आँखों में भय लिये
आज्ञाकारिता तय किये,
क्षुधोदर की भूले
बड़ी देर के बाद बैठ पाया था।
कंपायमान हाथों से
चलायमान श्वासों से ,
भूंजे हुए महुओं की छोटी सी
पोटली, बस खोल ही पाया था।
जीवन समर्पित कर
मालिक को अपना कर,
स्मृत अहसानों ने
छोटा सा उलहना दे पाया था।
ज्वाॅर की वह बासी रोटी
गिजगिजी और मोटी,
महुओं सहित इस अनोखे भोजन को
कर ही न पाया था।
मालिक ने पुकारा... कड़ोरे?
बैठा है? ला जल्दी बोरे,
अकुला के झटपट उठबैठा वह
मुॅंह का बस मुॅंह में रह पाया था।
यह "जीवन व्यथा" है
या करुण कथा है?
कर्मफल बताकर इसे
दुनिया ने भाग्य भी बताया था।
डाॅ टी आर शुक्ल, सागर ।
24 जुलाई 1974
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