प्राचीन भारतीय धर्म और दर्शन, विशेषकर तथाकथित हिंदू धर्म, के बारे में आम लोगों में बहुत गलतफहमी है, इसलिए मैं थोड़ा विस्तार में जाना चाहता हूं ताकि लोगों को सच्चाई पता चल सके।
दरअसल, मानव जाति इस धरती पर लाखों साल पहले आई थी लेकिन मानव सभ्यता लगभग 15000 साल पहले से 8000 हजार साल के बीच यानी ऋक्वैदिक युग के समय तक अपने चरम पर अस्तित्व में अपनी प्रगति करती रही। इस युग के दौरान अलग-अलग ऋषि अलग-अलग क्षेत्रों में ज्ञान की खोज कर रहे थे और एक विशेष ऋषि के ये विचार कई मायनों में दूसरे के साथ भिन्न थे, लेकिन फिर भी उन दिनों जीवन का धार्मिक तरीका अपने क्षेत्र के ऋषि की शिक्षाओं का पालन करना था। ऋषि की शिक्षा को “अर्ष धर्म“ का नाम दिया गया था।
लगभग 7000 वर्ष पहले भगवान ‘‘शिव’’ नामक एक महान व्यक्तित्व अस्तित्व में आया और उसने, अपने अपने वर्चस्व के लिए झगड़ते समाज में हलचल पैदा कर दी। उन्होंने इसे अपनी शिक्षाओं के साथ जोड़ा, जिस पर वर्तमान में आम तौर पर चर्चा नहीं की जाती है और इसलिए नए समाज के निर्माण में उनके योगदान को प्रायः भुला दिया गया है। वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने धर्म को प्रत्येक जीवित प्राणी की “जन्मजात लाक्ष्णिकताओं“ के रूप में परिभाषित किया। यही आगे चलकर शैव धर्म/भागवद धर्म/सनातन धर्म कहलाया। आज हम जिन दर्शनों को जानते हैं उनका आविष्कार शिव के समय में नहीं हुआ था। शैव धर्म का सिद्धांत परम आनंद प्राप्त करना था। इसलिए शिव ने अपनी शिक्षाओं के व्यावहारिक पक्ष का पालन किया क्योंकि उन्हें लिखने की कोई प्रणाली नहीं थी। जब भगवान शिव ने शैव धर्म या भागवद धर्म के व्यावहारिक पक्ष को व्यवस्थित किया तो तंत्र की गौड़ीय और कश्मीरी प्रणालियाँ पहले से ही मौजूद थीं लेकिन बिखरे हुए रूप में। भगवान शिव ने उन्हें पुनर्व्यवस्थित किया और एक नई व्यावहारिक विधि का परिचय दिया जिसे उन्होंने विद्यातंत्र का नाम दिया। अपने अनुयायियों को उनके स्पष्ट निर्देश इस प्रकार थेः-
‘‘यच्छेद्वांग्मनसो प्रज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञानात्मनि,
ज्ञानात्मनि महती नियच्छेद् तद्यच्छेद्छान्तात्मनि‘‘।
(मतलब, मन को बाहरी आकर्षण और इंद्रियों के विषयों से हटाकर “अहम् तत्व“ में जोड़ दें। फिर अहमतत्व को महतत्व में जोड़ दें और अंत में इन सभी को आत्मतत्व में जोड़ दें।)
यह कैसे किया जाना है इसकी ट्रेनिंग देने का कार्य वे स्वयं अपने सानिद्य में किया करते थे।
अब तक वैदिक ऋषियों ने यजुर्वेद और अथर्ववेद के रूप में कुछ उन्नत विचारों को प्रस्तुत किया, जिसमें कर्मकांडीय आडंबर पर अधिक जोर दिया गया, हालांकि विद्यातंत्र की व्यवस्था पहले से ही मौजूद थी। यहां यह बताना आवश्यक है कि वेदों में 90 प्रतिशत सैद्धान्तिक वर्णन तथा केवल 10 प्रतिशत व्यावहारिक साधना की विधियॉं मिलती हैं, जबकि विद्यातंत्र में 90 प्रतिशत व्यावहारिक कार्य तथा केवल 10 प्रतिशत सिद्धांत मिलते हैं।
अथर्ववेद के काल तक ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का आविष्कार हो चुका था और लिखने के लिए भोजपत्रों का प्रयोग किया जाता था। ऋषि अर्थवा ने अपने अनुयायियों अंगिरा, अंगिरस और वैदर्भि के साथ वेदों को वैदिक संस्कृत में ब्राह्मी लिपि में लिखा। इस प्रकार आर्यों की याज्ञिक प्रणाली (कर्मकांड) और शिव की विद्यातंत्र (ज्ञानकांड) दो प्रणालियाँ थीं जिनका पालन भारत के प्राचीन मूलनिवासियों द्वारा किया जाता था लेकिन कहीं भी मूर्ति पूजा नहीं थी।
इसके बाद लगभग 5500 साल पहले (भगवान ‘‘कृष्ण’’ के आगमन से लगभग 500 साल पहले) ‘‘कपिल’’ मुनि अस्तित्व में आए और उन्होंने ‘सांख्य दर्शन’ नाम से अपना दर्शन प्रस्तुत किया, जिसमें इस ब्रह्मांड के निर्माता को कुछ संख्याओं में गिनाने की कोशिश की गई। उन्हें “अदिविद्वान“ अर्थात प्रथम दार्शनिक और ईश्वर को निश्चित संख्याओं में बांधने वाला पहला विद्वान माना जाता था।
‘सांख्य दर्शन’ के काफी समय बाद एक अन्य दार्शनिक महर्षि ‘‘पतंजलि’’ ने ‘‘पातंजल योग दर्शन’’ दिया और सांख्य दर्शन के दोषों को दूर करने का प्रयास किया लेकिन कुछ मामलों में वे पिछड़ गये। उनका सबसे बड़ा दोष यह था कि वह जीवित प्राणियों और ईश्वर के बीच के संबंध को निर्धारित करने में विफल रहे। महर्षि ‘कणाद’ एक अन्य दार्शनिक थे जिन्होंने “कारण और प्रभाव सिद्धांत“ दिया और “वैशेषिक दर्शन“ की स्थापना की। दार्शनिक विचारों के विश्लेषण से उन्होंने यह स्थापित किया कि बिना कारण के कोई कार्य नहीं हो सकता। वह ईश्वर को साक्षी सत्ता और पदार्थ की सबसे छोटी इकाई को परमाणु मानते हैं लेकिन उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि ईश्वर एक दार्शनिक कारण है या यांत्रिक इकाई है। उन्होंने ईश्वर और एटम के सम्बन्ध के बारे में भी कुछ नहीं कहा। कालान्तर में वैशेषिक द्वैतवादी हो गये।
इन्हीं दर्शनों के उथलपुथल भरे समय में जबकि कहीं पर शैव, कहीं पर शाक्त, कहीं पर विद्यातंत्र और कहीं पर अविद्यातंत्र का डंका बज रहा था, महासंभूति कृष्ण का आविर्भाव हुआ जिन्होंने अपना कोई दर्शन तो नहीं दिया परन्तु शिव प्रणीत विद्यातंत्र के ज्ञानकांड, कपिल के सांख्य और पातंजल दर्शन को समन्वयीकृत कर ज्ञानियों को ज्ञानमार्ग का और कर्मियों को निष्काम कर्म योग का अनुसरण करते हुए भक्ति को पाने की व्यवस्था बनाई। इसमें कहा गया है कि पूर्णप्रपत्ति के बिना आप अपने को जान ही नहीं सकते। इसे ही ‘वैष्णववाद’ कहा गया।
इसके बहुत बाद में दार्शनिक युग के मध्य काल में ‘‘मीमांसा सम्प्रदाय’’ का उदय हुआ जिसने पूर्ववर्ती दर्शनों की विसंगतियों एवं दोषों को दूर करने का प्रयास किया। इसे दो खंडों में विभाजित किया गया था एक को आचार्य बादरायण व्यास, आचार्य गौडपाद, आचार्य गोविंदपाद और श्रीमत शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित उत्तर मीमांसा कहा जाता है और दूसरे खंड को आचार्य जैमिनी द्वारा प्रतिपादित पूर्व मीमांसा कहा जाता है। इन सभी आचार्यों के विचारों और मतों में व्यापक मतभेद थे लेकिन इन सभी ने ‘‘ब्रह्म’’ के अस्तित्व को स्वीकार किया था। दोष यह था कि उन्होंने ब्रह्म के साथ ‘‘माया’’ का परिचय कराया, तदनुसार माया इस संसार का निर्माण कर रही है इसलिए इसे मिथ्या माना गया।
इस प्रकार आचार्यों के विभिन्न विचारों में सामाजिक जीवन ठहरा हुआ था। बाद में, लगभग 2500 वर्ष पूर्व माहर्षि ‘वृहस्पति’ (जिन्हें चार्वाक के नाम से जाना जाता है), वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध ने समाज में अपने विचारों का प्रतिपादन किया। इस काल में वेदों का कर्मकाण्ड व्यापक रूप से प्रचारित हुआ तथा ज्ञानकाण्ड छिपा हुआ था। वर्धमान महावीर और गौतम बुद्ध ने कर्मकांड का विरोध किया और वेदों को स्वीकार नहीं किया लेकिन उन्होंने ज्ञानकांड का विरोध नहीं किया। इस प्रकार बुद्ध की नैतिकता और महावीर की अहिंसा पर आधारित नये विचार अस्तित्व में आये। बुद्ध ने ईश्वर या भगवान के अस्तित्व के बारे में कोई बात नहीं कही और यह प्रतिपादित किया कि अंततः सब कुछ शून्य है । जबकि महावीर निर्वाण में विश्वास करते थे, लेकिन रचयिता और सृष्टि तथा उनके परस्पर संबंध के बारे में कई बातें अस्पष्ट थीं। इसी दौरान चार्वाक वेदों, बुद्ध और महावीर के विचारों से कई कदम आगे पहुंच गये क्योंकि उनके दर्शन ने कर्मकांडीय आडंबरों का विरोध करते हुए नैतिक सिद्धांतों और मानवीय मूल्यों को भी नकार दिया। उन्होंने उपदेश दिया कि जब तक जीवित रहो सुख से रहो चाहे कर्ज भी लेना पड़े फिर भी मक्खन खाते रहो। शब्दों की बाजीगरी का उपयोग करने वाला यह दर्शन प्रत्यक्ष बोध के अलावा किसी भी प्रमाण को स्वीकार नहीं करता था और इसलिए समाज भौतिकवादी हो गया। आज तक हम देखते हैं कि समाज में कर्मकांडीय आडंबर, मूर्ति पूजा और भौतिकवादी दृष्टिकोण प्रचलित है। जब मुस्लिम और ब्रिटिश आक्रमणकारी भारत में आए, तो उन्होंने इस क्षेत्र (जिसे भारत या मूल रूप से जम्बूद्वीप कहा जाता था) को हिंदुस्तान और मंदिरों में पूजा-पाठ और अनुष्ठान आदि कार्य देखकर इसे ही “हिंदू धर्म“ नाम दे दिया क्योंकि ज्ञानकांड पर आधारित चर्चा इस समय दब चुकी थी। इस समय तक मूलतः ‘शैव’ मतानुयायी, कालक्रम के अनुसार जैन और बौद्ध के प्रभाव में आते जा रहे थे । जैन तन्त्र की अव्यावहारिकता और बौद्ध तन्त्र की दुखवादिता से जनसामान्य अपने जीवन की रसमयता को खोता जा रहा था, इसलिए आज चार्वाक का भौतिकवाद चरम पर जा रहा है।
इस संक्षिप्त विवरण से स्पष्ट है कि भारत में कैसे दर्शनशास्त्र के विभिन्न रूपों का उदय हुआ और उन्होंने विद्यातंत्र और वेदों के सच्चे ज्ञान को पर्दे के पीछे रखकर आम समाज को शब्दों की बाजीगरी में उलझा दिया। अब यह आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि तथाकथित हिंदू धर्म में वेदों का कितना हिस्सा माना जाता है, शैव, भागवत या सनातन धर्म का तो कहना ही क्या!
यह भी स्पष्ट है कि भारतीय दर्शन का मुख्य लक्ष्य व उद्देश्य इस ब्रह्माण्ड के रचयिता व निर्माण के पीछे के सत्य व उसके घटकों तथा जीवों के साथ उसके परस्पर सम्बन्ध को जानना था। इससे पता चलता है कि आज भारत को विश्वगुरु बनने के लिए भगवान शिव द्वारा प्रतिपादित विद्यातंत्र आधारित पूजा प्रणाली को स्थापित करने की अत्यंत आवश्यकता है। आज के नेताओं द्वारा भारत को विश्वगुरु बनाने दावा किया जा रहा है, परन्तु विशुद्ध रूप में सनातन/भागवत धर्म की स्थापना के बिना क्या यह संभव है?