Monday 12 January 2015

स्वर्ग और नर्क

अनेक मित्रों ने विभिन्न मतवादों में वर्णित ‘‘स्वर्ग और नर्क‘‘ की अवधारणाओं पर विज्ञानसम्मत तार्किक आधार  पर टिप्पणी चाही है। मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि सच्चाई जानने के लिये उत्सुक आप सभी इन विषयों पर गंभीरता से चिंतन कर रहे हैं। इस विषय पर वाॅंछित जानकारी इस प्रकार है।
                                                      स्वर्ग और नर्क
अनेक धर्मों में यह कहा गया है कि मरने के बाद कर्मानुसार स्वर्ग या नर्क में रहना पड़ता है अर्थात् ये स्थान पृथ्वी से भिन्न कहीं अन्यत्र माने गये हैं। परंतु ‘आनन्दसूत्रम्‘ में कहा गया है कि ‘‘ न स्वर्गो न रसातलः ‘‘।
अब यदि इसे इस प्रकार सोचें कि सब कुछ तो परमपुरुष की ही रचना है अतः स्वर्ग और नर्क दोनोें के स्वामी वही हैं, उपनिषदों में कहा गया है ‘‘ उतामृतस्येशानो " = उत + अमृत + ईशान‘‘ । उतः का अर्थ है नर्क , अमृतस्य का अर्थ है स्वर्गका , और ईशानः का अर्थ है स्वामी या नियंत्रण करने वाला ।

अतः यदि उन परमपुरुष का ही आश्रय लिये रहें तो स्वर्ग हो या नर्क वह भी साथ साथ ही रहेंगे कि नहीं??

परंतु क्रूर सच्चाई यह है कि स्वर्ग और नर्क कोई ऐंसी जगहें नहीं हैं जो कि पृथ्वी के ऊपर या नीचे हों । ये, इकाई मन अर्थात् मानव मन की विभिन्न पाॅंच पर्तें हैं दार्शनिक  इन्हें कोश  या लोक कहते हैं। इनके नाम हैं , अन्नमय या काममय, मनोमय, अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय। ये पाॅंचों भूलोक और सत्यलोक के बीच मानी गईं हैं, भूलोक अर्थात् पृथ्वी पर मनुष्य और सत्यलोक पर परमपुरुष का आधिपत्य माना गया है परंतु ये सभी एक ही परमपुरुष के मन(cosnic mind)  के भीतर ही हैं क्योंकि उपनिषदों मेें कहा गया है कि ‘‘ सर्वं खल्विदम् ब्रह्म‘‘ अर्थात् यह सबकुछ उन परमब्रह्म की ही विचार तरंगें हैं। निर्पेक्ष रूप से इन्हें क्रमशः  भूः, भुवः, स्वः महः जनः तपः और सत्यम कहा जाता है। पुनः स्पष्ट किया जाता है कि यह सब पृथक पृथक स्थान नहीं हैं वरन् वैज्ञानिक आधार पर परमपुरुष की सगुणावस्था में भूमा मन (cosmic mind)  की विभिन्न विचार तरंगों के समूह(wave pattern) माने जाते हैं। भूलोक में भौतिक जगत और उसमें होने वाली सभी गतिविधियाॅं आती हैं, मनुष्य, पशु , वनस्पति , ठोस, द्रव आदि इसी लोक की वस्तुएं हैं। भुवः लोक में वे सभी निर्माणाधीन अस्तित्व आते हैं जिन्होंने कोई आकार या रूप अब तक धारण नहीं किया है अर्थात् पदार्थ की चतुर्थ अवस्था जिसे ‘प्लाज्मा स्टेट‘ कहते हैं, को इसके अन्तर्गत माना जाता है। स्वःलोक, सूक्ष्म मन या मानसिक संसार या मनोमय कोश  कहलाता है, यहीं पर सुख या दुख की अनुभूति होती है इसी लिये मनुष्य इसे स्वर्ग लोक कहने लगे  (स्वः + ग = स्वर्ग )। जब किसी मनुष्य को अपने शुभ किये गये कार्य से संतुष्ठि होती है तो उसे जो आनन्दानुभूति होती है वही स्वर्ग है और अनुचित कार्य करने वाले का असंतुष्ठ मन हमेशा  दुख का अनुभव करता है यह उसके लिये नर्क हो जाता है। इसलिये स्वर्ग और नर्क केवल मन की अवस्थायें हैं और वे इसी भौतिक जगत में ही हैं कहीं अन्य स्थान पर नहीं। यह मनोमय कोश  ही है जो आपके साथ ही रहता है अतः स्वर्ग लोक हमेशा  आपके साथ ही है और आप यदि कल्याणकारक कार्य से जुड़े हैं तो आप साधारण व्यक्ति से असाधारण व्यक्ति के रूप में स्वर्ग में ही हैं अन्यथा की स्थिति में नर्क में। इसलिये वे लोग भले ही पंडित कहलाते हों या नहीं, यदि स्वर्ग और नर्क की कहानियाॅं सुनाकर उनके  अलग स्थान पर होने की शिक्षा देते हैं तो वे भ्रामकता की ओर ले जाते हैं।
मन की अपरिपक्व अवस्था ही नर्क का आधार होती है और इसी अपरिपक्वता के स्तर को उसकी गहनता के आधार पर सात स्तरों में समझाया गया है जिन्हें तल, अतल, वितल, तलातल, पाताल, अतिपाताल, और रसातल नाम दिये गये हैं। अविद्या की उपासना से घोर पाप कर्म (inhuman deeds) से जुड़े व्यक्ति से कहा जाता है कि रसातल के अंधकार में  में जाओगे, इसका मतलब यही है मन का स्तर इतना निम्न हो जायेगा  कि वह ज्ञान का प्रकाश  नहीं पा सकेगा अतः अंधकार में रहेगा, मन की निम्नतम(crudest state of mind)  अवस्था में पड़ा रहेगा । इसी तरह उन्नत मन की उच्चतर अवस्थाओं को महः ,जनः ,तपः और सत्यम कहा गया है। सत्यम और हिरण्यमय कोश  एक ही हैं । हिरण्यमय का अर्थ है स्वर्णमय , सोने जैसा । योग और विद्यातन्त्र में यह स्वीकार किया गया है कि परमपुरुष हिरण्यमय कोश  के पर्दे के पीछे रहते हैं। यथार्थता यह है कि जब साधना के द्वारा मन को इतना पवित्र और स्वच्छ कर लिया जाता है कि उसमें किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं हो सकता हो तो वह स्वर्ण की भाॅंति काॅंतिमान लगता है और परमसत्ता का पूर्णतः  परावर्तन उसमें होने लगता है और फिर इकाई मन और भूमा मन अर्थात् परमपुरुष के मन में कोई अन्तर नहीं रहता यह अवस्था आत्मसाक्षात्कार कहलाती है।  इसलिये कर्मों के अनुसार ही मन की विभिन्न अवस्थायें होती रहतीं हैं इसलिये कोई भी व्यक्ति अपनी मानसिक अवस्थाओं के अनुसार एक ही दिन में अनेक बार स्वर्ग और नर्क की यात्रा करता रह सकता है। इसलिये विद्यातंत्र वह विधि समझाता है जिससे हमेशा  ब्रह्मभाव में मन को बनाये रखने पर वह स्वर्ग और नर्क दोनों से ऊपर रहने लगता और क्रमशः  परमपुरुष के निकट होता जाता है।

आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार मनोमय कोश  को अवचेतन मन (subconscious mind) कहते हैं। यह विज्ञान कहता है कि अवचेतन मन में हमारे भूतकाल के अनेक जन्मों और वर्तमान की सभी स्मृतियों का संग्रह होता है। विना अवचेतन मन के हम कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते क्योंकि सभी ज्ञान और स्मृति इसी में केन्द्रित रहते हैं। मनोविज्ञान में मन के केवल तीन स्तर माने गये हैं चेतन (conscious) अवचेतन (subconscious) और अचेतन (unconscious)जबकि योग विज्ञान में अचेतन को भी तीन और स्तरों में बाॅंटा गया है अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय, जो मन की क्रमानुसार अत्यन्त कम आवृत्तियों की सूचक हैं। अतिमानस पराज्ञान, विज्ञानमय पराशक्तियों  और हिरण्यमय परम उपलव्धियों का क्षेत्र है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार प्रत्येक अस्तित्व की मूल आवृत्ति (fundamental frequency) होती है और यह जड़ता (crudity)  की ओर अधिक और सूक्ष्मता (subtlety) की ओर कम होती जाती है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि मन की आवृत्ति का अत्यधिक बढ़ जाना जड़ता अर्थात् पर्वत या पत्थर हो जाना या नर्क की ओर जाना, और आवृत्ति का लगभग शून्य  हो जाना अर्थात् स्वयं को जान लेना या परमात्मा अर्थात् स्वर्ग को पा लेना ही है। परमात्मा की तरंगदैध्र्य (wave length) अनन्त कही गई है अर्थात् आवृत्ति शून्य  अर्थात् हिरण्यमय कोश । योग का व्यावहारिक ज्ञान और विद्यातंत्र की व्यावहारिक विधियाॅं अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय क्षेत्रों की यात्रा कराते हुए अन्त में परमात्मा से एकाकार करा देती हैं जो मानव मात्र के जीवन का लक्ष्य है।

यहाॅं यह भी स्पष्ट करना उचित लगता है कि अकेली अविद्या अथवा अकेली विद्या की उपासना से निर्धारित लक्ष्य कभी भी प्राप्त नहीं होगा क्योंकि दोनों एक दूसरे के सापेक्षिक होती हैं। विद्या के क्षेत्र में प्रगति करने के लिये प्रारंभिक रूप से अविद्या उतनी ही सहायक होती है जितना कि पृथ्वी पर आगे गति करने के लिये घर्षण। इसलिये अविद्या की केवल इतनी ही आवश्यकता पर्याप्त होती है। उपनिषदों का स्पष्ट निर्देश  है कि  
‘‘अंधं तमः प्रविशन्ति ये अविद्यां उपासते, ततो भूय एव ते तमो य उ विद्यायां रताः।‘‘
अर्थात् अकेले अविद्या की उपासना करने वाले अंधे कुए में जाते हैं और अकेली विद्या की उपासना करने वाले उससे भी अधिक अंधे लोक में जाते हैं। इसका अर्थ भी उपरोक्त वर्णन के अनुसार मन की जड़ोन्मुखी और सूक्ष्मस्तरोन्मुखी गतियाॅं हो जाना ही है।

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