Wednesday, 12 August 2020

329 आध्यात्म के नाम पर शोषण


भूतकाल में राजा और महाराजा लोग ‘ यज्ञ ‘ करके यह दर्शाया करते थे कि वे कितने बहादुर हैं परंतु यह भी शोषण करने की एक कला थी। उन्होंने बड़े बड़े मंदिरों का निर्माण अपने कुकर्मों को छिपाने के लिये कराया न कि भक्ति भाव से। बौद्धिक शोषण करने वाले तथाकथित पंडितों और भौतिक शोषण करने वाले राजाओं के बीच अपवित्र समझौता हुआ करता था जिसके अनुसार पंडित और पुजारीगण हर युग में अपने अपने राजाओं के गुणगान किया करते थे। इतना ही नहीं, उन के द्वारा राजा को ईश्वर का रूप घोषित कर दिया गया था। पंडिताई करना शोषण करने का दूसरा रूप ही था। यही कारण है कि पूंजीवाद इन पंडितों और पंडितलोग पूंजीवादियों के विरुद्ध कभी नहीं जा सकते। आज भी वे एक दूसरे का महिमामंडन और पूजन करते नहीं थकते। जन सामान्य के मन में हीनता का बोध कराने वाली और उनकी भावनाओं से खिलवाड़ करने वाली अनेक अतार्किक कहानियाॅं और मिथक उन्होंने अपनी कल्पना से बना रखे हैं जिसका स्पष्ट उदाहरण इस श्लोक में दिया गया है-

ब्राह्मणस्य मुखमासीत वाहुराजनो भवत्, 

मध्य तस्य यद् वैश्यः पदभ्याम शूद्रोजायत।

अर्थात् ब्राह्मण ईश्वर के  मुख से, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य मध्यभाग से और और शूद्र पैरों से जन्मे। वे यदि सार्वजनिक हित साधन का चिंतन करते होते तो इसी बात को वे इस प्रकार भी कह सकते थे कि ईश्वर, बुद्धि और विवेक के रूप में सभी के मुह में, आत्म रक्षा हेतु शक्ति के रूप में भुजाओं में, शारीरिक पोषण हेतु व्यावसायिक कर्म करने के लिये शरीर के मध्य भाग में और सब के प्रति सेवा भाव रखने के लिये पैरों में निवास करता है।

यदि मानव संघर्ष के इतिहास में विप्रों को दूसरों पर आश्रित होकर आपने जीवन को चलाने की भूमिका निभाने वाला कहा जाये तो वैश्यों की भूमिका पारिभाषित करने के लिये तो शब्द ही नहीं मिलेंगे। विप्र और वैश्य दोनों ही समाज का शोषण करते हैं परंतु वैश्य शोषणकर्ता अधिक भयंकर होते हैं। वैश्य तो समाज वृक्ष के वे घातक परजीवी होते हैं जो उस वृक्ष के जीवन तत्व को ही चूसते जाते हैं जब तक वह सूख न जाये। यही कारण है कि पूंजीवादी संरचना में उद्योग या उत्पादन लोगों के ‘‘उपभोग की मात्रा‘‘ द्वारा नियंत्रित न किया जाकर  ‘‘लाभ की मात्रा‘‘ के द्वारा नियंत्रित होता है ।

 परंतु वैश्य परजीवी यह समझते हैं कि यदि पेड़ ही मर जायेगा तो वे किस प्रकार बच सकेंगे इसलिये वे समाज में अपना जीवन बचाये रखने के लिये कुछ दान का स्वांग रचकर मंदिर, मस्जिद, चर्च , यात्री धरमशालायें, बोनस वितरण और गरीबों को भोजन आदि कराते हैं। विपत्ति तो तब आती है जब वे अपना सामान्य ज्ञान त्याग कर प्रचंड लोभ के आधीन होकर समाज वृक्ष के पूरी तरह सूख जाने तक शोषण करने लगते हैं। एक बार समाज का ढाॅंचा अचेत हो गया तो वैश्य भी अन्यों के साथ मर जायेंगे । नहीं, तो उनके द्वारा, इस प्रकार समाज को अपने साथ ले डूबने से पहले शोषित शूद्र, क्षत्रिय और विप्र मिलकर वैश्यों को नष्ट कर सकते हैं, प्रकृति का यही नियम है। 


यह कितना आश्चर्य है कि समाज की समुचित व्यवस्था बनाये रखने के लिये ही व्यक्तिगत गुणों और कर्मों के अनुसार उसे चार भागों में विभाजित किया गया था ( चातुर्वर्णं मया सृष्टा गुणकर्म विभागशः ) परंतु स्वार्थवश हमने ही उनकी क्या गति कर डाली है। यहाॅं यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि गुणों और कर्मों के आधार पर किये गये  इस प्रकार के सामाजिक विभागों में कोई भी किसी भी विभाग में जन्म लेकर अपने कर्मों में परिमार्जन कर अन्य विभागों में सम्मिलित हो सकता था और इस कार्य को सामाजिक मान्यता भी थी। इस बात की पुष्टि में यह उद्धरण पर्याप्त है ‘‘ जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते‘‘ अर्थात् जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं परंतु दिये गये संस्करों के अनुसार ही इसी जीवन में उनका फिर से जन्म होता है और उन्हें द्विजन्मा कहा जाता है। एक अन्य उद्धरण यह है कि एक ही वंश में उत्पन्न गर्ग, वसुदेव और नन्द परस्पर चचेरे भाई थे परंतु गर्ग ने विप्रोचित संस्कारों को ग्रहण कर अपने को ऋषि का, वसुदेव ने क्षत्रिय संस्कार उन्नत कर अपने को सेनापति और नन्द ने वैश्योचित संस्कार पाकर पशुपालक का स्तर अपनाया और निभाया। आज के समाज ने एक ही विभाग में लाखों प्रकार की जातियों का समावेश कर शोषण की प्रवृत्ति को क्या और अधिक गहरा नहीं किया है? अब, यदि मानव समाज को अपना अस्तित्व बचाना है तो प्रत्येक व्यक्ति को अपने आप में  ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों नैसर्गिक गुणों को एक समान उन्नत कर आत्मनिर्भर होना होगा तभी वह अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुंच सकता है अन्यथा नहीं। जिस किसी में इन चारों गुणों का  उचित सामंजस्य है उन्हें ही सदविप्र कहा जाना चाहिये।



Friday, 7 August 2020

328 ‘ब्रह्म‘ कहाॅ पाए जाते हैं?


उस दिन मेरे एक मित्र ने आकर बडा़ विचित्र प्रश्न पूछ डाला। कहने लगे, ये ‘ब्रह्म’ कहाॅं पाया जाता है? 

उनसे अप्रत्याशित प्रश्न सुनकर अचरज तो हुआ पर उत्तर भी उचित और उनके अनुकूल हो इसके लिए मैंने ‘उन’ सबके पिता से से ही निवेदन किया कि अब तुम्हीं बताओ इन्हें क्या उत्तर दूॅं? मुझे पता नहीं कब पढ़ा, रसखान कवि का एक सवैया, याद आ गया। जिसमें वे कहते हैं कि,

 ‘‘मैं ने वेदों और पुराणों में ‘ब्रह्म’ को ढूड़ा पर सभी ने मन में पहले से चार गुना भ्रम पैदा कर दिया। वेद कहते हैं कि उस ब्रह्म को कभी भी कहीं भी देखा नहीं जा सकता, सुना नहीं जा सकता, वह कैसे स्वरूप और स्वभाव का है यह कोई नहीं जानता। मैं तो सभी जगह उन्हें ढूंड़ता फिर पर किसी महिला या पुरुष ने मुझे उसका पता नहीं बता पाया। पर आश्चर्य, कि जब थक कर हार गया तो एक फूलों की लताओं से बनी झोपड़ी में सुस्ताने बैठना चाहा तो देखा, वहाॅं राधिका के पैरों के पास ‘वह’ बैठा था।’’

‘ब्रह्म’ मैं ढूड़्यो पुरानन वेदन, भेद कियो चित चैगुन चारुन ।

देेखो सुनो न कहूं कबहूं वह कैसो स्वरूप व कैसो सुभायन।

ढूंड़त ढूंड़त ढूड़ि फिर्यो ‘रसखान’ बतायो न लोग लुगाइन।

पायो कहाॅं, वह कुंज कुटीर में बैठो पलोटत ‘राधिका’ पायन।

यह सुनकर मित्र महोदय खिन्न हुए, बोले, वाह! यह भी कोई बात हुई, राधिका के पैरों में बैठा मिला ब्रह्म? 

मैं ने उन्हें धैर्य से सोचने को कहा कि यदि आप राधा को कोई लौकिक जगत की सुंदर महिला को समझते हैं तो भूल करते हैं। ‘‘राधा’’ का अर्थ है भक्त के भक्तिभाव की चरम अवस्था अर्थात् क्लाइमेक्स आफ डिवोशनल सेंटीमेंट आफ ए डिवोटी। ‘राधा’ है अपने ‘इष्ट’ के प्रति प्रेम की उत्तुंता का भाव, समर्पण की पराकाष्ठा। 

और, भक्त कौन है? भक्त है ‘उन्हें’ पाने के लिए उत्कट हुआ व्यक्ति जिसे उनके अलावा किसी की चाह नहीं होती। 

वे बोले, कुछ समझ में नहीं आया। मैंने कहा, पुराणों में एक दृष्टान्त देकर इसे इस प्रकार समझाया गया है-

नारद जी ने एकबार भगवान विष्णु से पूछा, प्रभो! आप कहाॅं रहते हैं, बैकुंठ में, योगियों के हृदय में या कहीं और? विष्णु जी बोले नहीं नारद! न तो मैं बैकुंठ में रहता हॅूं और न योगियों के हृदय में, मैं तो वहाॅं रहता हॅूं जहाॅं मेरे भक्त मुझे पाने की उत्कट इच्छा से गाते हैं, पुकारते हैं।

‘‘ नाहं वसामि वैकुंठे योगिनाम् हृदये न च।

मद्भक्ताः यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद!’’

इसलिए उन्हें कहीं दूर जाकर तलाश करने की आवश्यकता नहीं है, उन्हें पाने के लिए जब मन मेें उत्कट इच्छा जागेगी इतना कि उनके बिना रहना मुश्किल हो जाएगा, वे स्वयं ही आपके सामने प्रकट हो जाएंगे। 


Saturday, 1 August 2020

327मामेकम् शरणम् ब्रज



संस्कृत में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने अर्थात् ‘चलने’ के अर्थं में प्रयुक्त किये जाने वाले अनेक शब्द हैं जैसे,
गच्छ= गच्छति, सामान्यतः चलना या जाना।
चल्= चलति, सामान्य रूप में चलना। 
चरति= खाते हुए चलना। 
अट्= अटति, पर्यटति, ज्ञान पाने के लिए चलना। 
ब्रज्= ब्रजति, आनन्द पूर्वक चलना।
संसार के सभी दार्शनिक विचार उस परमसत्ता की ओर जाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जिसने इस समग्र सृष्टि को रचा है। कुछ कहते हैं वह स्वर्ग में रहता है और हम सबसे श्रेष्ठ है, हमें उसे प्रसन्न रखना चाहिए अन्यथा वह हमें दंडित कर नर्क की यातनाएं देगा । कुछ कहते हैं कि वह मंदिरों या तीर्थों में रहता है वहाॅं जाकर हमें अपनी सुख समृद्धि की प्रार्थना करना चाहिए। कुछ कहते हैं कि वह तो सर्वव्यापी हैं उन्हें कहीं ढूॅंड़ने की जरूरत नहीं है। कुछ के अनुसार वह हमारे भीतर ही हैं अतः उन्हें अपने मन की गहराई में ही खोजना चाहिए। कुछ कहते हैं कि यह समग्र ब्रह्माॅंड उन परमपुरुष की विचार तरंगे है अतः हम सभी उनकी ही विचार तरंगों के छोटे से भाग हैं इसलिए उनसे पृथक नहीं हैं उन्हीं के भीतर हैं। 
जब सब कुछ उन्हीं के भीतर है बाहर कुछ नहीं तो वह तो हमारे परमपिता हुए अतः, हमें अपना पृथक अस्तित्व भूलकर उनकी ओर प्रेमपूर्वक प्रसन्नता से चलने का प्रयास करना चाहिए । मनुष्य जीवन का एकमात्र यही लक्ष्य है। सच है, अपने पिता से डरने का क्या कारण? आनन्दपूर्वक उनका चिन्तन, मनन और निदिद्यासन (अर्थात् उनकी समीपता का अनुभव करना और ध्यान करना) करते हुए उनकी ओर जाने का कार्य ही कीर्तन, भजन, पूजन, साधन, उपासन और आराधन कहलाता है, अन्य सब व्यर्थ है। 
इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कि ‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् ब्रज’’ अर्थात्, पृथकता, चिन्ता, भय और रोना (द्वितीयक धर्म, यानी सभी उपधर्म) छोड़कर, केवल मेरी ओर (प्राथमिक धर्म, यानी प्रधान धर्म) आनन्दपूर्वक चले आओ । यदि चलते हुए गिरने से चोट लग जाए तो तुम्हारा पिता गुणकारी मरहम लगा कर ठीक कर देगा, धूल को पोंछ कर स्वच्छ कर देगा, चिन्ता की कोई बात नहीं । 
यही समझाने के लिए उन्होंने पूर्वोक्त लगभग समानार्थी शब्दों में से  ‘‘ब्रज्’’, ब्रजति अर्थात् ‘‘आनन्द पूर्वक चलना’’ को ही अपने कथन में प्रयुक्त किया है।
परन्तु, देखो तो! वह लगातार बुला रहे हैं और हम, डरकर उनसे दूर भागते जा रहे हैं प्रकृति के हर क्षण बदलते मायावी स्वरूपों से आकर्षित होकर । इस विचित्र दुनिया के सतत रूपान्तरित होते वर्णक्रम को हमने सबकुछ मान लिया है! ! !