5.4 भक्ति और कृपा
भक्तिर्भगवतो सेवा भक्तिः प्रेमस्वरूपिनी, भक्तिरानन्दरूपा च भक्तिः भक्तस्य जीवनम्।
भक्ति परमपुरुष की सेवा है, प्रेमानन्द स्वरूपी वह, भक्त की प्रत्येक श्वास और प्रश्वास है।
भक्ति = भज् + क्तिन, अर्थात् प्रेम पूर्वक प्रशंसा करना। किसी को पूजना। दो अस्तित्वों या सत्ताओं की आवश्यकता होती है, वह जिसकी प्रशंसा की जाती है और दूसरा वह जो प्रशंसा करता है। यहां ये दो अस्तित्व हैं भक्त और भगवान।
आनन्दसूत्रम के अनुसार ‘भक्तिर्भगवदभावना न स्तुर्तिनार्चना।‘ भक्ति का अर्थ है परमब्रह्म का चिंतन, न कि प्रशंसा. स्तुति और न ही कर्मकांडीय प्रदर्शन । स्तुति का अर्थ है किसी के सामने उसकी प्रशंसा करना। यह चापलूसी नहीं तो और क्या है? यदि कोई पुत्र अपने पिता के सामने उनकी तारीफ करे तो प्रसन्न होने के स्थान पर उन्हें गुस्सा नहीं आयेगा? अर्चना का अर्थ है फूलों और अन्य भौतिक कर्मकांडीय वस्तुओं के साथ पूजा करना। इन बस्तुओं को भेंट करने से किस स्तर का प्रेम प्रकट होगा? कर्मकांडीय प्रदर्शन देश काल और पात्र के बीच होता है जो इनके बीच भिन्नता पैदा कर भक्त और भगवान के बीच भिन्नता पैदा कर देता है। परंतु ब्रह्म के चिंतन में भक्त धीरे धीरे अपने इष्ट की ओर बढ़ता है और जैसे जैसे वह अधिक निकट बढ़ता जाता है उसका भक्तिभाव भी बढ़ता जाता है। जिस समय वह परम पुरुष को अपना व्यक्तिगत और अंतरंग आत्मा जैसा अनुभव करने लगता है वह उनके समक्ष ब्राह्मिक प्रवाह में अपना आत्मसमर्पण कर देता है। यदि व्यक्ति परमपुरुष के सामने आत्मसमर्पण नहीं कर सकता है तो वह जीवन में कभी आध्यात्मिक उन्नति कर ही नहीं सकता । बिना आत्मसमर्पण किये परमात्मा की कृपा नहीं मिलेगी और बिना उसकी कृृपा के कुछ भी नहीं मिलेगा। इसलिये समर्पण के अलावा रास्ता है ही नहीं। भक्ति की अन्य परिभाषा है ‘‘ सा परानुराक्तिरीश्ववरे‘‘ । शब्द रक्ति का अर्थ है आकर्षण, अनुराग का अर्थ है किसी के लिये आकर्षण। दो प्रकार का आकर्षण एक अपरब्रह्म अर्थात् भौतिक बस्तुओं के लिये अैर दूसरा परम ब्रह्म अर्थात् अनन्त सत्ता के लिये। आकर्षण प्रकृति का नियम है, प्रतिकर्षण ऋणात्मक आकर्षण है। लक्षणों के अनुसार भक्ति को कुछ प्रकारों में निम्न प्रकार बांटा गया है।
1.निर्गुणा भक्ति: इसमें साधक अत्यधिक प्रेम के कारण बिना किसी अपेक्षा के अपने लक्ष्य की ओर चल पड़ता है। इसमें मानसिकता यह होती है कि मैं नहीं जानता कि मैं अपने ईश्वर को क्यों चाहता हूं पर ऐंसा करने से मुझे अच्छा लगता है। मैं उन्हें चाहता हूॅं क्योंकि वह मेरे प्राणों के प्राण और आत्मा की आत्मा हैं।
2.वैधी भक्तिः इसमें साधक को ईश्वर से कोई विशेष लवलीनता नहीं होती, । जिसमें कोई प्रतिज्ञा या व्रत के नाम पर गाय का गोबर लीपा जाता है, मूर्ति को गंगाजल से स्नान कराकर राजसी वस्त्रों और आभूषणों से सजाकर, फूल, वेल पत्र चढ़़ाकर और विशेष मंत्रों का पाठ किया जाता है यह वैधी भक्ति में आता है। इस प्रकार की भक्ति में और जो कुछ भी हो पर भक्त के हृदय की सरलता का अभाव ही दिखाई देता है।
3.ज्ञानमिश्रा भक्तिः इसमें सात्विक साधक अपने उच्चतम लक्ष्य पर पहुंचकर भी परम ब्रह्म को भूलता नहीं है अतः आत्मज्ञान अपने आप उसके हृदय में प्रकट हो जाता है। यद्यपि यह निर्गुण भक्ति है पर इसमें कुछ अहंकार ज्ञान और दैवी शक्तियों के होने का भाव बना रहता है।
4.केवला भक्तिः इसमें जब भक्त अपने लक्ष्य से एकाकार हो चुकता है तो केवल एक ही सत्ता बचती है, परंतु यह किसी के अपने प्रयास से संभव नहीं होती परम पुरुष या महापुरुषों की कृपा से ही यह संभव होती है। भक्ति की यह परमोच्च अवस्था है। इसमें भक्त हर प्रकार की भेदात्मक बुद्धि और भिन्नताओं को भूल जाता है, इसे महिम्न ज्ञान कहते हैं। जबतक साधक के मन में भिन्नता का बोध रहता है वह ब्रह्म से एकाकार होने में संकोच करता है।
5.रागानुगा और रागात्मिका भक्ति: रागानुगा भक्ति में साधक की भावना रहती है कि वह भगवान को इसलिये प्रेम करता है क्योंकि इससे उन्हें आनन्द मिलता है और इससे मुझे भी आनन्द प्राप्त होता है। रागात्मिका भक्ति में भक्त की यह भावना होती है कि मैं भगवान को प्रेम किये विना रह ही नहीं सकता भले ही इसमें मुझे कष्ट हो पर मेरी भक्ति से मेरे प्रभु प्रसन्न रहें। इन दोनों में अंतर यह है कि रागानुगा में आनन्द देने के बदले में आनन्द प्राप्त करने की भावना होती है जबकि रागात्मिका में केबल आनन्द देने की ही भावना होती है। इसलिये रागात्मिका भक्त श्रेष्ठ होता है। इस प्रकार के भक्त केवला भक्ति के पात्र होते है और गुरु कृपा से केवला भक्ति अर्थात् भक्ति की सर्वोच्च अवस्था में पहुंच जाते हैं। ये भक्त ही सिद्ध कहलाते हैं वे मृत्यु को जीत
लेते हैं और उन्हें किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं होती वे दुख, शोक और घृणा से मुक्त हो जाते हैं उन्हें किसी भी प्रकार की सांसारिक बस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती वे सदा ही अपार आनन्दित अवस्था में रहते हैं।
इसलिये अमरत्व के पुत्र पुत्रियो निर्भय होकर, हीन भावना त्यागो और अपने जन्म सिद्ध अधिकार ‘परमपुरुष का साक्षात्कार‘ को प्राप्त कर, उन्हें अपना बना लो और अपने भीतर छिपी अपार शक्तियों, ज्ञान और तेज को प्रकाशित कर जगत का कल्याण करो और अमर हो जाओ।
No comments:
Post a Comment