भारतीय दर्शन में वैज्ञानिक आधार पर ही सब तथ्यों को समझाया गया है परन्तु विद्वानों ने अपने अपने ढंग से उसे समझकर उसका अनुसरण किया है। यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है कि जब किसी वस्तु को स्पर्श किया जाता है तो उसमें स्पर्श का प्रभाव पड़ता है और वह प्रभाव तब तक रहता है जब तक वह अपनी स्पर्श ऊर्जा को किसी कार्य रूप में विकीर्णित नहीं कर देता। जैसे सिरों पर बंधे किसी तार को बीच में पकड़कर छोड़ दिया जाता है तो उसमें इस खिचाव से उत्पन्न ऊर्जा, कम्पनों के माध्यम से उसमें ध्वनि उत्पन्न कर घीरे धीरे समाप्त होती जाती है जबतक तार अपनी पूर्ववत साम्यावस्था में नहीं आ जाता। उसी प्रकार जीवधारियों में भी किसी कार्य को करने से पहले उनके मन में विचार आता है फिर वह उसे अपने ढंग से कार्यरूप देता है। इससे उसके मन पर ऊर्जा तरंगों के जो आघात लगते हैं वे तब तक संचित होते जाते हैं जब तक उन्हें समाप्त होने का अवसर नहीं मिल जाता। दार्शनिक भाषा में इन्हें संस्कार कहते हैं। भारतीय दर्शन में स्रष्टि का स्रजन और तदनुसार विकास, क्रमागत रूप से हुआ है अतः सूक्ष्म से स्थूल और स्थूल से सूक्ष्म यह विकास चक्र चलता रहता है और सभी स्रष्ट वस्तुओं और जीवधारियों का रूपान्तरण चलता रहता है जब तक कि वे अपनी मौलिक साम्यावस्था में वापस नहीं लौट जाते। मनुष्य के स्तर पर ये संस्कार मन की दशा के अनुसार बनते और नष्ट होते हैं अतः कहा जाता है कि ‘‘मन’’ ही मनुष्यों के बंधन या मोक्ष का कारण होता है। उत्तरोत्तर विकास के लिए इन सभी प्रकार के संस्कार बंधनों से मुक्त होने की शिक्षा दी जाती है।
इन संस्कारों से मुक्त होने के लिए मनुष्य को लगातार संघर्ष करना पड़ता है। चूंकि मनुष्य अपनी पूर्ववर्ती पाश्विक जीवन से क्रमशः उन्नत होकर मनुष्य स्तर पर आता है अतः तब से अभी तक के असंख्य संस्कारों को क्षय करने के लिए अपार संघर्ष करना पड़ता है। पाश्विक संस्कारों से मुक्ति का संघर्ष करते समय इसे ‘‘पाश्वाचार’’ कहा जाता है। इसके बाद सूक्ष्म स्तरीय संस्कारों को क्षय करने के लिए मानसिक शक्ति का उपयोग करना पड़ता है अतः इसे ‘‘शाक्ताचार’’ कहते हैं। इसके बाद भी अनेक अत्यंत सूक्ष्म संस्कार रह जाते हैं उन्हें गुरु के सान्निध्य में रहकर इष्टमंत्र की सहायता से पूर्णतः समाप्त कर अपनी मूल अवस्था को पाने का कार्य ‘‘दिव्याचार’’ कहा जाता है।
सूक्ष्मस्तरीय और अतिसूक्ष्मस्तरीय इन संस्कारों को ‘षडरिपु’ और ‘अष्टपाश’ कहा जाता है। काम अर्थात् वासना, क्रोध, लोभ, दर्प अर्थात् मद, मोह अर्थात् आसक्ति, और मात्सर्य अर्थात् ईष्र्या ये षडरिपु और भय, लज्जा, घृणा, षंका, कुल, षील, मान और जुगुप्सा ये अष्टपाश है। षडरिपु का अर्थ है छै शत्रु, इन्हें शत्रु इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये इकाई चेतना को सूक्ष्मता ही ओर जाने से रोककर स्थूलता में अवशोषित करने का कार्य करते हैं। इकाई चेतना का उच्चतम स्तर सूक्ष्म है अतः उस ओर जाने से रोकने वाला शत्रु हुआ। अष्टपाश का अर्थ है आठ बंधन, बंधनों में बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति अपनी गति खो देता है। स्रष्टि में हम देखते हैं कि मानव की गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है परंतु पूर्वोक्त अष्टपाश आदि स्थूलता से जकड़े रहने के कारण सूक्ष्मता की ओर जाने से रोकते रहते हैं। इन सभी से मुक्त होने के लिए समय समय पर विद्वानों ने अनेक प्रकार की विधियों को निर्धारित किया है जिन्हें पूजा या उपासना पद्धतियाॅं कहा जाता है। जिसे जो भी पद्धति अच्छी लगती है वह उसका अनुसरण करते देखा जाता है परन्तु सभी में निहित उद्देश्य होता है इन सभी संस्कारों से मुक्ति पाना। गायंत्री मंत्र में भी बुद्धि को शुद्ध करने की प्रार्थना की गई है। कुछ ज्ञानीलोग इनसे भौतिक उपलब्धियों के पाने का प्रलोभन भी देते हैं और अधिकांश लोग इसी कारण से पूजा या उपासना करते हैं पर इसके पीछे छिपे यथार्थ उद्देश्य को भूल जाते हैं और बार बार नये नये संस्कारों का बोझ लादते जाते हैं। श्रीमद्भग्वदगीता में कहा गया है कि
‘‘यतीन्द्रिय मनो बुद्धिर्मुनिः मोक्ष परायणः, विगतेच्छा भय क्रोधो यः सदा मुक्त एव सः। गीता 5/28’’
अर्थात् जिस व्यक्ति ने अपने मन और इंद्रियों को नियंत्रित कर अपनी बुद्धि को जीवन के परम लक्ष्य ‘मोक्ष’ की ओर लगाए रखकर अपनी सभी इच्छाओं, भय और क्रोध को मन से निकाल दिया है वह इस जीवन में रहते हुए सदा ही मुक्त माना जाता है। उसे इस जीवन को बनाए रखने या न रखने से भी कोई मतलब नहीं रहता। यदि वह इस अवस्था में भी अपना जीवन जीता है तो वह केवल लोक कल्याण के कर्म में ही संलग्न रहता है जिससे उसके अन्य संस्कार उत्पन्न ही नहीं हो पाते ऐसा महान ब्यक्ति जीवन मुक्त कहलाता है।
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