इंद्रिय तंतुओं पर चिंतन करने से जो भीतर आने वाली तन्मात्राओं को ग्रहण करती हैं।
इसलिये जब भौतिक जगत की वस्तुओं पर समाधि हो तो वह जड़ और जब इंद्रियों पर समाधि हो वह मानसिक समाधि कहलायेगी क्योंकि इंद्रियाॅं मन का ही विस्तार हैं। अर्थात् किसी वस्तु पर लगातार देखने से यदि मन उसके साथ पूर्ण एकाकार हो जाये रूपतन्मात्रा के कारण, तो वह जड़ समाधि होगी, और जब किसी इंद्रिय को बल पूर्वक रोक कर वस्तु के साथ एकीकरण किया जावे तो भी वह जड़ समाधि कहलायेगी। निरोध का अर्थ निलंबन करना नहीं है वरन् प्रतिबंधित करना है। जब मानसिक वस्तु का निर्माण कर मन का कुछ भाग उसका आकार लेले और दूसरा भाग उसे देखे तो यह देखने वाला भाग एक प्रकार की समाधि का अनुभव करता है वह
 पूर्णतः मानसिक है और बाहर दिखाई दे रही वस्तु पर जब चिंतन न करते हुए देखने वाली इंद्रिय पर ही चिंतन किया जाता है, (यहाॅं इंद्रिय का अर्थ भौतिक इंद्रिय का प्रवेश  द्वार नहीं वरन् वह जो मस्तिष्क में नियंत्रण करने वाला विंदु है वह है,) तो इस प्रकार मन, देखने वाली चाक्षुस्  इंद्रिय में ही परिवर्तित हो जाता है, यह भाव समाधि का प्रकार ही है। यह आन्तरिक होती है पर फिर भी शुद्ध मानसिक नहीं। कुछ लोग इसे भी जड़ समाधि ही मानते हैं।
3. आध्यात्मिक समाधिः-  यह केवल एक प्रकार की ही होती है, और यह केवल प्रणिधान या अनुध्यान से ही होती है। मन आध्यात्मिक विषय में निलंबित होकर समाधि पाता है। अतः दो प्रकार की जड़ और दो प्रकार की मानसिक समाधियाॅं  और एक प्रकार की आध्यात्मिक समाधि होती है। आध्यात्मिक समाधि की ही सबसे अधिक मान्यता है। इनका वर्णन नीचे दिया जा रहा हैः-


    अनिन्द्यानन्द रस समाधि
मानव मन की विभिन्न प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने के लिये रीढ़ के भीतर पाये जाने वाली अनेक ग्रंथियों और उपग्रंथियों के द्वारा कई नाड़ी केन्द्र बनाये जाते हैं जिन्हें तंत्र में चक्र या प्लेक्सी कहते हैं। प्रत्येक चक्र निर्घारित संख्या की प्रवृत्तियों का नियंत्रण करता है। इस विशेष ग्रंथी से निकलने वाला रस या हारमोन उस ग्रंथी, उपग्रंथियों और उनसे जुड़ी वृत्तियों को नियंत्रित करता है। प्रति दिन हम जो भोजन करते हैं वह रस,रक्त,मास,मज्जा और लसिका (limph) में बदलता है, लसिका विभिन्न प्रकार के हारमोन्स में बदलती है। साधक के पिनियल ग्लेंड से निकलने वाला विशेष प्रकार का हारमोन पिट्यूटरी ग्लेंड में आता है और उस समय यदि साधक आध्यात्मिक गंभीर चिंतन में मग्न रहता है तो यह हारमोन पिनियल ग्लेंड के बायीं  ओर नीचे बहकर अन्य ग्रंथियों  और उपग्रथियों में प्रवेश  कर जाता है जो उन्हें सक्रिय कर देता है। परंतु यदि उस समय साधक जड़वादी भौतिक चिंतन में रहता है तो यह हारमोन पिट्युटरी ग्रंथी में ही जल जाता है।  नियम यह है कि उच्च ग्रंथी अपने नीचे स्थित ग्रंथी का नियंत्रण करती है अतः पीनियल ग्लेंड से निकलने वाला हारमोन पिट्यूटरी और क्रमशः  अन्य नीचे के ग्लेंडस् में प्रवाहित हो जाता है तो वे परस्पर एकदूसरे से नियंत्रित होकर अनाहत चक्र के चारों ओर एक आभामंडल का निर्माण करते हैं और साधक अनुभव करता है कि वह इस दिव्य अभामंडल में स्नानकर हृदय में अपार आनन्द ले रहा है।
इस अवस्था में वह साधक विश्व  की हर वस्तु से अवर्णनीय आनन्द का अनुभव करता है, उसे कोई भी वस्तु अप्रिय नहीं लगती, उसे लगता है कि संसार की किसी भी वस्तु में इस प्रकार का आनन्द देने की क्षमता नहीं है। उसे लगता है कि सूर्य किरणें, चंद्र किरणें, धरती ,पानी यथार्थतः सभीकुछ आनन्ददायी अमृत का प्रवाह जैसा अनुभव कराते हैं। इतना तक कि जघन्य शत्रु भी बहुत ही प्यारा लगने लगता है। वैष्णव दर्शन  में यह समाधि मधुर भाव कहलाती है और तंत्र इसे अनिद्यानन्द रस समाधि कहता है। इस अवस्था में सभी ग्रंथियाॅं सक्रिय हो
 जाने से वे आनन्द का अनुभव कराती हैं और अन्य नाडि़याॅं अप्रभावी हो जातीं हैं। यह 32 प्रकार की समाधियों में से एक है जो बहुत ही उच्च स्तर के साधकों द्वारा अनुभव की जाती है। इसकी विशेषता यह है कि इसे कोई भी साधक अपने बलबूते पर प्राप्त नहीं कर सकता इसके लिये गुरु की कृपा आवश्यक  है। यह भी सत्य है कि परमपुरुष का साक्षात्कार करने के लिये समाधियों का अनुभव किया जाना अनिवार्य भी नहीं है। जब परमकृपालु तारकब्रह्म इस धरती पर भौतिक रूप में रहते हैं तो वे योग्यता धारक  साधक को यह अनुभूतियां करने में मदद करते हैं, परंतु जब वे नहीं रहते तब वे अन्य गुरुओं की मदद से सहायता करते हैं।
      कंकालमालिनी समाधि 
लगभग सात हजार वर्ष पहले भगवान सदाशिव और उनकी पत्नी काली ने आध्यात्मिक साधना करने के फलस्वरूप असाधारण दिव्यानन्द का अनुभव प्राप्त किया। सदाशिव तंत्र साधना के अधिष्ठाता थे। काली ने इस प्रकार की साधना के भीतरी रहस्यों को अपने पति से सीख लिया था और प्रतिदिन वह दिव्यानन्द का अनुभवकर नयी नयी समाधियों का अनुभव किया करती थीं। एक दिन सदाशिव ने खेल खेल में काली की यह क्षमता लंबे समय के लिये निलंबित कर दी। तब काली विना इस दिव्यानन्द का अनुभव करते हुये ही साधना करती  रहीं, बाद में शिव ने अचानक ही उन्हें यह क्षमता वापस कर दी और काली ने वह अनुभूतियां पुनः प्राप्त
कर लीं। इस पर काली ने सोचा कि अब वह शिव की तरह मानवमुडों की माला पहना करेंगी जैसी कि शिव पहना करते हैं, ताकि यह दिव्यानन्द स्थायी बना रहे। काली ने जब मुंडमाला पहनी तो उनका नाम कंकालमालनी हो गया और वह समाधि जिसमें साधक परमाप्रकृति के साथ अपना  तादात्म्य स्थापित कर लेता है उसे कंकालमालिनी समाधि कहते हैं। इस अवस्था में साधक परमाप्रकृति और परमशिव के साथ एकता का अनुभव कर अपार आनन्द पाता है, वह कुछ बोल नहीं पाता, श्वास गहरी हो जाती है, तंत्रिका तंत्र पर इतना दवाव हो जाता है कि संकोच और प्रसारण बहुत ही घातक हो जाता है।


       तन्मात्रिका समाधि 
इस द्रश्य  प्रपंच की प्रत्येक वस्तु अद्रश्य  संसार से आती है और अद्रश्य  संसार में विलुप्त हो जाती है।  दो अद्रश्य  संसारों के बीच द्रश्य  संसार का अस्तित्व पाया जाता है। यही कारण है कि कोई भी वस्तु स्थायी नहीं है इसलिये किसी वस्तु के प्राप्त हो जाने या नष्ट होने में कोई सुख दुख नहीं मनाना चाहिए। यह संसार ठोस, द्रव, उष्मा, वायु  और ईथर से बना है और इसमें असंख्य तन्मात्राओं का संग्रह है। द्रश्य  संसार परमपुरुष का धनात्मक प्रक्षेप है अतः विपरीत प्रकार से उसके तन्मात्रात्मक कंपनों को पृथक किया जा सकता है जिससे तन्मात्रिका समाधि प्राप्त होती है। इस संसार की विशालता पंचभूतों के कारण है यदि एक एक कर उन्हें पृथक कारते जावें तो अंत में वह एक विंदु के रूप में ही बचता है। परम पुरुष ने पंच तत्वों को इस विंदु से संलग्न कर इस संसार की रचना की है अतः साधना के समय मन को विंदु के रूप में बनाना होता है। यह विंदु ही सापेक्षिक संसार और निर्पेक्ष संसार के बीच की रजत रेखा है। इसलिये साधक जब तन्मात्रिक कंपनों पर पूर्ण रूप से नियंत्रण कर लेता है तो उसे तन्मात्रिका समाधि का अनुभव होता है। मानव मन और पदार्थ दोनों ही निर्पेक्ष नहीं हैं। दोनों ही परमपुरुष की कल्पना के प्रवाह की अवस्थायें हैं। पदार्थों से तन्मात्रायें और मन से अहंकार निकाल दिया जावे तो दोनों  ही समाप्त हो जावेंगे। इसलिये साधकों को सच्चाई का अनुभव करने के लिये मन को
सापेक्षिक संसार से पृथक कर एक विंदु में एकत्रित कर लेना चाहिए। यह विंदु ही इकाई मन और भूमा मन (cosmic mind)के वीच संपर्क स्थापित करता है। साधना के द्वारा केन्द्रीकृत मन, भूमा मन के साथ एकत्व पा सकता है और इस प्रकार का मन संसार की सभी वस्तुओं और स्थानों की तस्वीरें मन में ही अनुभवकर उनका वर्णन कर सकता है। नियमित साधना से मानव मन इतना विस्तारित किया जा सकता है कि परमपुरूष में और उसमें कोई भेद ही नहीं रहता क्योंकि तन्मात्रायें भूमा मन से ही उत्सर्जित होतीं हैं इसलिये इस संसार को उसकी धनात्मक तन्मात्रिका समाधि कहते हैं। इसलिये ऋणात्मक तन्मात्रिका समाधि का अर्थ है सृष्टि का लय।

        अभेदज्ञान और निर्विकल्प समाधि 
एकबार शंकराचार्य से पूछा गया कि वह कौन हैं? तब वे बोले मैं न तो मन हूूॅं, न बुद्धि,न अहमतत्व, न चित्त, न ही आंख कान नाक जीभ त्वचा, न वायु न अग्नि न द्रव, न ठोस, मैं तो चिदानन्दस्वरूप शिव हूँ । जहाॅं जीव है वहाॅं शिव हैं। सूक्ष्म सत्ता को विराट सत्ता में परिवर्तित करने की विद्या को आध्यात्म विज्ञान कहते हैं इसे योग विद्या
भी कहा जाता है। जीवात्मा और परमात्मा को संयुक्त करने का नाम योग है, ‘संयोगो योगो  इत्युक्तो जीवात्मनो परमात्मना‘। जीवात्मा और परमात्मा भिन्न नहीं हैं परंतु जब तक जीवात्मा में प्राकृतिक बंधन रहते हैं वह जीवन और मृत्यु के खेल में ब्रह्मचक्र में भटकता रहता है। स्थायी साधना के करते रहने पर जब जीवात्मा या इकाई मन से जुड़े सभी संस्कारों का क्षय हो जाता है तब वह परमात्मा में मिल जाता है। वास्तव में ये संस्कार और उपाधियां ही जीव को अपना पृथक अनुभव करातीं हैं। अब प्रश्न  है कि यथार्थ और अभेद ज्ञान को किस
 प्रकार प्राप्त किया जावे? इसका उत्तर है ईश्वर  प्रणिधान और अभिध्यान के द्वारा। ईश्वर  शब्द के अनेक भाष्य विद्वानों ने किये हैं, कुछ कहते हैं ‘ईशते यः सः ईश्वर , अर्थात् जो सब पर नियंत्रण करता है वही ईश्वर  है। महर्षि पातंजलि के अनुसार ‘‘क्लेशकर्मविपाकाशयैः  अपरामृष्ठ पुरुष विशेषः ईश्वरः ‘‘ अर्थात् जो क्लेश , कर्म, विपाक और आशय से प्रभावित नहीं होता वह ईश्वर  है। यहां ब्रह्मांड के नियंत्रक के रूप में ईश्वर  को माना गया है इसलिये ईश्वरप्रणिधान का अर्थ हुआ कि सभी मानसिक ऊर्जा को परम चिंतनीय सत्ता ईश्वर  की ओर प्रवाहित करना। तथा अनुध्यान का अर्थ है कि जब साधक अनुभव करता है कि उसका ध्येय (जो कि उसका जीवन और आत्मा है) ध्यान विंदु से हटने का प्रयास कर रहा है तो तत्काल उसके पीछे दौड़ कर उसे पुनः पकड़ने का प्रयास करना अनुध्यान कहलाता है। प्रणिधान और अनुध्यान दोनों को एक साथ कर देने को अभिध्यान कहते हैं। अभेदज्ञान की अवस्था को संप्रज्ञात समाधि कहते हैं। संप्रज्ञात का अर्थ है उचित और उत्तम ज्ञान। सविकल्प समाधिमें साधक को यह ज्ञान रहता है कि परमात्मा के अलावा  भी कोई दूसरी सत्ता है। मानव मन संकल्पात्मक और विकल्पात्मक कार्य करता है जैसे , जब कोई कुछ करने का तय करता है तो इसे संकल्प कहते हैं और जब इस कार्य को किया जा चुकता है तो उसे विकल्प कहते हैं। संप्रज्ञात समाधि की अवस्था में इकाई चित्त, ज्ञानात्मक सत्ता में परिवर्तित हो जाता है इसलिये विकल्पात्मक क्रिया निलंबित हो जाती है यद्यपि संकल्पात्मक अवस्था फिर भी सक्रिय रहती है। अर्थात् सविकल्प समाधि की अवस्था में संकल्पात्मक क्रिया सामान्यतः क्रियाशील रहती है। निर्विकल्प समाधि की अवस्था में मन की संकल्प और विकल्पात्मक क्रियायें पूर्णतः निलंबित हो जाती हैं और  साधक का मन कार्य करना पूर्णतः बंद कर देता है, अतः नाड़ी तंत्र और इंद्रियाॅं भी काम करना बंद कर देतीं है इसीलिये कहा गया है कि ‘ तस्य स्थिति अमानसीकेतु‘। कुछ साधकों का मन पिट्युटरी ग्लेंड पर जाकर कार्य करना बंद कर देता है, कुछ साधक सभी चक्रों को क्रास करते हुये सहस्त्रार चक्र अर्थात् पीनियल ग्लेंड तक जा पहुते हैं जो कि आत्म अनुभूति की चरम अवस्था है, यह इंद्रियों की पहुंच से परे है। इस स्थिति में पहुंचने पर सभी प्रकार के संस्कार क्षय हो जाते हैं और मन भी समाप्त हो जाता है क्योंकि वह साक्षात् शिव में लीन हो जाता है जहां से फिर वापस नहीं आता है। स्थानिक भिन्नतायें मिट जाने के कारण साधक की भौतिक मृत्यु हो जाती है। ‘‘पाशबद्धो भवेज्जीवः पाशमुक्तो भवेत् शिवः"। परंतु जिन साधकों के संस्कार पूर्णतः क्षय नहीं हो पाते वे कुछ देर आनंदानुभूति कर वापस आ जाते हैं। कुछ साधकों का मन काल (time) की अवस्था से आगे जा कर कार्य करना बंद कर देता है अतः सामान्य परिस्थितियों में ये साधक अपने वाह्य शरीर की अनुभूति के विना चार पांच घंटों तक रहते है कुछ इससे भी अधिक समय चौबीस घंटों तक रह कर फिर संस्कार भोगने के लिये वापस आ जाते हैं। समाधि की अवस्था से बाहर आने पर साधक को दो भिन्न प्रकार के संसार में रहना पड़ता है एक भीतरी जो आनंदमय और मधुर लगता है और दूसरा वाह्य जो शुष्क और महत्वहीन लगता है।
 भीतरी संसार में आत्मीय संपर्क और परम पिता के दुलार का अनुभव कर लेने के बाद बाहरी संसार में कठिनाई का अनुभव होता है और सामंजस्य बैठाने में कष्ट होता है। परम पिता से दूर होने पर मन उदास रहता है कभी कभी अट्टहास करता कभी सिसकियां भरता है, सामान्य लोग यह देखकर उसे असामान्य कह हंसी उड़ाते हैं परंतु यह अवस्था आत्मिक उपलब्धि की परम अवस्था होती है। परमात्मा की कृपा से इसके बाद साधक परम सत्ता परम ब्रह्म में लय पाता है।

          रागानुगा और रागात्मिका समाधि 
मानव जीवन का एकमात्र लक्ष्य परमपुरुष हैं। जो साधक इस सत्य को अनुभव कर लेते हैं वे अपने सभी विचार और इच्छाओं को परम पुरुष की ओर ही परिचालित करते जाते हैं जिससे उन्हें आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति होने लगती है और अंततः वे अपने लक्ष्य परम पुरुष तक पहुंच जाते हैं। ईश्वर  प्रणिधान के अभ्यास स्वरूप उपलब्ध होने वाले समर्पण के स्तर के अनुसार साधकों को विभिन्न प्रकार की समाधियों का अनुभव होता है। कुछ भक्तों का मानना है कि आध्यात्मिक उपलब्धि की चरम सीमा वह है जब अपने आप को परम ब्रह्म के साथ एकाकार कर लिया जावे क्योंकि जब तक शरीर है इंद्रियों के प्रभावसे मन कभी भी भौतिक आकर्षण में आकर फिर से फंसकर पतित हो सकता है। परंतु कुछ भक्त ऐंसे भी हैं कि वे परम पुरुष में मिलना नहीं चाहते, उनका तर्क है कि यदि परम पुरुष में मिल गये तो फिर उस उपलब्धि के आनन्द का उपभोग कौन करेगा? वे कहते हैं कि ‘‘मैं शक्कर नहीं होना चाहता क्योंकि शक्कर हो जाने पर उसका स्वाद कौन लेगा?‘‘वैष्णव दर्शन  में यह भाव गोपी भाव या ब्रज भाव कहलाता है। किसी विशेष उपलब्धि के आकर्षण में ईश्वर  से प्रेम करना रागानुगा भक्ति कहलाती है। इसमें ज्ञान और आध्यात्मिक शक्तियों के प्राप्त होने का मिथ्याभिमान रहता है और वैधी भक्ति की तरह आडंबर का प्रदर्शन  नहीं होता। रागानुगा भक्त को अनुभव होने वाली समाधि में साधक साधना में बैठे बैठे गहरी सांस लेने लगता है और प्रत्येक सांस में हुंकार भरता है। इस अवस्था में मन अपना अस्तित्व बनाये रखता है और परमपुरुष के निकट होने का अनुभव करते हुए आनंदित होता है। इस प्रकार का भक्त अगले चरण में रागात्मिका भक्ति का अनुभव करता है। अनेक साधक गोपी भाव में नहीं रुकना चाहते वे कहते हैं कि संचर और प्रति संचर की क्रिया में किसी न किसी दिन प्रत्येक अणु और परमाणु को अन्ततः परम पुरुष में मिलना ही होगा अतः रुकने का अर्थ होगा परम पुरुष की तुलना में संचर को अधिक महत्व देना। ब्रह्म , संचर और प्रतिसंचर के माध्यम से जीवों को उन्नतिपथ पर ले जा रहा है अतः अंतिम उन्नति का बिंदु ब्रह्म के अलावा अन्य कुछ नहीं हो सकता। अतः इस प्रकार परम ब्रह्म में मिलने की तीव्र इच्छा रखते हुए जब अपने सभी विचार और उर्जा उसी की ओर प्रवाहित कर देता है तो इस प्रकार उत्पन्न भक्ति भाव रागात्मिका भक्ति और इसी की गहराई में जाने पर प्राप्त समाधि को रागात्मिका समाधि कहते हैं। सभी जीवों का इकाई मन वास्तव में परम ब्रह्म का सीमित प्रदर्शन  है अतः उसे परम ब्रह्म के निर्देशों  का पालन करना ही होगा।
         भाव समाधि 
आध्यात्मिक साधना का उद्देश्य  इकाई मन को भूमा मन में रूपान्तरित करना है अतः साधक अपने मन को परम ब्रह्म की ओर और सामान्य व्यक्ति वाह्य वृत्तियों की ओर लगाता है। जब इकाई मन अपनी सीमितता को ब्रह्म की असीम सत्ता के साथ मिला देता है तो इसे आत्म समर्पण कहते हैं। आत्मसमर्पण के परिणाम स्वरूप इकाई मन का छोटा ‘मैं‘ ब्रह्म के बड़े ‘मैं‘ द्वारा संचालित होने लगता है। प्रत्येक का छोटा मैं भिन्न भिन्न होता है, भौतिक सुख संबंधी कम्पन छोटा मैं उत्पन्न करता है जबकि आध्यात्मिक कम्पन ब्रह्म के द्वारा उत्पन्न और नियंत्रित किये जाते हैं, इसे प्राप्त करने के लिये लगातार अभ्यास जरूरी होता है। जब इस प्रकार के अभ्यास से ब्रह्म के साथ गहरे प्रेम का संबंध बन जाता है तो ब्रह्म के अलावा किसी अन्य का विचार मन में नहीं आता है, इस प्रकार के भक्ति भाव में लगने वाली समाधि को भाव समाधि कहते हैं। ध्यानासन में बैठकर साधक ब्रह्म का मनन और ध्यान पहले मूलाधार चक्र पर करते हुए जैसे ही ब्रह्म के साथ अपना मन जोड़ता है तो उसे आनन्द की अनुभूति होने लगती है इसके बाद आगे के चक्रों पर ध्यान करता हुआ जब सभी ऊर्जाओं को ब्रह्म की ओर प्रवाहित करता जाता है तो वह अनुभव करता है कि परम पुरुष के अलावा कुछ है ही नहीं। अनाहत चक्र पर पहुंचने पर वह अनुभव करता है कि परम पुरुष उसके अपने ही हैं और आनन्द में इतना मग्न हो जाता है कि उसे अपने आप का कोई ध्यान नहीं रहता, चूंकि विभिन्न चक्रों पर होने वाले कंपन भूमा मन के द्वारा नियंत्रित होते हैं अतः अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति होती है और साधक का शरीर लगातार कंपने लगता है। भाव समाधि इन चार चक्रों अर्थात् मूलाधार से अनाहत तक किसी पर भी अनुभव की जा सकती है पर ज्योंही अनाहत चक्र से ऊपर मन पहुंचता है, उच्च समाधियों का अनुभव होने लगता है।

         धर्ममेघ समाधि 
मानव मन उच्च मानसिक वृत्तियों का घर है। दुख, भौतिक आनन्द, भक्ति और आध्यात्मिक आनन्द इन सबका हृदय पर बहुत प्रभाव पड़ता है। जब मानव भौतिक जड़ वस्तुओं के चिन्तन में ही लगा रहता है तो उसे आत्मानन्द की अनुभूति नहीं होती परंतु जिस क्षण वह ब्राह्मिक चिंतन प्रारंभ करता है तो उसके हृदय में ब्राह्मिक भावों की तीव्रता बढ़ने लगती है। इस प्रकार इष्ट का लगातार चिंतन और ब्राह्मिक भाव में विलय करते रहने पर उसके प्रत्येक विचार और कार्य में ब्रह्मिक भावों का समावेश  बढ़ता जाता है और वह अपने हृदय के साथ साथ पूरे संसार में ब्रह्म का अनुभव करने लगता है। इसके परिणाम स्वरूप अनाहत चक्र के चारों ओर गहन धर्ममेघ उत्पन्न हो जाता है जिससे साधक के मन में अपार आनन्द की अनुभूति होती है। इस अवस्था में अनुभव की गई समाधि को धर्ममेघ समाधि कहते हैं इस समाधि में साधक ध्यान करते हुए स्थिर नहीं रह पाता वरन् वह जमीन पर गिर पड़ता है।

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