Saturday 10 January 2015

5.7 तंत्र साधना और भ्रम

5.7  तंत्र  साधना और भ्रम
1. अल्प में संतुष्ट होना आदमी का स्वभाव नहीं है, इसलिये आदि काल से ही वह वृहत् का उपासक रहा है। इसी कारण उसने वृहत् ज्ञान और परोक्ष तथा अपरोक्ष अनुभूति का पथ ढूढ़ निकालने का पराक्रम किया जिससे उसकी जिज्ञासा, तितिक्षा जागी। मनन से प्राप्त उपलब्धियों के कारण ही वह मानव कहलाया। वेदों में संग्रहीत इस उपलब्धि से ज्ञानपिपासा तो मिटी है पर प्राणकी क्षुधा नहीं मिटी, यह साधना की सार्थक अनुभूति के द्वारा ही मिटती है। इस साधना के आदि प्रवक्ता सदाशिव थे। उन्हींने इसे तंत्र के नाम से अभिहित किया जिसकी शास्त्रीय ब्याख्या है,‘‘तं जाड्यात् तरयेत् यस्तु सः तंत्रः परिकीर्तितः’’। अर्थात् जड़ता के बीज ‘‘ तं ’’ से जो त्राण दिलाये वह तंत्र कहलाता है। अन्य अर्थ में भी तन् का मतलब है विस्तार, प्रसार। इसलिये आत्म विस्तार करने की विधि जिससे मोक्ष प्राप्त होता है वह तंत्र कहलाता है। यह एक व्यावहारिक विधि है जिसका सूत्रपात शरीर से होता है और मन से अनुशीलन करते हुए यह आत्मिक चेतना में पहुंचाकर आत्म साक्षात्कार पर समाप्त होती है।
2. व्यावहारिक होने के कारण तन्त्र, गुरु के द्वारा सीधे ही व्यक्ति को सिखाकर सतत पर्यवीक्षण में अभ्यास कराने की पृथा रही है, परंतु कालक्रम में गुरु, आचार्य और उपयुक्त जिज्ञासु के अभाव में यह लिपिबद्ध हुआ ताकि यह विद्या लुप्त ही न हो जावे। वर्तमान में लिपिबद्ध रूप में हम चौसठ तंत्र पाते हैं। इन सबको मूलतः दो विभागों में बांटा गया है, एक है आगम और दूसरा है निगम। आगम व्यावहारिक है जबकि निगम सैद्धान्तिक। वेद निगम के अंतर्गत आते हैं।
3. सधना मार्ग के बारे में कहा गया है कि ‘‘ क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया’’ अर्थात् इस रास्ते में अनेक क्षुर धार बिछे हुए हैं। इसी कारण तन्त्र में गुरु और शिष्य को बड़ी ही सावधानी से चलना पड़ता हैं, गुरु के आदेश  का पालन करने में साधक की थोड़ी सी चूक पतन का कारण बनती है। अतः तान्त्रिक साधना की प्रारंभिक प्रयोजनीयता होती है उपयुक्त गुरु तथा शिष्य के चयन करने की।
4. साधक का हृदय है खेत, साधना है हल चलाना और पानी सींचना तथा गुरु का दीक्षादान है बीजबोना। गुरु की अयोग्यता अर्थात् त्रुटिपूर्ण बीज तथा शिष्य की अयोग्यता अर्थात् अनुर्वर भूमि मानी जाती है।
5. शिष्य तीन प्रकार के होते हैं। 1. अधोमुख कुभ, जिनमें तभी तक पानी रहता है जब तक वे डूबे रहते हैं, अर्थातृ गुरु के सान्निध्य में रहते हैं तो ठीक अन्यथा ज्यों के त्यों। 2. उत्संगी बदरी, जो बड़े कष्ट पाकर गुरु से कुछ सीखते हैं पर ज्ञान को  अपने पास सुरक्षित रखने की ब्यवस्था नहीं कर पाते । जैसे बेर के पेड़ पर चढ़कर काटों में से बेर तो तोड़ लिये पर उन्हें रखने के लिये केवल हाथ। 3. ऊर्ध्वमुख कुम्भ, जो जल के भीतर रहते हुए भी जल से भरा रहता है तथा बाहर लाने पर भी पूरा भरा रहता है। अर्थात् वे सीखी गई चीज को यत्न पूर्वक संचित रखते हैं।
6. गुरु भी तीन प्रकार के होते हैं। 1. अधम, ये अच्छी अच्छी बातें सुना और सिखा के दूर हो जाते हैं शिष्य वैसा कर रहा है या नहीं उसे देखने की चिन्ता नहीं करते । 2. मध्यम, ये सिखाते तो हैं ही खोज खबर भी रखते है पर वह कुछ कर भी रहा है या नहीं इसकी छानबीन नहीं करते। 3. उत्तम, ये शिष्य को सिखाते हैं खोज खबर रखते हैं और साधनागत त्रुटियों को सुधारने हेतु बाध्य करते हैं, नहीं सुधारनें पर दंडित भी करते हैं।
7. उत्तम गुरु के लक्षण:
शान्तोदान्तोकुलीनश्च  विनीतशुद्धवेशवान्, शुद्धाचारी सुप्रतिष्ठित शुचिर्दक्ष सुबुद्धिमान।
आश्रमी ध्याननिष्ठष्च तंत्रमंत्र विशारद निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते।

शान्त. जिन्होंने अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया है। दान्त. जिनकी इन्द्रिय समूह की कर्म प्रणाली बहुमुखी है। श्रवण, मनन और निदिध्यासन के कार्य में इन्द्रियोंकी महती भूमिका है, अतः इन तीनों कार्यों को छोड़ इंन्द्रियों की समस्त कर्मधाराओं को जिन्होंने नियंत्रित कर लिया है। कुलीन. जो कुलकुंडलिनी की साधना करते हैं, जो पुरश्चरण  में सिद्ध हैं, इन्हें ही कुलगुरु कहते हैं । विनीतशुद्धवेशवानआचरण में शुद्ध, शुद्धआजीविका युक्त और मन से शुचिता तथा आध्यात्मजगत में दक्षता गुरु के आन्तरिक गुण हैं। दक्ष का अर्थ है जो सैद्धान्तिक और व्यावहारिक ज्ञान दोनों में पारंगत हैं। जिन्हें केवल सैद्धान्तिक ज्ञान है उन्हें कहा जाता है विद्वान। गुरु के विद्वान होने से काम नहीं चलेगा उन्हें दक्ष होना पड़ेगा, इसी प्रकार उन्हें बुद्धिमान नहीं सुबुद्धिमान होना पड़ेगा। तंत्र विधानानुसार ग्रही ही ग्रही के गुरु हो सकते हैं अन्य नहीं। केवल ध्यान की विधि सिखाने का काम ही नहीं उन्हें ध्याननिष्ठ होना होगा। मननात् तारयेत्यस्तु सः मंत्रः परिकीर्तितः, अतःकिसके लिये कौन मंत्र उपयुक्त है, कौन सिद्धमंत्र है कौन नहीं, कौल गुरु में यह ज्ञान अवष्य ही होना चाहिये , इसीलिये कहा गया है कि उन्हें तंत्रमंत्र विशारद होना चाहिये। जो एकसाथ दक्ष और विद्वान हैं उन्हें विशारद कहा जाता है। निग्रह माने शासन, अनुग्रह माने कृपा। गुरु शासन और कृपा दोनों से पूर्ण रहेंगें।
8. उत्तम शि ष्य के लक्षण:
शिष्य के लक्षणों में तंत्रसार कहता है,‘‘शान्तो विनीत शुद्धात्मा श्रद्धावान धारणाक्षमः, समर्थश्च  कुलीनश्च  प्रज्ञःसच्चरितो यति एवमादि गुर्णैयुक्तः शिष्यो भवति नान्यथा।’’ अर्थात् जो हर समय प्रत्येक स्थिति में गुरु की आज्ञा का पालन करने को उत्सुक हों, उन्हें समर्थ कहते हैं। जिसमें उपयुक्त ज्ञान और समझ दोनों हो वह है प्राज्ञ। जिसे मानसिक संयम प्राप्त है उसे यति कहते हैं। इसतरह जो शान्त , विनीत, शुद्धात्मा श्रद्धावान ,धैर्यशील, समर्थ , कौल साधना में उत्साही, प्राज्ञ, सच्चरित्र एवं यति हैं वे ही उपयुक्त शिष्य हैं।
9. साधारण अवस्था में हर आदमी के अपने संस्कार होने के कारणवह विवेकशील पशु  (rational animal) कहलाता है। अतः साधना का पहला स्तर पशु  स्वभाव के साथ युद्ध करना सिखाता है उसे पश्वाचार  कहते हैं, इन वृत्तियोंपर विजय प्राप्त करने वाले ही वीर कहलाते हैं। रुद्रयामल तंत्र के अनुसार ‘‘सर्वे च पशवः सन्ति तलवत भूतले नराः, तेषां ज्ञानप्रकाशाय वीरभाव प्रकाशितः। वीर भाव सदा प्राप्य क्रमेण देवता भवेत्।‘‘ अर्थात् स्वाभाविक अवस्था में सभी पशु  हैं, आध्यात्मिक जिज्ञासा उत्पन्न होने पर उसे वीर कहते हैं और जब यह वीर भाव हृदय में स्थान ले लेता है तब वह देवता कहलाता है। तंत्र का साधना क्रम इसी व्यावहारिक सत्य पर आधारित है इस कारण विज्ञान से इसका कोई विरोध नहीं है।
10. ‘‘पशु , वीर और देवता के भावत्रय के बीच भी समाज में विभिन्न स्तर भेद हैं, गुरु इन्हीं आध्यात्मिक और मानसिक स्तर भेद के अनुसार शिक्षा देते रहते हैं। ‘‘वैदिकं वैष्णवं शैवं दाक्षिणम् पाशवं स्मृतं सिद्धान्ते वागे च वीरे दिव्यं तु कौलमुच्यते।’’ वैदिकाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, और दक्षिणाचार ये सब पशुभाव के विभिन्न स्तर हैं। सिद्धान्ताचार और वामाचार वीरभाव के अंतर्गत हैं तथा कौलाचार दिव्यभाव कहलाता है।
11. तंत्र  में सबसे निम्न स्तर पर वैदिकाचार रखा गया है क्योंकि इसमें सब कुछ सैद्धान्तिक है तथा आडंबरपूर्ण अनुष्ठान के अलावा कुछ नहीं हैं तथा जाति, वर्ण, श्रेणी भेद साधक के मन में रहते हैं।
12.  तंत्र  है आत्म विस्तार की साधना अतः वे जो संकीर्णता में वर्ण और जाति भेद में लिप्त रहकर स्थूल भोगों में ही अपना अंतिम लक्ष्य मानते हैं, इसकी निन्दा करते पाये जाते हैं। पंच मकार अर्थात् ‘‘मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन’’ का अपने अपने ढंग से अर्थ लगाकर भ्रामकता फैलाते हैं। तंत्र मूलतः दो शाखाओं में पाया जाता है, एक स्थूल तथा दूसरी सूक्ष्म। सूक्ष्म शाखा की साधना को योगमार्ग तथा स्थूलशाखा भोगमार्ग कहलाती है। स्थूल और सूक्ष्म का मध्यवर्ती स्तर मध्यममार्ग के नाम से स्वीकृत है। जिनकी स्थूल पशुवृत्ति उग्र होती है वे तामसिक भोगों की ओर तेजी से दौड़ पड़ते हैं। यदि वे जोर देकर मन को भोग से हटाते हैं तो परिणाम भयावह होता है इसके अनेक उदाहरण समाज में देखे जा सकते हैं। मनोवैज्ञानिक रूप से भी (repression and suppression)   को कभी अच्छा नहीं माना जाता। इसलिये जिनमें स्थूल भोगों की वासना छिपी है उन्हें स्थूल पंचमकार धीरे धीरे नियंत्रित करने की, और सूक्ष्मतर वृत्ति की ओर जिनका आग्रह अधिक है उन्हें सूक्ष्म पंचमकार की अर्थात् योग मार्ग की व्यवस्था  दी गयी है।
13. स्थूल पंचमकार- इसका उद्देश्य  है भोगों के बीच रहकर उन्हें नियंत्रित करते हुये साधना करना। परिमित भाव से भोग्य वस्तु का ब्यवहार करने से साधक के मन में शुद्धि जाग्रत होती है और अंत में वह भोगों से ऊर्ध्व  चला जाता है। जैसे जो अतिशय मद्य और मांस का  सेवन करता है वह धीरे धीरे इनके परिमाण पर नियंत्रण लाकर कमी लायेगा। इस कार्य में उसे ईश्वरीय  भाव जगाये रखने की लगातार चेष्टा करनी होगी ताकि उसे भोगों पर परिमिति प्राप्त कर प्रवृत्ति मूलक पंचमकार से धीरे धीरे निवृत्ति मूलक पंचमकार की ओर जाने में सरलता हो सके। इसी प्रकार मुद्रा, मत्स्य, और मैथुन के संबंध में भी समझना चाहिये।
14. सूक्ष्म पंचमकार- 1..मद्य साधना-‘‘सोमधारा क्षरेद् यातु ब्रह्मरंध्रात् वरानने, पीत्वानन्दमयस्तं स एव मद्य साधकः’’ अर्थात् ब्रह्मरंध्र, (pineal gland) से जो सुधा (hormones) का क्षरण होता है उस सोमधारा का जो पान करता है वही मद्य साधक कहलाता है। वास्तव में ब्रह्म रंध्र से जो हारमोन स्राव होते हैं उनका नियंत्रण आंशिक  रूप से चंद्र अर्थात् सोम (pituitary gland) करता है अतः सोमरस कहलाता है। यह सोमधारा नीचे के ग्रंथी समूह द्वारा ग्रहण करने पर अपार्थिव आनंद का श्रोत बनती है। साधारण लोग इसे अनुभव नहीं कर पाते क्योकि उनके मन ;चपजनपजंतलद्ध  में पापचिन्ता रहने से यहीं नष्ट हो जाती है पर जो ईश्वर  भावनामें विभोर रहते हैं वही इसका आनन्द ले पाते हैं। चूंकि इस आनंद की स्थिति में साधक अपनी सुध बुध भूल जाता है अतः अन्य लोग समझते हैं कि उसने शराब पी होगी क्योंकि उन्हें तो इसका ज्ञान नहीं होता। मद्य की एक और ब्याख्या तान्त्रिक योगियों ने की है ‘‘संयुक्तं परमं ब्रह्म निर्विकार  निरंजनम् तस्मिन प्रमदन ज्ञानं तत्मद्यं परिकीर्तितम्’’ अर्थात् उस निर्विकार ब्रह्म के प्रगाढ़ पेम में जो अपना अहंकार बुद्धि विचार सब कुछ खोकर मत्त हो चुका है वही मद्य साधक है। 2 मांस साधना- तांत्रिक योगियों के लिये मांस का अर्थ है,‘‘मा शब्दाद्रसना ज्ञेया तदंशान् रसना प्रिये, यस्तद भक्षयेन्नित्यं स एव मांस साधकः’’ । ‘मा’ का शब्दार्थ है जीभ और मांस का अर्थ जीभ .द्वारा स्रष्ट भाषा। अर्थात् वाक्संयम। एक अन्य अर्थ यह भी है ‘‘एवं मांसनोतिति यत्कर्म तन्मासं परिकीर्तितः , न च काय प्रतीवान्तु योगिभमसि मुच्यते’’ । अर्थात् जो पाप, पुण्य, अशुभ, शुभ, सर्व कर्म इतना तक कि साधना का फल भी मां अर्थात् मुझको समर्पित कर देता है वही मांस साधक है। 3 मत्स्य साधना- ‘‘ गंगा यमुनयोर्मध्ये मत्स्यो द्वौै चरतः सदा, तौ मत्स्यौ भक्ष्येद्यस्तु स भवेन्मत्स्य साधकः। अर्थात् गंगा यमुना नाड़ी, (इड़ा और पिंगला नाड़ी) द्वार के बीच जो दो मत्स्य सदा विचरण करते रहते हैं, (अर्थात् त्रिकुटी पर) उनका जो साधक भक्षण करता है (अर्थात श्वाश  नियंत्रण कर पूर्ण कुम्भक या शून्य कुम्भक प्राणायाम करता है) वही मत्स्य साधक है। ‘ मत्स्यमानं सर्वभूतेसुखदुखमिदम देवि, इति यत्सात्विकम् ज्ञानं तन्मत्स्यः परिकीर्तितः’’। जब सब भूतों का सुख दुख अपने सुखदुख के समान अनुभव हो तब साधक के इस सात्विकी बोध और ज्ञान को मत्स्य साधक कहा जाता है। 4 मुद्रा साधना- सत्संगेन भवेन्मुक्तिरसत्संगेषु बंधनम्, असत्संगमुद्रणं यत् तन्मुद्रा परिकीर्तिता। सत्संग का परिणाम मुक्ति और असत्संग का बंधन, अतः इस परम सत्य को समझ कर जो असत्संग मुद्रण, अर्थात् परित्याग करती है उस का नाम मुद्रा साधना है। 5 मैथुन साधना- इस तत्व के संबंध में नाना प्रकार की अशिष्ट उक्तियां कही जाती रहीं हैं, वास्तव में स्थूल वृत्ति वालों के लिये धीरे धीरे संयम के पथ पर बढ़ने का ही निर्देश  है परंतु सूक्ष्म साधना के लिये कहा गया है कि ‘‘कुलकुंडलिनी शक्र्तिदेहिनां देहधारिणी, तथा शिवस्य संयोगो मैथुनं परिकीर्तितं‘‘। मेरुदंडके सबसे निचले अंश  को कुल कहा जाता है, मूलाधार चक्र के इसी अंश  में कुलकुडलनी या दैवी शक्ति का निवास होता है, साधना के बल से इसे ऊपर उठाकर सहस्रार में परम शिव के संग मिलाना ही तंत्र साधक के इस पंचम तत्व की साधना है। तंत्र में साधन धारा क्रम से बतायी गयी है, देह से मन में, मन से आत्मा में अर्थात् यह (physico-psycho-spiritual)  है। शरीर और मन की शुद्धि के बाद ही आध्यात्मिक उन्नति संभव है यही तंत्र का अभिमत है। यह युक्ति संगत है, अतः आहार और व्यवहार शुद्धि साधक के लिये अनिवार्यता है। इसके विना
आध्यात्मिक भाव ग्रहण कर पाना असंभव है। भाव के संबंध में कहा गया है कि ‘‘शुद्धं सत्वविशेषाद्वा प्रेमसूर्यांशु  साम्यभाक्, रुचिभिश्चित्तमासृण्य कुदसोभाव उच्यते।’’ इसके अलावा ‘‘भावो हि मानसो धर्म मनसैव सदसाभ्यसेत्’’ अर्थात् भाव एक mental tendency है, बार बार के अभ्यास से ही इसकी व्याप्ति और ऋद्धि होती है। इसी के बार बार अभ्यास करने का नाम जप क्रिया है।अर्थात् (outer and auto suggestion both) , बारबार परमात्मा की भावना लेते रहने से साधक की मानसिक तरंगें अपनी वक्रता त्याग कर सरल रेखकार होने लगतीं हैं। ईश्वर  उपलब्धि का व्यावहारिक  ज्ञान  यह सरल रेखाकार समानान्तरता प्राप्त करना ही है क्योकि भैरवी शक्ति सरलरेखाकार है। वेद में ‘‘ तत्वमसि’’ ‘‘अहं ब्रह्मास्मि’’ आदि अद्वयवाचक शब्दों का व्यवहार किया गया है, परंतु किस प्रकार भाव लेना है, किस प्रकार मंत्र के प्राण तक पहुंचना है, किस प्रकार मंत्र को जीवन के साथ अछेध्य बंधन में बांधना है, इसका कहीं भी उल्लेख नहीं है ओैर ‘‘ अनुभूति विना मूढ़ाःवृथाब्रह्मणि मोदते , प्रतिबिंबितशाखग्र फलास्वादन मोदवत्’’के अनुसार  फल का प्रतिबिंव पानी में देखकर उसे खाने का प्रयास करने जैसा कार्य करने की सलाह देना चाहते है।
15. गंधर्वतंत्र के अनुसार- ‘‘अहं ब्रह्मास्मि विज्ञानादिज्ञान विनयी भवेत्, सोहमितयेव संचिंत्य विहरेत्सर्वदा देवि।’’अहं ब्रह्मास्मि इस परम विज्ञान के द्वारा ही अज्ञान का विनाश  होता है अन्य किसी से नहीं। यह केवल शाब्दिक  स्तर पर ही सीमित रहे तो भी कोई कार्य सिद्ध नहीं होता । सोहं मंत्र की परिच्छेदहीन भावना लेना होगी। केवल वाचनिक जप से भी संभव नहीं , मानस तथा आध्यत्म साधना का यह सूक्ष्म विज्ञान, तंत्र का ही आविष्कार है। तंत्र की जप क्रिया और ध्यान क्रिया महाकौल की ही व्यवस्था है। यदि मंत्र की गतिधारा के साथ साथ मन की गतिधारा समान आवृत्ति पर नहीं चले तो केवल जप से कोई काम नहीं होगा। जपक्रिया में सफलता प्राप्त करने के लिये समस्त मानसवृत्ति को मंत्र की ओर चलाना होगा, वायु को स्थिर  कर मंत्र से निबद्ध करना होगा। ‘‘ मनोअन्यत्र शिवोअन्यत्र शक्तिरन्यत्र मारुतः, न सिद्धयति वरानने कल्पकोटि शतैरपि।’’ मन किसी विषय की ओर दौड़ता हो ,ध्येय कहीं और हो ,प्राणशक्ति अन्य जगह लगी हो , वायु सभी दिशाओं में विखरी रहे, इस सार्वदैहिक विश्रंखलता के बीच परमात्मा का चिन्तन संभव नहीं, शतकोटि कल्प में भी नहीं । अतः कहा गया है कि ‘‘इंद्रियाणां मनोनाथः मनोनाथस्तु मारुतः’’ इंद्रियों का नियंत्रक मन है तथा मन का नियंत्रक वायु । इसलिये साधना में इनमें से किसी की उपेक्षा करने से काम नहीं चलेगा, सब को संयमित कर परम पुरुष की ओर ले जाना होगा । यह कैसे किया जाता है? यह दीक्षा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। तंत्र दीक्षा अत्यंत विज्ञान संम्मत है। दीक्षा के दो अंग हैं पहला दीपनी और दूसरा मंत्रचैतन्य। दीपनी का अर्थ है आलोकवर्तिका, और भावार्थ है मंत्र का यथार्थ बोध । इस ज्ञान के साथ मनन की संगति है मंत्र चैतन्य निर्धारण करना। अतः दीक्षा के संबंध में कहा गया है, ‘‘ दीपज्ञानंयतोदद्यात् कुर्यात् पापक्ष्यं ततः, तस्मात् दीक्षेति सा प्रोक्ता सर्वतंत्रस्य सम्मता’’। अर्थात् जिसके द्वारा दीपज्ञान अर्थात् मंत्र के यथार्थ  भाव को भाव नेत्र से देखने की शक्ति आती है तथा तत्क्षण कर्म क्षय प्रारंभ हो जाता है, उसे दीक्षा कहते है ।
16. दीक्षा के उपरान्त अत्यंन्त सुख बृद्धि या दुख बृद्धि यह प्रकट करती है कि दीक्षा मंत्र का उन पर सही प्रभाव पड़ रहा है। किन्तु मंत्र की यह प्रतिक्रिया केवल मंत्र के सुनने या जप करने से होने वाली नहीं है यथायथ भाव से मंत्र की दीक्षा लेना होगी तभी उसके जप का उपयुक्त फल प्राप्त होगा। मंत्र जप के पूर्वदीपनी के व्यवहार की आवश्यकता  होती है और मंत्रजप के साथ साथ मंत्र चैतन्य का बोध होना अनिवार्य है। जिस प्रकार अंधेरे घर में मूल्यवान वस्तु के रहने पर भी हम उसे नहीं देख पाते उसी प्रकार जिन्होंने  मूल्यवान मंत्र पाया है वे भी दीपनी के बिना उसे ठीक रूपमें ग्रहण नहीं कर पाते।
17. मंत्रचैतन्य- साधना में कुलकुंडलनी की ऊर्ध्व  गति नहीं कर सकने पर मंत्रजप निरर्थक होजाता है। कुंडलिनी को ऊर्ध्व  में ले जाने की क्रिया को पुरष्चरण कहते हैं।  मंत्रचैतन्य का तात्पर्य मंत्र के भाव को सही रूपमें ग्रहण करना है। अर्थ समझकर मंत्र जप करने से मंत्रचैैतन्य की विधी सहज ही संपन्न हो जाती है। ‘‘चैतन्यरहिता मंत्राःप्रोक्तवर्णास्तु केवलाः,फलं नैव प्रयच्छन्ति लक्षकोटि जपैरपि।’’
18. ध्यान- इसमें दीपनी तथा चैतन्य क्रिया की आवश्यकता  नहीं है। इनका प्रयोजन जप क्रिया में है अतः जिनकी जप सिद्धि नहीं हुई है उनके लिये ध्यान साधना अत्यंन्त कठिन है। ध्यान साधना के ध्येय पुरुष एकाधार मंत्र, दीपनी, और मंत्रचैतन्य तीनों हैं। अतः जपक्रिया में अनेक अंगों का समन्वय है जबकि ध्यान क्रिया अपने आपमें संपूर्ण है। ध्यान में प्रतिष्ठित होने पर ही निर्विकल्प समाधि पाना संभव है ।
19. तंत्र की ध्यान साधना पूर्णतः व्यावहारिक ज्ञानसाधना पर आधारित है, इसमें बाहरी अनुष्ठान अथवा लोक दिखावा नहीं है। मूर्ति  पूजा भी वाह्य अनुष्ठान है अतः इसे तंत्र में उत्तम नहीं कहा गया है। तंत्र में प्रवृत्ति, निवृत्ति और मिश्र प्रवृत्तिनिवृत्ति ये तीन प्रकार की साधनायें हैं। पिशाच साधना में जड़ के ऊपर प्रभुत्व पाने के लिये वीभत्स साधनाएं करने का विधान है जो बर्हिमुखी द्रष्टिभंगिमा लेकर ही की जाती है, अतः इसमें सिद्धि होने पर कुछ सुख की अनुभूति भले ही हो पर साधक की अधोगति पशु , काठ, मृत्तिका, या प्रस्तर के रूप में ही होती है। तंत्र का निवृत्तिमार्ग ही श्रेष्ठ साधना है। इसमें साधक प्रत्येक स्तर पर उन्नत होता है। निर्वाण या मोक्ष इसी से संभव है। मिश्र प्रव्रत्तिनिव्रत्ति मार्ग की साधना उपविद्या की  साधना कहलाती है इससे उन्नति या अवनति कुछ नहीं होती। प्रवृत्ति मार्ग या अविद्या की साधना से अधोगति होती है। निवृत्ति मार्ग ही चरम आध्यात्मिक उन्नति करता है।
20. तंत्र कितना मनोवैज्ञानिक है और कुसंस्कार से मुक्त है यह महानिर्वाण तंत्र में इसप्रकार वर्णित है.....‘‘ बालक्रीणावत्सर्वं रूपनामादि कल्पनम्,केवलं ब्रह्मनिष्ठो वः समुक्तोनात्र संशयः। मृच्डिलाधातुदार्वादिमुत्र्तावीश्व  रवद्धय।,क्लिश्यन्तिस्तपसा ज्ञानं विना मोक्षं न यान्ति ते। मनसाकल्पिता मूर्ति  नृणां चेन्मोक्षसाधनी, स्वपन्लब्धेन राज्येन राजानो मानवास्तथा। न मुक्तिर्तपनाद्धोमादुपवासशतैरपि, ब्रह्मैवाहमिति ज्ञात्वा मुक्तो भवति देहभृत। वायुपर्णकणातोयं ब्रतिनो मोक्षभागिनः, अपिचेत्पन्न्ग्गाः मुक्ताः पशुपक्षीजलेचरा।
21. कुछ लोग सोच सकते हैं कि तंत्र तो बड़े ही कठोर आचरण पर आधारित है, इसमें भक्ति का कोई स्थान नहीं है, परंतु ऐंसा नहीं है। तंत्र की आदर्श  निष्ठा अटूट पराभक्ति पर ही आधारित है। इसी लिये तंत्र में कहा गया है कि ‘‘ ओम् नमस्ते सते सर्वलोकाश्रयाय,नमस्ते चिते विश्वरूपाश्रयाय। नमोअद्वेततत्वाय मुक्ति प्रदाय, नमो ब्रह्मणे व्यापिने निर्गुणाय। तदेकं जगत् कृर्तपातृ प्रहर्तृं, तदेकं परं निश्चलं निर्विकल्पं। भयानां भयं भीषणं भीषणानां, गतिः प्राणिनां पावनं पावनानां। महोच्चैः पादानां नियंत्र तदेकम्, परेशां  परं रक्षकं रक्षकानाम्ं। परेशप्रभुसर्वरूपाविनाशिन्न निर्देश्यसर्वेन्द्रियागम्यसत्य, अचिन्त्याक्षरव्यापकाव्यक्तत्व, जगदृभासकाधीश  पायादपयात्। तदेकं स्मरामस्तदेकं जपामस्तदेकं तगद्साक्षीरूपं नमामःं तदेकं निधानं निरालंबमीशं  भवाम्बोधिपोतं शरणं ब्रजामः।
22. दार्शनिक रूप से समस्त प्रकृति का साक्षी पुरुष चेतन और प्रतिसंवेदनयुक्त है अतः उसे चितिशक्ति या आत्मा कहा जाता है। इसके पांच लक्षण हैं। 1.शुद्धा 2. अप्रतिसंक्रमा 3. अनन्ता 4. अपरिणामी
5. दर्शितविषया। (1) शुद्धता का अर्थ है जिसमें अन्य विपरीतधर्मी वस्तु का मालिन्य न लगा हो। जहां उस पर प्राकृतिक मलिनता का प्रभाव पड़ा है उसे चितिशक्ति नहीं बोल सकते, वहां वह जगत स्रजनी किसी न किसी तत्व में रूपान्तरित हो जाती है। यह जगत जो चितिशक्ति का ही विवर्तित रूप है जो अशुद्ध है, उसे चितिशक्ति में रूपान्तरित करने के लिये विशेष प्रकार की रासायनिक प्रक्रिया की आवश्यकता होती है, इस रासायनिक प्रक्रिया का नाम है धर्म साधना। साधना में भेदात्मक जगत के सभी तत्व समाप्त हो चुकने के बाद जो एक तत्व बच रहता है,  वही चितिशक्ति है, इस प्रकार साधक प्राकृतशक्ति के ऊर्ध्व  में स्थित होकर चितिशक्ति को साक्षात करता है। (2)अनंतत्व का अर्थ है जिसका अंत या शेष वस्तु का विेषयित्व न हो, इसीलिये कभी भी अनन्त मानसिक परिधि में नहीं आ सकता अन्यथा ‘‘अन्त नहीं ’’ इस प्रकार का विकल्प भाव लेने से अनन्त साधारण मन में विेषय के रूप में रह सकता है। वस्तुतः जिस अर्थ में चितिशक्ति अनन्ता है, वह अनन्त
लौकिक जगत का शब्द मात्र है, इसके अर्थ की उपलब्धि से मन प्रनष्ट हो जाता है। अन्त  की कल्पना मन ले सकता है ‘‘अनन्त की नहीं ’’ इस अर्थ में भी अन्त की जो कल्पना ली जाती है, उसे एक प्रकार का अनन्त की कल्पना लिया जाना बोल सकते है परंतु चितिशक्ति इसप्रकार की अनन्ता नहीं है। व्यक्त भूमा मानस इसी प्रकार के अनन्त हैं इसीलिये व्यक्त जगत अति वृहत होने पर भी उसमें विेषयित्व दोेष रह ही जायेगा। अनन्त, अन्त का विपरीतार्थक शब्द मात्र है, चितिशक्ति इस अर्थ में अनन्ता नहीं । चितिशक्ति जिस अर्थ में अनन्त है उसका अर्थावगाही बोध मनन के बाहर है। इसका तात्पर्य यह है कि चितिशक्ति जिन सब वस्तुओं का साक्षी है, उनका कोई भी शेष वस्तुरूप में स्वीकृत नहीं हो सकता। वस्तु का परिचय उससे विकीर्णित होने वाले तन्मात्र समूह से होता है, किन्हीं दो वस्तुओं से एक ही प्रकार का तन्मात्र निर्गत नहीं होता अतः उनमें अपनी विषशेषता होती है। इसलिये यह जगत तन्मात्राधर कहलाता है आकार की क्षुद्रता या वृहत्व जिसके द्वारा निर्धारित होता है उसे व्यवधि कहते हैं। इन्द्रियों के द्वारा हम तन्मात्राओं को ग्रहण करते हैं और प्राण की सहायता से मन, व्यवधि की धारणा करता है। चितिशक्ति में तन्मात्राधार या व्यवधि नहीं रहने के कारण उसे निर्विशेष कहते है। अतः जो निर्विशेष  है वही अनन्त है, चितिशक्ति केवल शुद्धा ही नहीं अनन्ता भी है। (3 ) अपरिणामित्व अर्थात् जिसमें कोई परिणाम या परिवर्तन नहीं होता। जगत की प्रत्येक वस्तु में लगातार परिवर्तन होता रहता है, देश  गत परिवर्तन को ‘गति’ और उसके मानसिक परिमाप को ‘काल’ कहते है। यही कार्य कारण को जन्म देते हैं सृष्टि  चक्र के अनुवर्तन में जो कार्य कारण है वह चितिशक्ति की स्वरूपावस्था में संभव नहीं, केवल प्रकृतिबद्ध अवस्थामें ही संभव है। प्रकृतिबद्ध अवस्थामें ही विभिन्न परिणामशील वस्तुओं का उद्भव होता है। जैसे, मनुष्य देह में बाल्य, किशोर, युवा बुढ़ापा अेोर परिणामतः मृत्यु होती है किन्तु मृत्यु
में ही परिणाम का शेष नहीं है, जड़ देह का पंच भौतिक समूह परिणाम स्वरूप आगे बढ़ता है। सभी परिणाम के मध्य ही आगे बढ़ते हैं केवल चितिशक्ति नहीं चलती अतः यह अपरिणामी है। चितिशक्ति में देश  काल पात्र गत भेद नहीं हैं अतः देशांतर  कालान्तर या पात्रान्तर की सम्भावना नहीं है इसलिये वह अपरिणामीया निर्वैयक्तिक है। (4) अप्रतिसंक्रमा संक्रमा का अर्थ है संचरण(extrovert)  और प्रतिसंक्रमा  माने प्रतिसंचर (introvert) चितिशक्ति में दैशिक व्यवधान नहीं है अतः आभ्यंतरीण और वाह्य भेद नहीं है। जिसके बाहर कोई द्वितीय सत्ता नहीं है, उसका संक्रमण कैसे हो सकता है। वह कोई वाह्य वस्तु के संक्रमण से दूषित नहीं हो सकता है अतः इससे बचने के लिये उसे प्राकृत वस्तु की तरह प्रतिसंक्रमण की धारा में प्रवाहित होने की आवश्यकता नहीं । इसीलिये चितिशक्ति अप्रतिसंक्रमा कहलाती है। (5) दर्शितविषया  विषया चितिशक्ति को इन्द्रियग्राह्यता नहीं है मात्र वस्तु का सद्ज्ञान है,जो उसीमें अवस्थित रहने के कारण प्राकृतिक तरंगसमूह की सहायता से वस्तुज्ञान अर्जन की उसे आवश्यकता भी नहीं है। वस्तु समूह से जिस भी प्रकार की  तन्मात्र तरंग क्यों न निर्गत हो, वस्तु का मूल भाव उसमें आधृत रहने के कारण उसमें तरंग पर निर्भरशीलता नहीं है। परंतु सगुणभाव में बुद्धि, अहंकार, चित्त आदि होते हैं। यह बुद्धि कहीं अहंकार के रूप में कहीं चित्त रूप में कहीं पंचभूतात्मक जड़रूप में चितिशक्ति की संवेदना के अनुसार रह जाती है। सगुण सत्ता का मन, चितिशक्ति में जिस वस्तु को दिखाता है, वह उसे ही देखती है अतः उसे दर्शितविषया कहते हैं।
23. श्रेष्ठ जीवरूप में मनुष्य का जो अहंकार है, यह भी बुद्धितत्व को चितिशक्ति समझने की भूल करने के फलस्वरूप होता रहता है किन्तु यथार्थ में चितिशक्ति तो बुद्धि का विषय नहीं ही है, वरन् बुद्धि स्वयं चितिशक्ति का गुणान्वित रूप है। मानस साधना के द्वारा वह समझ पाता है कि आत्मा, चितिशक्ति और बुद्धि एक चीज नहीं हैं। आत्मा बुद्धि का प्रतिसंवेदी है। साधना से प्राप्त इसप्रकार की वृत्ति को अक्लिष्टा वृत्ति कहते है परंतु पुस्तक से या सद्व्यक्ति के मुख से सुनकर यदि यह उपलब्धि होती है तो उसे गौणाअक्लिष्टा वृत्ति कहते हैं। आत्मा जो बुद्धि तत्व से पृथक है, यह बोध, अर्थात् मुख्य अक्लिष्टावृत्ति का जो परिणाम है, उसे ही कहा जाता है विवेकख्याति या विषयक समापत्ति। इस विवेकख्याति के निरंतर होने को धर्ममेघ समाधि कहते हैं। इस स्थायी विवेकख्याति के लिये ‘‘वैराज्ञ और अभ्यास’’ की आवश्यकता  होती है। वैराज्ञ का अर्थ है विषय के रंग में मन को रंजित न करना और अभ्यास का अर्थ है नियमित रूप से एक ही तरंग का अनुशीलन करना। असाधक का मन अत्यंत चंचल होता है और प्रत्येक क्षण उसकी विचारधारा में परिवर्तन आता रहता है अतः चैत्तिक तरंग में भेद दिखाई देता है अभ्यास से इस भेद को दूर करना होता है जिससे एक ही तरंग का अनुवर्धन हों। इस प्रकार प्राप्त धर्ममेघ समाधि चरम उपलब्धि नहीं है, यत्न से , दीर्घकाल के अभ्यास से, जब चित्त में स्थायी रूपसे एक ही तरंग प्रवाहित होती रहती है और विश्व  के अन्य सभी तरंग उसी में लीन हो जाते हैं तब संप्रज्ञात समाधि होती है। इसके बाद जब सभी तरंगें निरुद्ध होकर चितिशक्ति के साथ एक हो जाते हैं तब निर्विकल्प (असम्प्रज्ञात) समाधि होती है। आध्यात्म मार्ग की यह जो साधना है यह प्राथमिक चित्त के द्वारा ही आरंभ होती रहती है, चित्त, त्रिगुण के द्वारा उत्पन्न होता है, चितिशक्ति में सत्वगुण की प्रधानता से बुद्धि, बुद्धि  के ऊपर रजोगुण के प्रधान हो जाने पर अहंकार और अहंकार के ऊपर तमो गुण की प्रधानता से चित्त उत्पन्न होता है। इस प्रकार चित्त में तीनों गुण हैं अतः अभ्यास के द्वारा चित्त तमः को चित्तरजः में, चिततरजः को चित्तसत्व में और चित्तसत्व को चितिशक्ति में समाहित करना पड़ता है। ‘‘सत्वाज्जागरणं विद्याद्रजसा स्वप्नमादिशेत,प्रस्वाप्नं तु तमसा तुरीयं त्रिषु सन्ततम्।’
24. साधना के अभ्यास करते समय मन इन पांच स्तरो से होता हुआ प्रत्येक स्तर पर एक एक प्रकार की समाधि का अनुभव करा सकता हेै.. क्षिप्त , मूढ़, एकाग्र और निरोध। क्षिप्त स्तर पर चित्त में अतिरिक्त क्रोध उत्पन्न होने के कारण मन विषय से हटकर सामयिक रूप में एक ही विषय में मन बैठ सकता है। व्यक्तिगत जीवन में किसी के साथ कलह करने पर सारा दिन मन बार बार उसी और दौड़ जाता है, भले ही उसे संयत करने की चेष्टा की जाये। मूढ़ स्तर पर भी यही अवस्था होती है, किसी विशेष विषय के प्रति मोह होने से मन घूम फिर कर वहीं पहुंच जाता है, उसी की चिन्ता करता रहता है। अर्थ लोलुप का मन अर्थ की चिन्ता करते काते अर्थमें ही समाहित हो जाता है, और इसी प्रकार यश  लोभी का मन घूम फिर कर यश  की ओर लौट जाता है और विषय लोभी का विषय की ओर। क्षिप्त औेर मूढ़ मन एकाग्र भाव से तत् तत् विषय की चिन्ता करते करते उन्ही विषयों में समाहित हो जड़त्व अर्थात् ऋणात्मक प्रतिसंचर का पथ चुन लेता है। अधिकांश  लोगों का मन विक्षप्त स्तर पर होता है, कभी स्थिर कभी इधर उधर। साधना इसी स्तर से प्रारंभ होकर अभ्यास के द्वारा चंचलता दूर होकर मानसिक क्षेत्र में क्रमशः  एकतानता दिखाई देती है। यही एकाग्र स्तर बाद में साधना के द्वारा निरोध अवस्था में रूपान्तरित हो जाती है। एकाग्रता के विना यह संभव नहीं होती। एकाग्र भूमि के चित्त की अवस्था में मन कभी पवित्रता और कभी नारकीय कीटवत् आचरण करता है, कभी साधु संग कभी कपट का संग करता है इस अच्छे बुरे के बीच झूलते हुए जब वह साधना द्वारा अपने आदर्श  के रूप  में श्रेय को रखकर द्रढ़ता से उसी पथ पर चलता रहता है तब चित्त पर एक प्रकार की तरंग उत्पन्न होती है इसे एकाग्र भूमि कहते है। ‘‘शान्तदितौ तुलाप्रत्ययौ चित्तस्यैकाग्रता परिणामः’’
25. चित्त की एकाग्रता जड़ पदार्थ अथवा भाव किसी में भी हो सकती है, मन कैवल्य की ओर भी जा सकता है और संसार की ओर भी। इसीलिये कहा गया है कि चित्त नदी उभयतः प्रवाहणी है। जब कैवल्य की ओर वहती है तो कल्याणवहा और जड़ की ओर बहने पर पापवहा कहलाती है। चित्त का कल्याणवहा भाव स्थायी हो जाने पर यही अवस्था सविकल्प समाधि कहलाती है। दार्शनिक  भाषा में यह सम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है, इसके कई लक्षण हैं। (1) सत्य वस्तु का आत्मसात्.. जगत की सभी बस्तुओं के मूल उपादान के रूप में जो सद्वस्तु है, उससे जब अपना अभेद्य ज्ञान जागता हेै तभी सभी पदार्थों के संबंध में साधक को चरम सत्य प्राप्त होता रहता है किसी पुस्तक के पाठ या अन्य किसी प्रयास की आवश्य कता नहीं होती। (2) क्लेश  क्षय .. विपर्यय से प्राप्त (defective cognition) क्लेश  समूह, इस समाधि के फलस्वरूप द्रुत गति से क्षय हेाते हैं। (3) कर्मबंधन ढीला होना.. प्रत्येक जीव में कर्मबंधन रहता है, संप्रज्ञात समाधि के बाद भी वह कार्य करता जाता है, पर वह और बंधन में जकड़ता नहीं है बल्कि मन कह उठता है ‘‘कामतो अकामतो वापि यत् करोमि शुभाशुभम् तत्तसर्वम् त्वयी सन्न्यस्तं तत्प्रयुक्तः करोम्यहम्’’। (4) असंप्रज्ञात भाव की ओर गति. प्रज्ञा के सम्यक विकास होने पर यह भाव जाग्रत होकर द्रढ़ता लाता है, यह संप्रज्ञात समाधि है।
26. विपर्यय से क्लेश  उत्पन्न करने वाली वृत्तियां दो प्रकार की हैं, क्लिष्टा और अक्लिष्टा। आध्यात्म की ओर ले जाने वाली अक्लिष्टा, बाकी सब क्लिष्टा। इन्हें मूलतः पांच भागों, प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति में बांटा गया है। प्रमाण के द्वारा विश्लेषण की सहायता से जैव सत्ता जड़त्व में परिर्विर्तत हो सकती है तो इस अवस्था में वह क्लिष्टा कहलायेगी पर युक्ति तर्क द्वारा आत्मा तथा परमात्मा की प्रतिष्ठा संबंधी विचार किया जाता है तो वह अक्लिष्टा वृत्ति कहलायेगी। प्रमाण भी तीन प्रकार के हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम। इंद्रिय समूह जब विषय का तन्मात्र ग्रहण करता है, चित्त तमः को तमोभाव में अनुरंजित कर देता है, इसे आलोचन ज्ञान (sensation) कहते हैं। इस आलोचन ज्ञान की प्रगाढ़ता से जब चित्त, सत्व को अनुरंजित करने लगता है तब यह प्रत्यक्ष प्रमाण (perception or coordinated sensation)  कहलाता है। किसी वाह्य वस्तु के प्रत्यक्ष होने पर कोई पूर्व संस्कार जनित भाव उत्पन्न हो परंतु दोनों का एकीकरण न हो तब पूर्वग्रहीत भाव के संबंध में जो सिद्धान्त ग्रहण किया जाता है उसे अनुमान प्रमाण कहते हैं, परंतु यदि चैत्तिक प्रत्यक्ष के बाद पूर्व संस्कार का अर्थभाव और चैत्तिक प्रत्यक्ष एकीभूत हों तब उसे प्रत्यक्ष धारणा (conception) कहते हैं। जिनके ऊपर विश्वास है उनके प्रत्यक्ष प्रमाण या अनुमान को स्वीकार कर लेने का ही नाम आगमिक प्रमाण है। परतु यह जिन पर आधारित है उनमें दोष होने पर यह भी दोषयुक्त हो जाता है। साधारणतः किसी व्यक्ति या पुस्तक पर अत्यधिक विश्वास  होने पर उसमें दोष दिखाई नहीं देते अतः आगमिक प्रमाण इनसे प्रभावित होता है।
27. प्रमाण वृत्ति के बाद दूसरी है विपर्यय। विपर्ययो मिथ्याज्ञानम तद्रूपो प्रतिष्ठितम्। अर्थात् यह स्वरूप से भिन्न एक मिथ्या ज्ञान है। जैसे सरोवर के चंद्रमा को असल चंद्रमा मानना। प्रमाण यदि ‘तद्रूप प्रतिष्ठम्’ है तो विपर्यय ‘अतद्रूप प्रतिष्ठम्’ है। विपर्यय के फलस्वरूप ही एक अद्वितीय परमतत्व को अनेक प्रकार के विस्तारित लौकिक जगत के रूप में देखते रहते हैं। मरुभूमि में मृगतृष्णा भी विपर्यय है। अनेक मनों में उद्भासित एक परमात्मा को भी अनेक आत्मा रूप मानलेना भी विपर्यय है। इस के पांच स्तरों को पंचपर्वा कहा गया है, अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेष अथवा अन्य प्रकार से तमः, मोह, महामोह, तामिस्र और अन्धतामिश्र। अतः विपर्यग्रस्त मन क्लिष्टा और अक्लिष्टा के बीच झूलता रहता है। विकल्प किसी बस्तु का वैकल्पिक स्वरूप इंद्रियों के द्वारा ग्रहण अथवा शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। हमलोग इसका प्रयास अवश्य  करते रहते हैं परमतत्व के बारे में हम लोग कहते हैं कि वह विकृतिशून्य हैं इस शून्य का अर्थबोध हमें नहीं रहता फिर भी हम उसका उपयोग करते रहते हैं। ट्रेन में जाने हुए बोलते हैं  अमुक स्टेशन आ गया या गोली चल रही है, क्या ऐंसा होता है? असल में विकल्प वस्तु है ‘शब्दगुणानुपाती वस्तु शून्ये विकल्पः’ शब्द  का प्रकृत अर्थ लेने से बात बिगड़ जाती है तब भी हम भाव प्रकट करने के लिये इसे कार्य में लाते हैं। यह तीन प्रकार का है, क्रिया, वस्तु और अभाव विकल्प। पहले का उदहरण जैसे ‘सागर‘ आ गया, दूसरे का जैसे शहर की छाती पर, तीसरा जैसे वे अहंकार शून्य हैं।


28. निद्रा- जिस वृत्ति के फलस्वरूप अतीत के एक मानसिक अभाव का बोध होता है ‘‘अभावप्रत्यालंबनीवृत्तिनिद्रा’’।अर्थात उसके मन ने पहले भी कार्य किया था, वर्तमान में भी करता है केवल मध्य में ही कार्य नहीं किया था मन की यह अवस्था कि कार्य नहीं किया था या अभाव अवस्था इस पर जो वृत्ति निर्भर है उसे कहते हैं निद्रा। क्लिष्टा निद्रा साधना में बाधा है पर स्वप्न , सुषुप्ति में भी जब साधना क्रिया का बोध रहे तब वह निश्चय  ही आध्यात्मिक प्रगति की विरोधी नहीं है। साधनाकाल में एक प्रकार की आलस्यपूर्ण निद्रा की अवस्था आती है इसे योग निद्रा कहते हैं। साधना के प्रारंभिक काल में अधिकांश  साधकों को ही निद्रा आजाती है यदि इस काल में संवित् नष्ट नहीं होता अर्थात् स्मृति रह जाय तो इसे ध्रुवास्मृति कहते हैं। धु्रवास्मृति के प्रतिष्ठित होने पर उसे सत्व संवेदन कहते हैं। स्मृति ‘‘ अनुभूत विषयासम्प्रमोषः स्मृति।’’ यह भी दोनों प्रकार की हो सकती है, जड़ाश्रयी क्लिष्टा है और पराविद्या संबंधी स्मृति ग्रहण और ग्राह्य दोनों पर निर्भर है। बुद्धि के साथ स्मृति का अंतर यह है कि स्मृति ग्रह्याकार पूर्वा है और बुद्धिग्रहणाकार पूर्वा है, बुद्धि कोई वृत्ति नहीं है पर स्मृति वृत्ति है। संप्रज्ञात समाधि के फलस्वरूप किलष्टा वृत्ति समूह शक्तिहीन होता रहता है और चित्ततमः धीरे धीरे चित्तरजः में तथा चित्तरजः चित्तसत्व में रूपान्तरित होता रहता है। सत्व का धर्म है प्रज्ञा, रज का प्रवृत्ति और तम का स्थिति। अक्लिष्टा वृत्ति के अनुशीलन से रजः धीरे धीरे सत्व में रूपान्तरित होता रहता है और शक्तिशाली  चित्तसत्व के बीच चित्तरजः और चित्ततमः लीन होता रहता है अन्त में रह जाता है एक तरंगीकृत चित्तसत्व, इस अवस्था का नाम है सम्प्रज्ञात समाधि। शक्तिशाली  चित्तसत्व जब पुरुष सत्ता में लौट आता है तब उसका नाम होता है असंप्रज्ञात समाधि। इस अवस्था में धूल धरणी के प्रत्येक परमाणु को आत्मिक चेतना में रूपान्तरित कर साधक एक परम अद्वैत भाव में स्थिति लाभ करता है।

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