आनन्दसूत्रम् के इन अंतिम सोलह सूत्रों में विश्व में व्याप्त असमानता , भुखमरी , बेरोजगारी, आदि अनेक सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक बुराइयों को दूर करने के उपाय सुझाये गए हैं। इसे प्रगतिशील उपयोग तत्व (प्रउत ) सिद्धान्त कहते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि पूंजीवादी युग में इसे प्रयुक्त कैसे किया जाए?
इसका सरलतम उपाय, आध्यात्म को विज्ञान से और विज्ञान को आध्यात्म से जोड़कर किया जा सकता है।
5.85: समाज चक्र और प्रगतिशील उपयोग तत्व
1. वर्णप्रधानता चक्रधारायाम। प्रारंभ में सुव्यवस्थित समाज नहीं था सभी श्रमजीवी थे अतः उसे शूद्र युग
कह सकते हैं। इसके बाद शक्तिशाली और साहसी सरदारों का युग आया इसे क्षात्र युग कहा गया। तत्पश्चात बुद्धिजीवियों का युग अर्थात् विप्र युग आया और सब के बाद में व्यवसायियों का युग आया
वैश्ययुग । वैश्य युग के शोषण के फलस्वरूप जब विप्र और क्षत्रिय, शूद्रत्व में पहुंच जाते हैं तो शूद्र विप्लव के विस्फोट की आशंका प्रति क्षण बढ़ती जाती है। दमन और शोषण का चक्र अवाध क्रम से चलता रहा तो शूद्र विप्लव भयंकर रूप लेकर सब कुछ जला डालता है और प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के अवशेष नये समाज की रचना होती है। चूंकि शूद्रों का द्रढ़ समाज और बौद्धिक क्षमता न होने के कारण विप्लव के बाद शासन उनके हाथ में नहीं रह पाता और साहसी तथा वीर नेता फिर से क्षत्र युग की वापसी करते हैं। इस तरह शूद्रयुग फिर क्षात्र युग फिर वैश्य युग फिर विप्र युग और फिर विप्लव। यही क्रम चलता रहता है।
2. चक्रकेन्द्रे सद्विप्राः चक्रनियंत्रकाः। जो नीतिवादी आध्यात्मिक साधक अपने शक्तिसंप्रयोग से पाप का दमन करना चाहते हैं वे सद्विप्र कहलाते हैं। चक्र की परिधि में इनका स्थान नहीं है क्यों कि ये चक्र की धुरी या केन्द्र में रहते हैं, यदि चक्र ठीक चलता रहे। परंतु यदि अहंकार से क्षत्रिय युग में क्षत्रिय, विप्र युग में विप्र और वैश्य युगमें वैश्य शासक के बदले शोषक हो जावे तो उस समय शक्ति संप्रयोग के द्वारा सत् और शोषित लोगों की रक्षा और असत् तथा शोषकों के दमन के लिये यही सद्विप्र आगे आते हैं।
3.शक्तिसंपातेन चक्रगतिवर्धनमं क्रान्तिः। जब क्षत्रिय शोषक बन जाते हैं वहाॅं सद्विप्र क्षत्रियों का दमन कर विप्र युग की प्रतिष्ठा करेंगे। अतः युग आगमन की गति को सद्विप्रों के द्वारा शक्तिसंप्रयोग कर तेज कर दिया जाता है। इस प्रकार के परिवर्तन को (evolution) क्रान्ति कहते हैं।
4. तीव्रशक्तिसंपातेन गतिवर्धनम् विप्लवः। अल्प काल में परिवर्ती युग की प्रतिष्ठा करने के लिये या युग के कठोर बंधन को ध्वस्त करने के लिये यदि अत्यधिक शक्ति संप्रयोग की आवश्यकता होती है तब इस प्रकार प्राप्त परिवर्तन को विप्लव (revolution) कहते हैं।
5. शक्तिसंपातेन विपरीतधारायां विक्रान्तिः। शक्ति संप्रयोग के द्वारा यदि किसी युग को उससे पीछे वाले युग की ओर ले जाया जाये वैसी दशा में उस परिवर्तन को विक्रान्ति (counter evolution) कहते हैं। यह विक्रान्ति अल्प स्थायी होती है और उसके बाद का या उसके बाद का युग आ जाता है।
6. तीव्रशक्तिसंपातेन विपरीतधारायां प्रतिविप्लवः। अत्यंत अल्प काल में अथवा अधिक शक्ति संप्रयोग से यदि किसी युग को पीछे ढकेल दिया जाये तो उसे प्रतिविप्लव (counter revolution) कहते हैं। विक्रान्ति की तुलना में प्रतिविप्लव और भी कम स्थायी है।
7. पूर्णवर्ततनेन परिक्रान्तिः। समाज चक्र एक बार पूरा घूम जाने पर या एक बार शूद्र विप्लव होने पर समाज चक्र की परिक्रान्ति कहते हैं।
8. वैचि़त्र्यं प्राकृतधर्मः समानं न भविष्यति। विचित्रता ही प्रकृति का धर्म है इसी लिये कोई भी दो वस्तुयें सब प्रकार से समान (identical) नहीं होती। कोई भी दो मन एक से नहीं कोई भी दो अणु एक से नहीं। अतः कोई सभी कुछ को समान करना चाहे तो यह प्राकृत धर्म विरोधी होगा। प्रकृति की अव्यक्त अवस्था में ही सब एक समान होते हैं अतः जो सब को समान करने की बात करते हैं वे ध्वंस की ही बात करते हैं।
9. युगस्य सर्वनिम्नप्रयोजनमं सर्वेषां विधेयम्। हर मे पिता गौरी माता स्वदेशः भुवनत्रयं, इस आधार पर विश्व की सभी संपदा प्रत्येक व्यक्ति की साधारण संपत्ति है। पर सभी वस्तुयें समान नहीं हैं अतः मनुष्य की जो न्यूनतम आवश्यकतायें हैं उनकी व्यवस्था सब को करना होगी। अर्थात् अन्न, आवास , वस्त्र , चिकित्सा और शिक्षा जैसी न्यूनतम आवश्यकताओं की सभी के लिये पूर्ति करना होगी। मनुष्य की ये आश्यकतायें युग के अनुसार बदलती रहेंगी। अतः जिस युग में जैसी आश्यकता होगी वैसी व्यवस्था करना होगी।
10. अतिरिक्तं प्रदातव्यं गुणानुपातेन। युग की न्यूनमत आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद बचने वाली अतिरिक्त संपदा को गुणों के अनुपात में बाॅंट देना होगा। जैसे जिस युग में एक साधारण मनुष्य को साइकिल की आवश्यकता है उस युग के एक चिकित्सक को मोटरगाड़ी की आवश्यकता है तो गुण के आदर के लिये तथा गुणी को समाज सेवा का अधिक अवसर देने के लिये उसे मोटर गाड़ी देना होगी, serve according to your capacity and earn according to your necessity, यह बात सुनने में तो अच्छी लगती है पर धरती की कड़ी मिट्टी में इससे फसल नहीं मिलेगी।
11. सर्वनिम्नमानवर्धनमं समाजजीवलक्षणम्। साधारण मनुष्य की न्यूनतम आवश्यकता का जो स्टेंडर्ड मान है गुणियों को उससे अधिक अवश्य मिलेगा पर इस न्यूनतम स्टेंडर्ड को ऊपर उठाने का काम भी लगातार करना होगा।
12. समाजादेशेन विना धनसंचयः अकर्तव्यः। समाज की अनुमति के विना किसी को भी संपदा का संचय करने का अवसर नहीं देना चाहिये क्योंकि यदि अतिरिक्त संपदा किसी के द्वारा संचित की जाती है तो वह समाज के किसी न किसी व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताओं को ही छीनता है जो समाज विरोधी हैं।
13. स्थूलसूक्ष्मकारणेषु चरमोपयोगः प्रकर्तव्यः विचार समर्थितं वंटनं च। स्थूल , सूक्ष्म और कारण जगत में जो कुछ भी संपदा निहित है उनका उपयोग जीवों के कल्याण में ही करना चाहिये। पंच तत्वों में जो भी छिपी हुई संपदायें हैं उनका शतप्रतिशत सद्व्यवहार होना चाहिये। जल स्थल और अंतरिक्ष में भी जो कुछ उपयोगी हो उसे खोज लेना चाहिये और सभी को न्यूनतम आवश्यकताओं के अनुसार वितरित करना चाहिये। फिर भी व्यक्ति विशेष के गुणों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिये।
14. व्यष्टिसमष्टि शारीरमानसाध्यात्मिक सम्भावनायाॅं चरमोपयोगश्च । सामूहिक देह और मनों का सामूहिक आध्यात्मिक विकास करना होगा। समष्टि के कल्याण में ही व्यष्टि का कल्याण निहित है। प्रत्येक व्यक्ति में उपयुक्त समाज बोध, सेवा बोध तथा ज्ञान जगाने की चेष्टा नहीं करने पर सबका मानसिक विकास नहीं हो सकता। व्यक्ति में आध्यात्मिकता केन्द्रित नैतिकता की ज्योति भी जगाना होगी।
15. स्थूलसूक्ष्मकारणोपयोगाः सुसंतुलिताः विधेयाः। व्यष्टि और समष्टि देह की कल्याण कामना में इस तरह कार्य करना होगा कि शारीरिक मानसिक और आध्यत्मिक तथा स्थूल सूक्ष्म और कारण मन इन तीनों का उचित सांजस्य रहे। समाज जब सबकी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा तो व्यक्तिगत प्रचेष्टायें कम हो जायेंगी और लोगों के आलसी होने की संभावनायें बढ़ जायेंगी, अतः इन आवश्यकताओं की पूर्ति करते समय यह ध्यान रखना होगा कि वह परिश्रम के आधार पर अर्जित धन के द्वारा ही न्यूनतम आवश्यकताओं का उपार्जन कर सके। समाज द्वारा यह उपाय उन लोगों की क्रय क्षमता को बढ़ा कर किया जा सकता है। समाज के नियंत्रण का भार उनके हाथें में दिया जाना उचित होगा जो एक साथ आध्यात्मिक साधक, बुद्धिमान तथा साहसी हैं।
16. देशकालपात्रैः उपयोगाः परिवर्तन्ते ते उपयोगाः प्रगतिशीला भवेयुः। किसी भी वस्तु का यथार्थ क्या व्यवहार है वह देश काल और पात्र के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। जो यह सहज नीति नहीं समझ सकते वे लकीर के फकीर बन कर रहना चाहते हैं एंसे लोग प्रगति नहीं कर सकते। अतः देश काल पात्र के अनुसार सभी वस्तुओं के व्यवहार में परिवर्तन आता है इसे मानना ही होगा, इसे जानकर ही प्रत्येक विषय और भाव के व्यवहार में प्रगतिशील होना होगा।
इसका सरलतम उपाय, आध्यात्म को विज्ञान से और विज्ञान को आध्यात्म से जोड़कर किया जा सकता है।
5.85: समाज चक्र और प्रगतिशील उपयोग तत्व
1. वर्णप्रधानता चक्रधारायाम। प्रारंभ में सुव्यवस्थित समाज नहीं था सभी श्रमजीवी थे अतः उसे शूद्र युग
कह सकते हैं। इसके बाद शक्तिशाली और साहसी सरदारों का युग आया इसे क्षात्र युग कहा गया। तत्पश्चात बुद्धिजीवियों का युग अर्थात् विप्र युग आया और सब के बाद में व्यवसायियों का युग आया
वैश्ययुग । वैश्य युग के शोषण के फलस्वरूप जब विप्र और क्षत्रिय, शूद्रत्व में पहुंच जाते हैं तो शूद्र विप्लव के विस्फोट की आशंका प्रति क्षण बढ़ती जाती है। दमन और शोषण का चक्र अवाध क्रम से चलता रहा तो शूद्र विप्लव भयंकर रूप लेकर सब कुछ जला डालता है और प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के अवशेष नये समाज की रचना होती है। चूंकि शूद्रों का द्रढ़ समाज और बौद्धिक क्षमता न होने के कारण विप्लव के बाद शासन उनके हाथ में नहीं रह पाता और साहसी तथा वीर नेता फिर से क्षत्र युग की वापसी करते हैं। इस तरह शूद्रयुग फिर क्षात्र युग फिर वैश्य युग फिर विप्र युग और फिर विप्लव। यही क्रम चलता रहता है।
2. चक्रकेन्द्रे सद्विप्राः चक्रनियंत्रकाः। जो नीतिवादी आध्यात्मिक साधक अपने शक्तिसंप्रयोग से पाप का दमन करना चाहते हैं वे सद्विप्र कहलाते हैं। चक्र की परिधि में इनका स्थान नहीं है क्यों कि ये चक्र की धुरी या केन्द्र में रहते हैं, यदि चक्र ठीक चलता रहे। परंतु यदि अहंकार से क्षत्रिय युग में क्षत्रिय, विप्र युग में विप्र और वैश्य युगमें वैश्य शासक के बदले शोषक हो जावे तो उस समय शक्ति संप्रयोग के द्वारा सत् और शोषित लोगों की रक्षा और असत् तथा शोषकों के दमन के लिये यही सद्विप्र आगे आते हैं।
3.शक्तिसंपातेन चक्रगतिवर्धनमं क्रान्तिः। जब क्षत्रिय शोषक बन जाते हैं वहाॅं सद्विप्र क्षत्रियों का दमन कर विप्र युग की प्रतिष्ठा करेंगे। अतः युग आगमन की गति को सद्विप्रों के द्वारा शक्तिसंप्रयोग कर तेज कर दिया जाता है। इस प्रकार के परिवर्तन को (evolution) क्रान्ति कहते हैं।
4. तीव्रशक्तिसंपातेन गतिवर्धनम् विप्लवः। अल्प काल में परिवर्ती युग की प्रतिष्ठा करने के लिये या युग के कठोर बंधन को ध्वस्त करने के लिये यदि अत्यधिक शक्ति संप्रयोग की आवश्यकता होती है तब इस प्रकार प्राप्त परिवर्तन को विप्लव (revolution) कहते हैं।
5. शक्तिसंपातेन विपरीतधारायां विक्रान्तिः। शक्ति संप्रयोग के द्वारा यदि किसी युग को उससे पीछे वाले युग की ओर ले जाया जाये वैसी दशा में उस परिवर्तन को विक्रान्ति (counter evolution) कहते हैं। यह विक्रान्ति अल्प स्थायी होती है और उसके बाद का या उसके बाद का युग आ जाता है।
6. तीव्रशक्तिसंपातेन विपरीतधारायां प्रतिविप्लवः। अत्यंत अल्प काल में अथवा अधिक शक्ति संप्रयोग से यदि किसी युग को पीछे ढकेल दिया जाये तो उसे प्रतिविप्लव (counter revolution) कहते हैं। विक्रान्ति की तुलना में प्रतिविप्लव और भी कम स्थायी है।
7. पूर्णवर्ततनेन परिक्रान्तिः। समाज चक्र एक बार पूरा घूम जाने पर या एक बार शूद्र विप्लव होने पर समाज चक्र की परिक्रान्ति कहते हैं।
8. वैचि़त्र्यं प्राकृतधर्मः समानं न भविष्यति। विचित्रता ही प्रकृति का धर्म है इसी लिये कोई भी दो वस्तुयें सब प्रकार से समान (identical) नहीं होती। कोई भी दो मन एक से नहीं कोई भी दो अणु एक से नहीं। अतः कोई सभी कुछ को समान करना चाहे तो यह प्राकृत धर्म विरोधी होगा। प्रकृति की अव्यक्त अवस्था में ही सब एक समान होते हैं अतः जो सब को समान करने की बात करते हैं वे ध्वंस की ही बात करते हैं।
9. युगस्य सर्वनिम्नप्रयोजनमं सर्वेषां विधेयम्। हर मे पिता गौरी माता स्वदेशः भुवनत्रयं, इस आधार पर विश्व की सभी संपदा प्रत्येक व्यक्ति की साधारण संपत्ति है। पर सभी वस्तुयें समान नहीं हैं अतः मनुष्य की जो न्यूनतम आवश्यकतायें हैं उनकी व्यवस्था सब को करना होगी। अर्थात् अन्न, आवास , वस्त्र , चिकित्सा और शिक्षा जैसी न्यूनतम आवश्यकताओं की सभी के लिये पूर्ति करना होगी। मनुष्य की ये आश्यकतायें युग के अनुसार बदलती रहेंगी। अतः जिस युग में जैसी आश्यकता होगी वैसी व्यवस्था करना होगी।
10. अतिरिक्तं प्रदातव्यं गुणानुपातेन। युग की न्यूनमत आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद बचने वाली अतिरिक्त संपदा को गुणों के अनुपात में बाॅंट देना होगा। जैसे जिस युग में एक साधारण मनुष्य को साइकिल की आवश्यकता है उस युग के एक चिकित्सक को मोटरगाड़ी की आवश्यकता है तो गुण के आदर के लिये तथा गुणी को समाज सेवा का अधिक अवसर देने के लिये उसे मोटर गाड़ी देना होगी, serve according to your capacity and earn according to your necessity, यह बात सुनने में तो अच्छी लगती है पर धरती की कड़ी मिट्टी में इससे फसल नहीं मिलेगी।
11. सर्वनिम्नमानवर्धनमं समाजजीवलक्षणम्। साधारण मनुष्य की न्यूनतम आवश्यकता का जो स्टेंडर्ड मान है गुणियों को उससे अधिक अवश्य मिलेगा पर इस न्यूनतम स्टेंडर्ड को ऊपर उठाने का काम भी लगातार करना होगा।
12. समाजादेशेन विना धनसंचयः अकर्तव्यः। समाज की अनुमति के विना किसी को भी संपदा का संचय करने का अवसर नहीं देना चाहिये क्योंकि यदि अतिरिक्त संपदा किसी के द्वारा संचित की जाती है तो वह समाज के किसी न किसी व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताओं को ही छीनता है जो समाज विरोधी हैं।
13. स्थूलसूक्ष्मकारणेषु चरमोपयोगः प्रकर्तव्यः विचार समर्थितं वंटनं च। स्थूल , सूक्ष्म और कारण जगत में जो कुछ भी संपदा निहित है उनका उपयोग जीवों के कल्याण में ही करना चाहिये। पंच तत्वों में जो भी छिपी हुई संपदायें हैं उनका शतप्रतिशत सद्व्यवहार होना चाहिये। जल स्थल और अंतरिक्ष में भी जो कुछ उपयोगी हो उसे खोज लेना चाहिये और सभी को न्यूनतम आवश्यकताओं के अनुसार वितरित करना चाहिये। फिर भी व्यक्ति विशेष के गुणों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिये।
14. व्यष्टिसमष्टि शारीरमानसाध्यात्मिक सम्भावनायाॅं चरमोपयोगश्च । सामूहिक देह और मनों का सामूहिक आध्यात्मिक विकास करना होगा। समष्टि के कल्याण में ही व्यष्टि का कल्याण निहित है। प्रत्येक व्यक्ति में उपयुक्त समाज बोध, सेवा बोध तथा ज्ञान जगाने की चेष्टा नहीं करने पर सबका मानसिक विकास नहीं हो सकता। व्यक्ति में आध्यात्मिकता केन्द्रित नैतिकता की ज्योति भी जगाना होगी।
15. स्थूलसूक्ष्मकारणोपयोगाः सुसंतुलिताः विधेयाः। व्यष्टि और समष्टि देह की कल्याण कामना में इस तरह कार्य करना होगा कि शारीरिक मानसिक और आध्यत्मिक तथा स्थूल सूक्ष्म और कारण मन इन तीनों का उचित सांजस्य रहे। समाज जब सबकी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा तो व्यक्तिगत प्रचेष्टायें कम हो जायेंगी और लोगों के आलसी होने की संभावनायें बढ़ जायेंगी, अतः इन आवश्यकताओं की पूर्ति करते समय यह ध्यान रखना होगा कि वह परिश्रम के आधार पर अर्जित धन के द्वारा ही न्यूनतम आवश्यकताओं का उपार्जन कर सके। समाज द्वारा यह उपाय उन लोगों की क्रय क्षमता को बढ़ा कर किया जा सकता है। समाज के नियंत्रण का भार उनके हाथें में दिया जाना उचित होगा जो एक साथ आध्यात्मिक साधक, बुद्धिमान तथा साहसी हैं।
16. देशकालपात्रैः उपयोगाः परिवर्तन्ते ते उपयोगाः प्रगतिशीला भवेयुः। किसी भी वस्तु का यथार्थ क्या व्यवहार है वह देश काल और पात्र के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। जो यह सहज नीति नहीं समझ सकते वे लकीर के फकीर बन कर रहना चाहते हैं एंसे लोग प्रगति नहीं कर सकते। अतः देश काल पात्र के अनुसार सभी वस्तुओं के व्यवहार में परिवर्तन आता है इसे मानना ही होगा, इसे जानकर ही प्रत्येक विषय और भाव के व्यवहार में प्रगतिशील होना होगा।
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