Friday, 11 June 2021

355 जीवन मुक्त

 

भारतीय दर्शन में वैज्ञानिक आधार पर ही सब तथ्यों को समझाया गया है परन्तु विद्वानों ने अपने अपने ढंग से उसे समझकर उसका अनुसरण किया है। यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है कि जब किसी वस्तु को स्पर्श किया जाता है तो उसमें स्पर्श का प्रभाव पड़ता है और वह प्रभाव तब तक रहता है जब तक वह अपनी स्पर्श ऊर्जा को किसी कार्य रूप में विकीर्णित नहीं कर देता। जैसे सिरों पर बंधे किसी तार को बीच में पकड़कर छोड़ दिया जाता है तो उसमें इस खिचाव से उत्पन्न ऊर्जा, कम्पनों के माध्यम से उसमें ध्वनि उत्पन्न कर घीरे धीरे समाप्त होती जाती है जबतक तार अपनी पूर्ववत साम्यावस्था में नहीं आ जाता। उसी प्रकार जीवधारियों में भी किसी कार्य को करने से पहले उनके मन में विचार आता है फिर वह उसे अपने ढंग से कार्यरूप देता है। इससे उसके मन पर ऊर्जा तरंगों के जो आघात लगते हैं वे तब तक संचित होते जाते हैं जब तक उन्हें समाप्त होने का अवसर नहीं मिल जाता। दार्शनिक भाषा में इन्हें संस्कार कहते हैं। भारतीय दर्शन में स्रष्टि का स्रजन और तदनुसार विकास, क्रमागत रूप से हुआ है अतः सूक्ष्म से स्थूल और स्थूल से सूक्ष्म यह विकास चक्र चलता रहता है और सभी स्रष्ट वस्तुओं और जीवधारियों का रूपान्तरण चलता रहता है जब तक कि वे अपनी मौलिक साम्यावस्था में वापस नहीं लौट जाते। मनुष्य के स्तर पर ये संस्कार मन की दशा के अनुसार बनते और नष्ट होते हैं अतः कहा जाता है कि ‘‘मन’’ ही मनुष्यों के बंधन या मोक्ष का कारण होता है। उत्तरोत्तर विकास के लिए इन सभी प्रकार के संस्कार बंधनों से मुक्त होने की शिक्षा दी जाती है। 

इन संस्कारों से मुक्त होने के लिए मनुष्य को लगातार संघर्ष करना पड़ता है। चूंकि मनुष्य अपनी पूर्ववर्ती पाश्विक जीवन से क्रमशः उन्नत होकर मनुष्य स्तर पर आता है अतः तब से अभी तक के असंख्य संस्कारों को क्षय करने के लिए अपार संघर्ष करना पड़ता है। पाश्विक संस्कारों से मुक्ति का संघर्ष करते समय इसे ‘‘पाश्वाचार’’ कहा जाता है। इसके बाद सूक्ष्म स्तरीय संस्कारों को क्षय करने के लिए मानसिक शक्ति का उपयोग करना पड़ता है अतः इसे ‘‘शाक्ताचार’’ कहते हैं। इसके बाद भी अनेक अत्यंत सूक्ष्म संस्कार रह जाते हैं उन्हें गुरु के सान्निध्य में रहकर इष्टमंत्र की सहायता से पूर्णतः समाप्त कर अपनी मूल अवस्था को पाने का कार्य ‘‘दिव्याचार’’ कहा जाता है।

सूक्ष्मस्तरीय और अतिसूक्ष्मस्तरीय इन संस्कारों को ‘षडरिपु’ और ‘अष्टपाश’ कहा जाता है। काम अर्थात् वासना, क्रोध, लोभ, दर्प अर्थात् मद, मोह अर्थात् आसक्ति, और मात्सर्य अर्थात् ईष्र्या ये षडरिपु और भय, लज्जा, घृणा, षंका, कुल, षील, मान और जुगुप्सा ये अष्टपाश है। षडरिपु का अर्थ है छै शत्रु, इन्हें शत्रु इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये इकाई चेतना को सूक्ष्मता ही ओर जाने से रोककर स्थूलता में अवशोषित करने का कार्य करते हैं। इकाई चेतना का उच्चतम स्तर सूक्ष्म है अतः उस ओर जाने से रोकने वाला शत्रु हुआ। अष्टपाश का अर्थ है आठ बंधन, बंधनों में बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति अपनी गति खो देता है। स्रष्टि में हम देखते हैं कि मानव की गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है परंतु पूर्वोक्त अष्टपाश आदि स्थूलता से जकड़े रहने के कारण सूक्ष्मता की ओर जाने से रोकते रहते हैं। इन सभी से मुक्त होने के लिए समय समय पर विद्वानों ने अनेक प्रकार की विधियों को निर्धारित किया है जिन्हें पूजा या उपासना पद्धतियाॅं कहा जाता है। जिसे  जो भी पद्धति अच्छी लगती है वह उसका अनुसरण करते देखा जाता है परन्तु सभी में निहित उद्देश्य होता है इन सभी संस्कारों से मुक्ति पाना। गायंत्री मंत्र में भी बुद्धि को शुद्ध करने की प्रार्थना  की गई है। कुछ ज्ञानीलोग इनसे भौतिक उपलब्धियों के पाने का प्रलोभन भी देते हैं और अधिकांश लोग इसी कारण से पूजा या उपासना करते हैं पर इसके पीछे छिपे यथार्थ उद्देश्य को भूल जाते हैं और बार बार नये नये संस्कारों का बोझ लादते जाते हैं। श्रीमद्भग्वदगीता में कहा गया है कि 

‘‘यतीन्द्रिय मनो बुद्धिर्मुनिः मोक्ष परायणः, विगतेच्छा भय क्रोधो यः सदा मुक्त एव सः। गीता 5/28’’

अर्थात् जिस व्यक्ति ने अपने मन और इंद्रियों को नियंत्रित कर अपनी बुद्धि को जीवन के परम लक्ष्य ‘मोक्ष’ की ओर लगाए रखकर अपनी सभी इच्छाओं, भय और क्रोध को मन से निकाल दिया है वह इस जीवन में रहते हुए सदा ही मुक्त माना जाता है। उसे इस जीवन को बनाए रखने या न रखने से भी कोई मतलब नहीं रहता। यदि वह इस अवस्था में भी अपना जीवन जीता है तो वह केवल लोक कल्याण के कर्म में ही संलग्न रहता है जिससे उसके अन्य संस्कार उत्पन्न ही नहीं हो पाते ऐसा महान ब्यक्ति जीवन मुक्त कहलाता है।


Tuesday, 1 June 2021

354 एलोपैथिक और आयुर्वेदिक समर्थकों में व्यर्थ का विवाद

 

योगासनों को टेलीविजन पर दिखाते हुए चर्चा में आए बाबा रामदेव ‘पतंजली ब्रांड’ के नाम से  दवाओं सहित अपने अनेक उत्पाद उपभोक्ताओं को उपलब्ध करा रहे हैं। इस समय जहाॅं सारा विश्व कोरोना बीमारी के महासंकट से जूझ रहा है, बाबा रामदेव ने अति उत्साह में एक सभा में कह दिया कि  ‘‘एलोपैथी एक स्टुपिड और दिवालिया साइंस है, एलोपैथिक डाक्टर जो दवायें दे रहे हैं वे एक एक कर फेल हो रही हैं, लाखों लोगों की मौत इनकी दवाओं से हो  रही हैं। जितनी मौतें हास्पिटल न जाने के कारण हुई हैं या आक्सीजन न मिलने के कारण हुई हैं उससे अधिक आक्सीजन के मिलने के बावजूद एलोपैथिक दवाओं से हुई हैं, स्टेरायड से हुई हैं। इस प्रकार लाखों लोगों की मौतें एलोपैथिक दवाओं सें हो चुकी है।’’ एलोपैथिक डाक्टरों ने इसे गंभीरता से लिया है और अपनी जानपर खेलकर देश भर मे कोरोना से लड़ने वाले डाक्टरों के प्रति रामदेव का रवैया अपमानजनक और अमानवीय कहते हुए उनसे लिखित में माफी मांगने के लिए आन्दोलन चला रखा है। किसी किसी ने तो  उन्हें देश द्रोह के अंतर्गत जेल भेजने तक की मांग कर डाली है। इस पर रामदेव ने एलोपैथिक दवाओं को उनकी मूल कीमत से चालीस गुना तक अधिक कीमत में बेचे जाने का मुद्दा उठाकर अपने को बचाने का प्रयास किया है। इसके पक्ष में उन्होंने एलोपैथिक दवाओं और जेनरिक दवाओं की कीमतों में जमीन आसमान का अंतर होने पर सिनेमा अभिनेता आमिर खान के द्वारा लिया गया एक डाक्टर से इंटरव्यु के वीडियो का संदर्भ दिया है। इस तरह एलोपैथिक डाक्टरों  और बाबा रामदेव में यह विवाद बढ़ता ही जा रहा है। ऐसा लगने लगा है कि दो अरबपति व्यापारी अपने अपने अहं, अस्तित्व और वर्चस्व को बनाए रखने के लिए किसी भी स्तर पर जाने को कटिबद्ध है। अब प्रश्न यह है कि यदि रामदेव का एलोपैथिक दवाओं की कीमतों की अधिकता रोकने का ही उद्देश्य था तो उन दवा निर्माताओं के विरुद्ध मोर्चा खोलना था जो इन्हें बनाते हैं, बड़ी बड़ी फार्मेसीज के स्वामी है। आयुर्वेद और योग के क्षेत्र में  अपना नाम स्थापित करने वाले एक सन्यासी को पूरी एलोपैथी को स्टुपिड और दिवालिया साइंस कहना किसी संत के स्तर को नहीं दर्शाता प्रत्युत उन्हें इस स्तर से नीचे ले जाने का कार्य ही करता है।

इस विवाद पर कुछ भी कहने के पहले अब आइए जरा विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों को संक्षेप में जाने कि वे क्या हैं और कैसे कार्य करती हैं-

चिकित्सा के क्षेत्र में आजकल एलोपैथी, आयुर्वेद, नेचुरोपैथी और होमियोपैथी में इलाज करने की पद्धतियाॅं/विधियाॅं प्रयुक्त की जाती हैं। समस्या यह है, कि हमें किस पद्धति को विश्वास पूर्वक अपनाना चाहिए? एलोपैथी में व्यापक नैदानिक परीक्षण से शल्यक्रिया करने या उपचार की व्यवस्था है परन्तु देखा गया है कि इन दवाओं के साइड इफेक्ट होते हैं और क्रोनिक बीमारियों में तो आजीवन दवा लेना पड़ती है। आयुर्वेदिक दवाएं सचमुच गंभीर बीमारियों को ठीक करते देखी जाती हैं। नेचुरोपैथी में प्राकृतिक रूप से वायु, जल, प्रकाश और भूमि का प्रयोग किया जाता है पर वे कोई दवा का प्रयोग नहीं करते इसलिए यह सीमित हो जाता है क्योंकि मरीजों को इससे अपेक्षित चिकित्सा और सेवा हमेशा प्राप्त नहीं होती। होमियोपैथिक दवाओं की विशेषता यह है कि वे बहुत सूक्ष्म होती हैं और गहराई से कार्यशील होती हैं क्योंकि वे रोगी के लक्षणों के आधार पर निर्धारित की जाती हैं। 

इनकेे विपरीत एलोपैथिक और आयुर्वेदिक दवाएं रोगी के लक्षणों पर आधारित न होकर बीमारी पर आधारित होती हैं। होमियोपैथिक दवा सूक्ष्म होने के कारण यदि गलत भी दे दी जाए तब भी वह भले लाभ न पहॅुंचाए पर हानि नहीं पहुॅंचाती जबकि एलोपैथी और आयुर्वेदिक दवा गलत दे दी जाय तो घातक ही होती है। होमियोपैथिक दवाओं की एक विशेषता यह भी है कि ये अपेक्षतया सस्ती होती हैं और आधुनिक कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग हो जाने के कारण कोई भी व्यक्ति अपने रोग के लक्षणों आधार पर बिना डाक्टर के पास जाए स्वयं ही इन्हें ले सकता है, परन्तु गंभीर मामलों में डाक्टर से ही परामर्श लेना आवश्यक होता है।  होमियोपैथी का सिद्धान्त है ‘‘समः समम शाम्यति’’, इसलिए जितनी क्रूड बीमारी होती है उतनी ही सूक्ष्म दवा चयनित की जाती है और वह तेजी से रोग पर प्रभावी होती है। आयुर्वेद भारत की अतिप्राचीन चिकित्सा पद्धति है  जबकि एलोपैथी की आयु केवल 200 वर्ष है। एलोेपैथी का वर्तमान स्वरूप वास्तव में आयुर्वेद की प्रचलित विधियों और औषधियों में वैज्ञानिक आधार पर शोध कर ही पाया गया है। अतः कहा जा सकता है कि चिकित्सकीय ज्ञान के क्रमागत विकास में आयुर्वेद के आगे एलोपैथी की कड़ी जुड़ी हुई है। उनमें परस्पर किसी भी प्रकार का टकराव नहीं है, वह तो चिकित्सकों और भेषज निर्माताओं के द्वारा अपने आपने धंधे को अधिक लाभदायी बनाने के उद्देश्य से उछाला गया गुबार है जिसमें सामान्य जनता सदा की तरह शोषित हो रही है। आयुर्वेद ने एलोपैथी की तरह उन्नति बहुत पहले ही कर ली होती यदि तात्कालिक समाज के लोगों द्वारा इस पर शोध करने वाले विद्वानों के विरोध में अस्प्रश्यता और हीनता की भावना न भरी गई होती। नीचे दिए गए कुछ उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाएगा। 

महाभारत काल में भीम को दुर्योधन के द्वारा दिए गये विष की चिकित्सा कृष्ण के सुझाव पर  विष के द्वारा किए जाने के प्रमाण पाए जाते हैं जो ‘‘समः समम शाम्यति’’ के सिद्धान्त के अनुसार ही है। उस समय आयुर्वेद में विष चिकित्सा पर शोध के अलावा ‘‘सूचिकाभरण’’ (जिसे आजकल इंजेक्शन कहा जाता है) पर भी प्रचुर जानकारी उपलब्ध थी परन्तु उस समय लोगों में यह अंधविश्वास फैला था कि शरीर में बाहरी द्रव्य सीधे ही नहीं भेजा जाना चाहिए, अतः इस कार्य के विकास में अवरोध आ गया । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इंजेक्शन से दवा देना सहज माना जाता है। 

वास्तव में भारत का वैद्यक शास्त्र और आर्यों का आयुर्वेद कृष्ण के काल तक परस्पर मिल कर एक हो गए थे परन्तु आर्यों द्वारा भारत के मूल निवासियों अर्थात् अनार्यों को हेय  दृष्टि  से देखा जाना जारी  था और उन्हें प्रायः राक्षस या म्लेच्छ कहा जाता था। महाभारत काल में कृष्ण के फुफेरे बड़े भाई जरासंध का जन्म सिजेरियन अर्थात शल्यक्रिया के उपरांत ही हुआ था जिसे ‘जरा‘ नाम की महिला डाक्टर ने की थी। इसीलिए वह जरासंध ( अर्थात जिसे  ‘जरा‘ राक्षसी के द्वारा शल्य क्रिया से सिल कर जन्म दिया गया) कहलाये।  ‘जरा’ को राक्षस  कुल की होने के कारण जरा राक्षसी कहा गया है परन्तु जरासंध इस कुल को आदर देते थे और राक्षसी विद्या में पारंगत  हुए। संस्कृत में राक्षसी विद्या का अर्थ है सम्मोहन या  हिप्नोटिज्म। इस विद्या में पारंगत  अन्य महिला थीं हिडिम्बा (भीम की पत्नी)। विशूचिका (हैजा) रोग के उपचार के लिए सुई लगाने की विधि ‘सूचिकाभरण’ का ज्ञान इसी कुल की अन्य महिला चिकित्सक ‘कर्करि’ को था। आर्य इन लोगों को हेय मानकर तिरस्कार करते थे। इस प्रकार की अनेक विद्याएँ भारत में बहुत पहले विकसित हो चुकीं थीं परन्तु प्रोत्साहन के आभाव में वे जानकार के साथ ही विलुप्त होती गईं। बौद्धकाल में तो शवच्छेद ( डिसेक्शन) को बहुत ही हीन कार्य और अस्पृश्य माना जाने लगा था अतः आयुर्वेदिक उन्नत शल्य चिकित्सा विलुप्त हो गई। आज हम पाश्चात्य देशों से उन्हें जान पाते हैं और उन्हें ही इनकी खोज का श्रेय देते हैं। सोचिए, महाभारत काल से ही आयुर्वेद में की जा रही रिसर्च को यदि हतोत्साहित न किया जाकर प्रोत्साहन दिया जाता तो क्या वह आज की एलोपैथी से आगे न होता? आयुर्वेद के इस ह्रास के लिए कौन उत्तरदायी है?

आज की विषम परिस्थिति में कोरोना नामक बीमारी का अभीतक कोई भी विश्वसनीय और गारंटीड उपाय किसी भी पद्धति में नहीं है अतः स्वाभाविक है कि उसे समूल नष्ट करने के लिए हमें ‘ट्रायल एन्ड एरर’ विधि को प्रयुक्त करना पड़ेगा जो एलोपैथिक डाक्टरों ने किया है और करते जा रहे हैं जब तक कि अंतिम समाधानकारक उपाय प्राप्त नहीं हो जाता। इसलिए यह आक्षेप लगाना कि एलोपैथिक डाक्टरों की एक के बाद एक सभी दवाएं कोरोना के मामले में असफल हो रही है और एलोपैथी चिकित्सा स्टुपिड है, एकांगी सोचवाला बचकाना कथन ही माना जाएगा। कोरोना वास्तव में ‘‘नेगेटिव माइक्रोवाइटा’’ हैं जिन्हें नष्ट नहीं किया जा सकता, ये ताप, दाब या अन्य भौतिक प्रभावों से अपरिवर्तित रहते हैं अतः उन्हें केवल ‘‘पाजीटिव माइक्रोवाइटा’’ से ही नियंत्रण में लाकर मानवजीवन को कष्टमुक्त किया जा सकता है। वर्तमान में एलोपैथिक दवाओं से रोग को दूर करने के लिए नहीं, उसे दबाने के लिये प्रयुक्त किया जाता है जिससे शरीर का पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ जाता है। इसका कारण यह है कि बीमारी के स्थान पर अधिक नेगेटिव माइक्रोवाइटा एकत्रित हो जाते हैं। एलोपैथिक दवायें रोग को जड़ से ठीक नहीं करती रोग तो अपने आप ही ठीक होते हैं । यद्यपि दवायें रोग को रोकती हैं परंतु अधिक दवाओं के उपयोग से नेगेटिव माइक्रोवाइटा का अधिकता से एकत्रीकरण होने लगता है जो दवा के प्रभाव को कम कर सकता है। प्रत्येक रोगी चाहता है कि उसे तत्काल रोग के कष्ट से मुक्ति मिले अतः एक के स्थान पर अनेक दवाओं को लिखने वाला डाक्टर अच्छा समझा जाता है। डाक्टर यह इसलिए करता है कि किसी न किसी दवा से मरीज का कष्ट दूर हो जाएगा। जबकि यथार्थता यह है कि एलोपैथिक दवाओं के उपयोग से नेगेटिव माइक्रोवाइटा के अधिक साॅंद्रित होते जाने के कारण अनेक नई बीमारियाॅं पैदा हो जाती हैं। यही कारण है कि वर्तमान में प्रत्येक दशक में दो या तीन नई बीमारियाॅं जन्म ले रही हैं। चिकित्सा वैज्ञानिकों को इस क्षेत्र में अपनी रिसर्च को बढ़ावा देना चाहिए तभी वे इस दुरूह कार्य को कर पाने में सफल हो सकेंगे।

अतः स्पष्ट है कि आजकल कोई भी डाक्टर केवल ‘‘अनुमान’’ ही लगा सकते हैं कि कौनसी दवा बिलकुल उपयुक्त है या कौनसी गलत। इसलिए कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि उसे दी गई दवा सबसे उचित है क्योंकि वह डाक्टर के सर्वश्रेष्ठ अनुमान पर ही आधारित होती है। साथ ही यह भी कि यदि दवा अपरिष्कृत है तो वह हानिकारक हो सकती है इतना तक कि उससे मृत्यु भी हो सकती है। सभी प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों में कोई न कोई विशेषता पाई जाती है अतः सभी को एक ही छत के नीचे लाकर रोग और रोगी के अनुसार परीक्षण कर चिकित्सा की जाना चाहिए जिसमें सभी का लक्ष्य रोगी को स्वस्थ करना ही होना चाहिए न कि अपने अहं की संतुष्ठी के लिए विवाद। चिकित्सा कर्म से जुडे़ हर व्यक्ति को इस प्रकार के सेंसलेस विवादों को पनपने देने से बचना चाहिए और अपनी ऊर्जा को समाज के हित में नयी रिसर्च करने में प्रयुक्त करने का व्रत लेना चाहिए।

डाॅ टी आर शुक्ल, सागर मप्र।