Saturday, 24 January 2015

5.84: स्रष्टिमातृका शिवानी, भैरवी और भवानी

5.84: स्रष्टिमातृका शिवानी, भैरवी और भवानी ( पिछले खंड के सूत्र  से आगे. . .  )

13. त्रिगुणत्मिका सृष्टिमातृका अशेषत्रिकोणधारा। परम पुरुष से सम रज और तम की अनन्त धारायें तरंगों के रूपमें चलते हुए परस्पर मिलकर अनेक कोणात्मक यंत्रों का निर्माण करती हैं जो अन्ततः स्वरूप परिणाम के कारण त्रिकोणयुक्त त्रिभुज में रूपान्तरित होते रहते है । इसे त्रिगुणत्मिका मातृकाशक्ति कहते हैं।
14. त्रिभुजे सास्वरूप.परिणात्मिका। इस त्रिभुज से सत्व रज में, रज तम में, और तम रज में और रज सत्व में असीमित रूपसे रूपान्तरित होता रहता है। उनके इस रूपान्तरण को स्वरूप परिणाम कहते हैं।
15. प्रथमा अव्यक्ते सा शिवानी केन्द्रे च परमशिवः। इस त्रिभुज समूह का मध्यविंदु जिस सूत्र से ग्रथित है वह सूत्र ही पुरुषोत्तम या परम शिव हैं। त्रिभुज जबतक विभन्न शक्तियों के प्रभाव से अपना भारसाम्य नहीं खोता तब तक उसे त्रिकोणाधार की प्रथम अवस्था कह सकते हैं, यही सृष्टि की प्रारंभिक अवस्था है, अतः यह पूर्णतः सैद्धान्तिक है। इस अवस्था में आधार स्रष्टि प्रकृति शिवानी या कौषिकी कहलाती है जिसके साक्षी पुरुष शिव हैं।
16. द्वितियासकले प्रथमोद्गमे भैरवी भैरवाश्रिता। त्रिभुज का भारसाम्य नष्ट हो जाने पर किसी एक कोंण से सृष्टि का अंकुर निर्गत होता है और गुण भेद से सरलरेखाकार आगे बढ़ता जाता है।  यह अवस्था व्यक्त पुरुष और व्यक्ता प्रकृति की है। पुरुष जहाॅं सगुण का कारण है वहीं प्रकृति  स्वयं को व्यक्त करने का अवसर पाती है। इस अवस्था को भैरवी कहते हैं और इसके साक्षी पुरुष भैरव कहलाते हैं।
17. सदृशपरिणामेन भवानी सा भवदारा।  इस के बाद शक्ति प्रवाह के आभ्यान्तरिक संघर्ष से पुरुष भाव की गंभीरता कम होती जाती है और वकृता दिखाई देती है। यहीं से प्रथम कला का उद्गम होता हैं ।  फिर एक कला के अनुरूप दूसरी और दूसरी के अनुरूप तीसरी  का निर्माण क्रम चलता रहता है। इस प्रकार के कलानुवर्तन का नाम है सद्रश्य  परिणाम। इस सदृश्य  परिणाम के तरंग प्रवाह में ही मानस जगत और भौतिक जगत की रचना होती है।  इसी के फलस्वरूप हम मनुष्य की सन्तान मनुष्य और वृक्ष की सन्तान वृक्ष के रूपमें दिखाई देती  है। कलाये सदृश्य  होते हुए भी विलकुल एकसमान (identical) नहीं होती। कलाओं में पारस्परिक दूरी के बढ़ने पर इनकी पृथकता दिखाई देती है। व्यक्त जगत की इस कलात्मक शक्ति को भवानी कहते हैं, और इसके साक्षी पुरुष हैं भव। भव शब्द का अर्थ है स्रष्टि।
18.म्भूलिंगात् तस्य व्यक्तिः। त्रिकोणाधार के जिस विंदु से प्रथम भैरवी का स्फुरण होता है वहीं से सैद्धान्तिक से व्यावहारिक विकास प्ररंभ होता है। सिद्धान्त और व्यवहार में जो यह सामान्य विंदु होता है उसे शंभुलिंग कहते हैं। वास्तव में शंभू लिंग सकल धनात्मिकता का मूल विंदु है (fundamental positivity)इस प्रारंभिक विंदु के बाद नाद और इसके बाद कला उत्पन्न होती है।
19. स्थूलीभवने निद्रिता सा कुंडलिनी।  व्यक्तिकरण का शेष विंदु भवानीशक्ति का शेष प्रान्त है इसलिये शक्ति विकास की वही चरमतम अवस्था या चरम जड़ अवस्था है। इसी जड़ भाव में निद्रित पराशक्ति जीवभाव की भावना लिये सोयी रहती है। इसका नाम कुलकुंडलिनी है।
20. कुंडलिनी सा मूलीभूता ऋणात्मिका। विकास के शेष विंदु को स्वयंभू लिंग कहा जाता है। यह स्वयंभूलिंग ही परम ऋणात्मक विंदु है और उसी के आधार पर जो सोई हुई कुंडली के आकार की शक्ति रहती है वही कुंडलिनी शक्ति है। शम्भू  लिंग यदि परम धनात्मक भाव हो तो स्वयंभूलिंग में आश्रित कुंडलिनी को परम ऋणात्मिकाशक्ति( fundamental negativity) कह सकते हैं।

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