Tuesday, 13 July 2021

356 मन कैसे कार्य करता है?


मन के दो खंड होते हैं, एक व्यक्तिनिष्ठ (subjective mind)  और दूसरा वस्तुनिष्ठ (objective mind) .  मानलो एक बिल्ली दिखाई दी, अब यदि आँख  बंद कर उस बिल्ली को फिर से याद किया जाता है तो मन का जो भाग बिल्ली का आकार बनाने लगता है उसे वस्तुनिष्ठ मन और जो भाग केवल देखता रहता है अर्थात् साक्ष्य देता है कि बिल्ली का रूप बन गया, उसे व्यक्तिनिष्ठ भाग कहते हैं।

इस प्रकार सभी के पास वस्तुनिष्ठ मन है अर्थात् मन का वह भाग है जो सोचने की वस्तुनिष्ठता रखता है, अब देखना यह है कि यह वस्तुनिष्ठ मन कार्य कैसे करता है। मानलो कोई पोस्टआफिस के बारे में सोचता है तो पोस्ट आफिस उसके वस्तुनिष्ठ मन में है और यदि कोई मेंढक या मच्छर के बारे में सोचता है तो वह मच्छर, मेंढक के वस्तुनिष्ठ मन में है। इसलिये किसी के द्वारा किसी वस्तु के संबंध में सोचने का अर्थ हुआ उसके वस्तुनिष्ठ मन के द्वारा उस वस्तु का आकार या रूप ग्रहण कर लेना।

इसके अलावा यह वस्तुनिष्ठ मन भी दो प्रकार से कार्य करता है, एक तो वह जो किसी देखी गई वस्तु जैसे बिल्ली को फिर से आँख  बंद कर देखने पर वह वस्तुनिष्ठ मन बिल्ली का प्रतिविंब बना लेता है। इसी वस्तुनिष्ठ मन के कार्य करने का दूसरा प्रकार यह  है, मानलो अब उसकी कल्पना करते हैं जिसका अस्तित्व ही नहीं है जैसे भूत,  तो अस्तित्व न होते हुए भी जो सोचा जा रहा है कि इस अंधेरे कमरे में भूत रहता है जिसके बड़ेबड़े दाॅंत और उल्टे पैर होते हैं, यह बिल्कुल कल्पना है परंतु फिर भी वह वस्तुनिष्ठ मन में अपना प्रतिविंब बनाता है और इस कल्पित भूत को जो देखने का काम करता है वह भी इसी मन का व्यक्तिनिष्ठ भाग है। अधिकाॅंश  मनोवैज्ञानिक बीमारियाॅं इसी दूसरे प्रकार के काल्पनिक चिंतन का परिणाम होती हैं। जब, कि प्रारंभिक अवस्था में चेतन मन अपनी ज्ञानेन्द्रियों  की सहायता से देखे जा रहे कल्पित भूत को परख लेता है कि सचमुच में भूत है भी कि नहीं तब अंत में  पाता है कि कोई भूत नहीं है और जो आभास हो रहा था वह मात्र कल्पना थी। यही सही भी है। इसका अर्थ यह है कि यथार्थ निर्णय करने के लिये मन का व्यक्तिनिष्ठ भाग (अर्थात् जो देख रहा है या साक्ष्य दे रहा है), वस्तुनिष्ठ भाग  (अर्थात् जो देखा जा रहा है) से अधिक शक्तिशाली होना चाहिये ।

अब यदि कहीं इसका उलटा हो जाये, अर्थात् वस्तुनिष्ठ भाग की शक्ति व्यक्तिनिष्ठ भाग से अधिक हो जाये तब इस अवस्था में वह व्यक्ति भूत का होना ही सही कहेगा।  यदि यह एक या दो बार ही होता है तो उसे समझाया जा सकता है परंतु यदि सोचने वाले के व्यक्तिनिष्ठ भाग को उसके वस्तुनिष्ठ भाग ने अपने चंगुल में ले लिया है तो यह वही अवस्था होती है जहाॅं से मनोवैज्ञानिक बीमारियाॅं जन्म लेती हैं। वह अपने हृदय से मानने लगता है कि भूत सचमुच होता है। काल्पनिकता उसके लिये जीवन्तता में बदल जायेगी और वह भयंकर मनोवैज्ञानिक बीमारी से ग्रस्त हो जायेगा।


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