Thursday, 9 November 2023

417 हमारी सनातन संस्कृति का लक्ष्य : पशुत्व से देवत्व की ओर ले जाना है।


जिन्हें दीक्षा संस्कार नहीं मिल पाता, वे मनुष्य रूप में पशु ही हैं, उनका कोई भविष्य नहीं है। क्योंकि वह परमसत्ता तो सबके जनक हैं अतः वे इनके लिए पशुपति हैं। इसलिए जब उनका लक्ष्य परमपुरुष को पाने की ओर होगा तब वे उन्हें ‘पशुपति‘ कह कर कहेंगे कि हमें उचित संस्कार नहीं मिल पाए, हम पशु ही रह गए, आप हमारे संरक्षक और नियंत्रक हैं आप पशुपतिनाथ हैं हमारे भीतर सोयी हुई मानवता को जागृत कर दो।
यह विचित्र सा लग सकता है परन्तु यह सत्य है। इस प्रकार प्रार्थना करते करते वे अनुभव करेंगे कि उन्हें इस जीवन में क्या करना चाहिए और क्या नहीं तब वे वीर हो जाएंगे। वीर क्यों ? इसलिए कि उन्हें अपने भीतर की कुप्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ेगा। इस संघर्ष का परिणाम उसे वीरभाव में स्थापित कर देगा और उसका लक्ष्य पशुपति से वीरेश्वर की ओर हो जायेगा, यही कारण है कि परमपुरुष का एक नाम वीरेश्वर भी है।
इस प्रकार आध्यात्मिक प्रगति विभिन्न स्तरों से होती हुई अन्त में जिस स्तर पर पहुंचती है उसे देवता कहेंगे। ‘क्रमेण देवता भवेत‘ अर्थात् वह महिला हो या पुरुष जब इस प्रकार अभ्यास करते हुए स्थायी वीरभाव प्राप्त कर लेते हैं तो निडर हो जाते हैं । निर्भय हो जाने पर दिव्यभाव में स्थापित हो जाते हैं और मानव शरीर में ही देवता कहलाते हैं। इस अवस्था में उनकी पूरी आराधना वीरेश्वर के स्थान पर देवों के देव महादेव की ओर हो जाती है।
स्पष्टीकरण -
एक ही सत्ता को अपनी मनोआध्यात्मिक भावनाओं के अनुसार व्यक्ति कभी पशुपति, कभी वीरेश्वर और कभी महादेव सम्बोधित करता है। श्शयद आप जानते हैं कि किसी भी व्यक्ति (महिला हो या पुरुष) के तीन प्रकार के अभिव्यक्तिकरण होते हैं। पहला सोचना, दूसरा बोलना और तीसरा कार्यरूप में बदलना। पहले स्तर पर पशुरूपी मनुष्य की विचार तरंगे एक प्रकार की होती हैं, ओंठ दूसरे प्रकार से कहते हैं और शरीर अन्य प्रकार से उन्हें कार्य रूप में बदलता है अर्थात् उन तीनों में सामंजस्य नहीं होता। इसीलिये मनुष्य होते हुए भी उसे पशु कहा जाता हैं । हम देखते हैं कि समाज में इस प्रकार के लोगों की संख्या अधिक और अन्य लोगों की संख्या भी निराशाजनक है, कम है। दूसरे स्तर पर अर्थात् वीर स्तर पर विचार तरंगे एक प्रकार की होती हैं परन्तु शब्द और कार्य एक समान होते हैं। अर्थात् विचारों में कुछ भिन्नता होती है परन्तु कथनी और करनी में समानता होती है। समाज में इस प्रकार के लोग महापुरुष के नाम से आदर पाते हैं । ये देश और समाज का नेतृत्व करते हैं परन्तु चूंकि उनके विचारों में भिन्नता होती है इसलिए वे केवल वीरभाव तक ही सीमित रह जाते हैं। तीसरे और अन्तिम स्तर पर उसकी विचार तरंगों, ओंठों से उच्चारित किए गए शब्दों और शरीर से सम्पन्न किए गए कार्य में एकसमानता होती है इसलिए यह स्तर मानव शरीर में ही देवत्व की संज्ञा देता है। हम सभी को इस देवता स्तर को पाने के लिए चेष्टारत रहना चाहिए।

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